- अरे वाह पंडित जी आज तो तुम्हार चौथा बिटवा भी सरकारी नौकरी में आय गवा। बहुतै बधाई हो... मोहन लाल ने रामप्रसाद को बधाई देते हुए कहा।
हां हमार छोटके भी रेलवई में आय गवा है ,बाकी तीनों भी अलग-अलग महकमें में ऊंचे पद पर काम करत हैं । रामप्रसाद गर्व से बोले ।
- पर ये
तुम किये कइसे ... चारों गजब के आज्ञाकारी भी हैं।क्या घुट्टी पिलाये रहे हो । मोहन लाल ने पूछा ।
- कछु नहीं भाई जब हमार बड़का स्कूल में था तब उसके मास्टर कहे रहे कि इसे शहर भेज दो वहां से बड़ा अफसर बन जाई । तब हमारे मन मा भी आया कि मास्टर जी सही कहत रहे । हम अपने बापू से
मशवरा किये ।तब हमार बापू बोले
- एक की पगडंडी अभी से छुड़ाई दिए तो वह तो लाट साहेब बन जाई बाकी तीन निठल्ले रह जाईं ।
- कइसे निठल्ले रह जाईं ..हम पूछे ।
-- कइसे नहीं रहेंगे बड़का शहर जाए के वहां के रंग ढंग में ढलेगा वहां का खर्चा भी बढ़ जाइ तुम्हार खेती-बाड़ी का आधा
"अरे सुनती हो, बहू के भाई आयें है,बहू के पगफेरे खातिर। आओ--आओ,बैठो बेटा।----इतनी मिठाई -शिठाई लाने की, का जरूरत रही? --हाँ अब आपके पिताजी की तबियत कैसी है?"
"जी ठीक है, डॉ ने आराम के लिये कहा है, सीवियर अटैक था।"
"अरे हमने तो खाली ऑडी गाड़ी और बबुआ के नाम प्लाट की रजिस्ट्री भर की माँग रखी थी, कुँवर कलेउ के बखत,सुनते ही आपके पिताजी बेहोस हो गये।"
"आपने उस समय ये भी कहा कि जब तक गाड़ी और रजिस्ट्री की रकम नहीं मिल जाती, बहू को विदा कराकर नहीं लें जायेंगे।"
"भइये, हमने कोई जागीर माँग ली थी
क्या आप लोगों से, और अगर माँगा भी तो अपने लिये थोड़े न माँगा। आपकी बहिन के सुख के लिये माँगा। इतनी सी बात पर आपके यहाँ रोनाधोना मच गया। ये नंगपन नहीं था क्या आप लोगो का?"
बेटा बोला," इनसे क्या पूछते हैं बाऊजी, ईश्वर को साक्षी करेंगे तो आप ही बेहतर बता सकते हैं कि नंगपन किसका था?"
हमारा भी एक जमाना था...
हमें खुद ही स्कूल जाना पड़ता था क्योंकि साइकिल, बस आदि से भेजने की रीत नहीं थी, स्कूल भेजने के बाद कुछ अच्छा बुरा होगा ऐसा हमारे मां-बाप कभी सोचते भी नहीं थे उनको किसी बात का डर भी नहीं होता था।
🤪पास/ फेल यानि नापास यही हमको मालूम था...
परसेंटेज % से हमारा कभी संबंध ही नहीं रहा।
😛 ट्यूशन लगाई है ऐसा बताने में भी शर्म आती थी क्योंकि हमको ढपोर शंख समझा जा सकता था।
🤣
किताबों में पीपल के पत्ते, विद्या के पत्ते, मोर पंख रखकर हम होशियार हो सकते हैं, ऐसी हमारी धारणाएं थी।
☺️ कपड़े की थैली में बस्तों में और बाद में एल्यूमीनियम की पेटियों में किताब, कॉपियां बेहतरीन तरीके से जमा कर रखने में हमें महारत हासिल थी।
😁 हर साल जब नई क्लास का बस्ता जमाते थे उसके पहले किताब कापी के ऊपर रद्दी पेपर की जिल्द चढ़ाते थे और यह काम लगभग एक वार्षिक उत्सव या त्योहार
"अवि देखो न" कहते हुए सुमन भाभी ने पायजेब सामने रख दी।
"बडी प्यारी हैं, भाभी"
"अनु के लिए"
"लेकिन वह तो अभी बारह साल की है और पायजेब भारी"
उत्सुकता से अवि ने प्रश्न किया।
"बेटी की बाढ है,धीरे धीरे तैयारी शुरू कर दी हूँ। राजकुमार सा दामाद ढूढूंगी।" कहते हुए भाभी के
चेहरे की चमक बढ़ गई। सही भी है मध्यवर्गीय हैं।
धीरे धीरे पैसा जोडकर रखना बुद्धिमान है।
"सुमन भाभी, कल पार्क चलते हैं"।
"नहीं!अनु का कल प्रोग्राम हैं स्कूल मेंऔर अनमोल की छूट्टी"।
"हूहह... ठीक है कल मिलते है" ।
कहते हुए दोनों सखी अपने-अपने घरों में लौट आई।
अवि जब भी सुमन भाभी से
मिलती उनका व्यक्तित्व आकर्षित करती. छोटा सा परिवार और हमेशा उंगली पे नाचते पति जो हमारे उपस्थिति में चाय बनाकर बैठक में ले आते। हंसमुख एवं अच्छे पोस्ट पे तैनात बिल्कुल खिले हुए इंसान और भाभी जिस समान पे हाथ रख देती वह उनका हो जाता। सच में बडी भाग्यशाली थी सुमन भाभी जो कमल भैया सा
"बिरजू तू तो शादी के बाद बिलकुल ही मुरझा गया है, पहले कितना हंसमुख था। हंसना मुस्कुराना, सारे घर में रौनक लगी रहती थी, मगर जब से तेरी शादी हुई और तेरी जिंदगी में सुधा आई है तब से... मैं सही कह रही हूं ना गायत्री बहन..." पड़ोस की घर आई दया बहन ने एक बार
फिर से सुधा पर ताना कसते हुए कहा। दरअसल दो साल हो गए थे बिरजू से सुधा की शादी को मगर अब तक घर में किसी नन्हे मुन्ने की किलकारी नहीं गूंजी थी। बस बहाने से पड़ोस में रहने वाली दया बहन गायत्री देवी के साथ सुधा को बातें सुनाने से नहीं चूकती थी। वहीं सुधा अक्सर भींगी आंखें पोंछ कर
बड़ों के सम्मान को चुप रह जाती थी और आज भी वही सब हो रहा था। बिरजू के फैक्ट्री जाने के बाद दया बहन और गायत्री सुधा पर ताने कसने लगी। गायत्री देवी बेटे पर दोष तो देने से रही, तो वो भी दया बहन की बातों में हां में हां मिलाते रहती। तभी सुधा की छोटी ननद गीता स्कूल से घर में घुसी और