"नेहरू ने अँग्रेजों से गुप्त संधि की थी" और कहा था कि “मैं भी मुसलमान हूं” (विभाजनकालीन भारत के साक्षी)
"इस शीर्षक को पढ़कर आप अवश्य चौकेंगे,लेकिन सत्ता के लिए जवाहरलाल लहरू के ये कुछ व्यक्तिगत रहस्य भी जानने से यह स्पष्ट होता है
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यह स्पष्ट होता है कि स्वतंत्रता के उपरान्त भी भारत क्यों अपने गौरव को पुन: स्थापित न कर सका"- विनोद कुमार सर्वोदय
श्री नरेन्द्र सिंह जी जो ‘सरीला’ रियासत (टीकमगढ़ के पास,बुंदेलखंड) के प्रिंस थे तथा बाद में गवर्नर जनरल लार्ड वेवल व लार्ड माउण्टबैटन के वे ए.डी.सी. रहे थे।
इस कारण 1942 से 1948 तक की वाइसराय भवन में घटित घटनाओं के वे स्वयं साक्षी थे।
उनसे इस लेख के लेखक (प्रो सुरेश्वर शर्मा) की प्रथम भेंट दिसम्बर 1966 में "इण्डिया इण्टरनेशनल सेंटर, दिल्ली" में हुई थी।प्रिंस आफ़ सरीला श्री नरेंद्र सिंह उस समय काफी वृद्ध थे और इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर
में ही रहते थे।
श्री नरेंद्र सिंह जी ने इस भेंट वार्ता में कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदु लेखक को बतायें, उनके अनुसार दूसरे विश्वयुद्ध के रणनीतिकार भले ही विंस्टन चर्चिल थे,
लेकिन युद्ध के हीरो बने अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट रूजवेल्ट ने जापान पर एटम बम गिराकर एक ओर तो जापान के घुटने
टिकवा दिए, दूसरी ओर जापानी साधनों से ब्रह्मदेश में अंग्रेजी सेना को खदेड़ रही "आजाद हिन्द फौज" की गति को अवरुद्ध कर दिया।
इस प्रकार अमेरिका के कारण इंग्लैंड युद्धजीत सका।
इंग्लैंड युद्ध भले ही जीत गया था, लेकिन उसकी शक्ति बहुत क्षीण हो चुकी थी। सुभाषचन्द्र बोस के अद्भुत कारनामों
के कारण भारत के लोगों के मनों से अंग्रेजों का डर बिल्कुल समाप्त हो गया था।उल्टे,अंग्रेजों को ही यह डर सताने लगा था कि भारत के लोग कहीं चुन-चुन कर अंग्रेजों को ही समाप्त करना न शुरु कर दें।
अतः ब्रिटिश प्रधानमन्त्री एटली ने फरवरी 1946 में ही ब्रिटिश संसद में यह घोषणा कर दी कि
हम भारत की सत्ता भारत के ही लोगों को सौंप कर वहाँ से निकल जाएँगे।
माउण्टबेटन यह जानता था कि लहरू सत्ता का भूखा है। वह किसी भी कीमत पर सत्ता प्राप्त करना चाहता है। अतः उसे सत्ता सौंपने से पहले उसने भारत का विभाजन स्वीकार कर लिया। साथ ही अन्य भी वे सारी शर्तें मनवा लीं,
जो ब्रिटिश-अमेरिकी हितों के लिए आवश्यक थीं। जवाहर सत्ता के लिए इतना अंधा हो गया था कि उसने इन शर्तों की भनक सरदार पटेल सहित अन्य राष्ट्रवादी नेताओं तक को भी नहीं लगने दी।
प्रिंस आफ सरीला ने मुझे एक टाइप किए हुए पत्र की प्रति पढ़ने के लिए दी, जो कि माऊण्टबेटन द्वारा प्रधानमंत्री
एटली को लिखी गई थी। उसमें माऊण्टबेटन ने एटली को सूचित किया था कि लहरू से निम्नलिखित विषयों पर सन्धि (treaty) हो गई है और यह सन्धि 50 साल के लिए है।
1. भारत, पाकिस्तान पर आक्रमण कर कभी उसे जीतने की कोशिश नहीं करेगा।
2. पाकिस्तान चाहे तो आक्रमण करके भारत की भूमि जीत सकता है।
3. यदि भारत की सेना रक्षात्मक युद्ध में पाकिस्तान को पीछे खदेड़ कर पाकिस्तान की भूमि पर कब्जा कर लेती है, तो वह भूमि भारत पाकिस्तान को वापिस करेगा।
(ध्यान देने की बात है कि 1965 व 1971 के युद्धों में भारत द्वारा जीती हुई भूमि पाकिस्तान को वापिस दी गई।)
4. भारत के मुसलमानों और
ईसाइयों का विशेषाधिकार सुरक्षित रखा जाएगा।
5. सुभाषचन्द्र बोस जी को पकड़कर भारत,ब्रिटेन को सौंपेगा।
6. भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मन अधिनायक जय हे’ रहेगा।
7. हिन्दी के ऊपर अंग्रेजी की वरीयता रहेगी।
8.संविधान और प्रशासन-तन्त्र में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं होगा।
9. शिक्षा पद्धति नहीं बदली जाएगी।*
10. सैन्य विकास पर पाकिस्तान से अधिक खर्च नहीं किया जाएगा, ताकि पाकिस्तान डरे नहीं।
इस प्रकार के 40-50 बिन्दु उस पत्र में थे। शेष मुझे याद नहीं।
पत्र के अन्त में लिखा था-“This treaty should be kept secret. It is not to be published“।
पत्र पढ़ने के बाद मैंने सरीला को कहा कि विश्वास नहीं होता कि पंडित जवाहर लाल नेहरू ने यह सब स्वीकार किया होगा।
इस पर सरीला मुस्कराए और फिर गम्भीर होकर बोले “पहले तो लहरू को ‘पंडित’ कहना बन्द करो, क्योंकि वह मुसलमान था।“
इसकी पुष्टि में उन्होंने एक प्रसंग सुनाया।
“जवाहर और माऊण्टबेटन की बातचीत चल रही थी। मैं साथ के ही अपने कक्ष में उनकी वार्ता सुन रहा था। जवाहर जब विभाजन के लिए तैयार नहीं हुआ, तो माऊण्टबेटन ने उसे कहा- ठीक है, हमने (अंग्रेजों ने) यहाँ की सत्ता मुसलमानों से ली थी और अब हम उन्हीं को वापिस देकर चले जाएँगे।
हम सत्ता जिन्नाह
को सौंप देंगे।’
“मैंने देखा, यह सुनते ही जवाहर का चेहरा फक्क हो गया था। उसे लगा, अब उसके हाथ से सत्ता गई।
थोड़ी देर में वह संभला, और बोला- ‘Originally I am also a muslim (मूलत: तो मैं भी मुसलमान ही हूँ।) यह मैने अपने कानों से सुना था।“
प्रिंस सरीला नें अपना कथन चालू रखा_“जहाँ तक
तक इस पत्र-प्रतिलिपि की प्रामाणिकता की बात है, इसकी मूल प्रति भी तुम लंदन की ब्रिटिश लायब्रेरी के ‘ओरियण्टल एण्ड इंडियन कलेक्शन खण्ड’ के अभिलेखागार में देख सकते हो।
वहाँ ब्रिटिश प्रधानमन्त्रियों के भारत सम्बन्धी पत्राचारों की फाइलें संचित हैं। भारत सम्बन्धी सूचनाओं को ब्रिटिश
प्रधानमंत्री अमेरिकी राष्ट्रपति से भी साझा करते थे, वह भी उन फाइलों में उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त साउथैम्पटन की हर्टले लायब्रेरी मेंमाउण्टबेटन के पत्राचारों के सभी अभिलेख कियू (Kew) के पब्लिक रिकार्ड आफिस में भी प्रदर्शित हैं।”
बाद में जब वर्ष 2000 में मैं (लेखक)इंग्लैंड गया,
तो साउथैम्पटन की हर्टले लायब्रेरी में मुझे माउण्टबेटन के पत्राचारों की फाइलों में वह मूल पत्र मिल गया, जिसकी प्रतिलिपि प्रिंस सरीला ने दिखायी थी।
मै लन्दन की ब्रिटिश लायब्रेरी में भी गया। वहाँ मुझे ब्रिटिश प्रधानमंत्री द्वारा अमरीकी राष्ट्र को लिखे पत्रों में वह सब कुछ मिला,
जिसका उल्लेख प्रिंस सरीला ने किया अर्थात् ब्रिटिश अमरीकी दुरभिसंधि।
इंगलैंड के बाद मैं अमरीका गया तो वहाँ भी वाशिंगटन के अभिलेखागार में वह सारा पत्र व्यवहार विद्यमान था।
लेखक: प्रो.सुरेश्वर शर्मा, पूर्व कुलपति।
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय,जबलपुर)
साभार: प्रस्तावना “विभाजनकालीन भारत के साक्षी”(पृष्ठ 5,खण्ड 2)
मैं आपको एक किस्सा सुनाता हूँ।
बात 1991 की है। तब चंद्रशेखर देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे। चंद्रशेखर की सरकार मात्र 60 सांसदों की सरकार थी जिसे बाहर से काँग्रेस पार्टी का समर्थन प्राप्त था। चंद्रशेखर ने 10नवम्बर 1990 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी।
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पर जैसा कि कांग्रेस पार्टी हमेशा से करती आई है, चार महीने बाद ही राजीव गाँधी ने चंद्रशेखर की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। चंद्रशेखर के पास पद से त्यागपत्र देने के अलावा और कोई चारा नहीं था।
6 मार्च 1991 को उन्होंने अपने करीबी साथियों के साथ गुड़गांव के भोंडसी आश्रम में बैठक की..
जिसमें यह तय किया गया कि चंद्रशेखर राष्ट्रपति भवन जाकर राष्ट्रपति श्री आर वेंकटरमन को अपना त्यागपत्र सौंप देंगे।
चंद्रशेखर राष्ट्रपति भवन के लिए निकलने ही वाले थे कि उन्हें बताया गया कि डॉ मनमोहन सिंह⌨️ उनसे मिलने के लिये आये हैं। मनमोहन सिंह चंद्रशेखर के चार मास के शासन काल के
राहुल गांधी और कांग्रेस क्यों बार-बार कहते हैं कि "मोदी सरकार" #सीबीआई का दुरुपयोग कर रही है***
क्योंकि सीबीआई के दुरुपयोग की पूरी #हिस्ट्री कांग्रेस के पास है...
और इनके पास इतने "गंदे रिकॉर्ड" हैं जिसे जानकर आप चौक जायेंगे😱😱😱
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1983 में #बिहार में और केंद्र में दोनों जगहों पर कांग्रेस सत्ता में थी बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र थे और केंद्र में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी...
उस वक्त बिहार विधान परिषद की सभापति थी राजेश्वरी सरोज दास उन्होंने एक लड़की गोद ली हुई थी जिसका नाम था श्वेतनिशा त्रिवेदी...
उन्होंने कभी यह खुलासा नहीं किया कि उस लड़की के असली मां बाप कौन थे वह लड़की बेहद खूबसूरत थी राजेश्वरी सरोज दास ने अपने प्रभाव से अपनी गोद ली हुई बेटी को बिहार विधानसभा में टेलीफोन ऑपरेटर बना दिया,
श्वेत निशा त्रिवेदी इतनी खूबसूरत थी के विधानसभा में सभी विधायक लोग उसे बॉबी कहकर
कमाल की बात है....
राहुल गाँधी की सांसदी छिनने के बाद अगर एक नेता या पार्टी सबसे ज्यादा शोर मचा रहे हैं.. तो वह है केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी...
केजरीवाल के आज(24/3/23) के statement देखे...
चेहरा एकदम तमतमाया हुआ था, शब्द भी कड़े कठोर थे... अनाप शनाप बोल रहे थे...
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ऐसा दिखा रहे थे जैसे कि भारतीय लोकतंत्र को बचाने की इस लड़ाई में अब बस वही एक सूरमा बच गए हैं.
इतना तो केजरीवाल साहब तब नहीं गुस्सा हुए, जब मनीष सिसोदिया की गिरफ़्तारी हुई थी...
दरअसल केजरीवाल को अब एक अवसर दिख रहा है...
हो सकता है ऊपर से आदेश भी आ गया हो...
कि लोहा गर्म है, मार दो हथोड़ा...
राहुल बेशक़ पप्पू हों, लेकिन कहीं ना कहीं विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता हैं...
लेकिन उनके रास्ते से हटने के बाद जो Vaccume बना है, उसे भरने की कोशिश 2-3 नेता तो करेंगे है... जैसे केजरीवाल, ममता बनर्जी, चंद्रशेखर राव आदि.
वीर सावरकर जी की पुस्तक "हिंदुत्व" के पेज न0 86 से पेज न0 91 तक
आधुनिककाल के चंद्रगुप्त का ही उदाहरण देखने के लिये हम अपने पाठकों से कहते हैं। चंद्रगुप्त ने एक ब्राह्मण कन्या से विवाह किया और इनसे अशोक के पिता की उत्पत्ति
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हुई और इस अशोक ने युवराज रहते एक वैश्य कन्या से विवाह किया।
हर्ष वैश्य था और उसने अपनी कन्या एक क्षत्रिय राजपुत्र को ब्याह दी।
व्याधकर्मा एक व्याध का पुत्र था और उसकी माता उस व्याध की सहधर्मिणी एक विप्र कन्या थी और यह व्याधकर्मा विक्रमादित्य का यज्ञाचार्य हुआ था।
कृष्ण भट्ट ब्राह्मण होकर भी एक चांडाल कन्या पर इतना मोहित हुआ कि उसने खुल्लमखुल्ला उससे विवाह किया। इसने फिर "मातंगी पन्थ" नाम का एक धर्म-सम्प्रदाय चलाया।
ये सब लोग हिन्दू ही कहलाते थे और आज भी उन्हें कोई अहिन्दु नहीं कहता। उन्हें हिन्दू कहलाने का अधिकार भी है।
☝️एक सर्वश्रेष्ठ निर्भ्रन्त #त्रिविक्रमा के अनंत रौद्र का उत्तराधिकारी भी कर्तव्यनिष्ठ अपने मार्गदर्शक का अनुसरण करने वाला एक शिष्य ही होता है...
☝️क्योंकि "निर्भ्रन्त " हर पल हर क्षण हमेशा अपने शिष्य को कभी #अर्जुन या कभी #अभिमन्यु जैसा ही पाता है***
1/2
☝️धर्मयुद्ध के युद्धक्षेत्र में "निर्भ्रन्त" इस बात को बखूबी समझता है कि "इसे इस बार भी युद्धक्षेत्र में सम्भालना होगा"
☝️हर पल हर एक क्षण इसे मजबूत बनाना होगा...
☝️ताकि युद्धक्षेत्र के मैदान में "जिम्मेदारियों का बोझ" अथवा एक अयोग्यता* इसका वध न कर सके...
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☝️धर्मयुद्ध के वक़्त जब कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन विषाद और मोह से ग्रस्त होकर अपना गांडीव रख देता है और युद्ध न करने की घोषणा करते हुए अपने रथ पर बैठ जाता है और इसी प्रकार युद्ध के मैदान में एक अयोग्यता* के कारण "अभिमन्यु का वध" भी हो जाता है...
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एक बड़ी प्राचीन, तिब्बत में कहानी है। एक आदमी यात्रा से लौटा है-लंबी यात्रा से। अपने मित्र के घर ठहरा और उसने मित्र से कहा रात, यात्रा की चर्चा करते हुए, कि एक बहुत अनूठी चीज मेरे हाथ लग गई है।
और मैंने सोचा था कि जब मैं लौटूंगा तो अपने मित्र को दे दूंगा,
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लेकिन अब मैं डरता हूं, तुम्हें दूं या न दूं। डरता हूं इसलिए कि जो भी मैंने उसके परिणाम देखे वे बड़े खतरनाक हैं।
मुझे एक ऐसा ताबीज मिल गया है कि तुम उससे तीन आकांक्षायें मांग लो, वे पूरी हो जाती हैं। और मैंने तीन खुद भी मांग कर देख लीं। वे पूरी हो गई हैं और
अब मैं पछताता हूं कि मैंने क्यों मांगीं?
मेरे और मित्रों ने भी मांग कर देख लिए हैं, सब छाती पीट रहे हैं, सिर ठोक रहे हैं। सोचा था तुम्हें दूंगा, लेकिन अब मैं डरता हूं, दूं या न दूं।
मित्र तो दीवाना हो गया। उसने कहा, 'तुम यह क्या कहते हो; न दूं?