राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का ठेका लेने वाली ब्रिटिश प्रोपोगेंडा एजेंसी कैंब्रिज एनालिटिका कुछ दिन पहले खूब चर्चा में थी। लेकिन अब जब चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है कहीं भी उसकी कोई चर्चा नहीं है। तो क्या कैंब्रिज एनालिटिका अपना काम नहीं कर रही है? यह वो सवाल (1/28)
है जो कई लोग सोशल मीडिया पर पूछ रहे हैं। इस सवाल का जवाब जानने के लिए भारती न्यूज़ ने गहराई के साथ पड़ताल की और जो जवाब सामने आया वो चौंकाने वाला है।
कैंब्रिज एनालिटिका पूरी तरह सक्रिय है और कांग्रेस पार्टी का एजेंडा दरअसल यही एजेंसी तय कर रही है। एजेंसी भारत में भी वही (2/28)
कर रही है जिसके लिए वो दुनिया भर में बदनाम रही है। ये काम है लोगों के पर्सनल डेटा चोरी करने का और फिर उन्हें ऐसी जानकारियां भेजना जिससे उनकी सोच को प्रभावित किया जा सके।
कुछ समय पहले कैंब्रिज एनालिटिका की एक रिपोर्ट लीक हो गई थी, जिसमें यह जिक्र था कि अगर देश में बड़े (3/28)
पैमाने पर जातीय दुश्मनी को बढ़ावा दिया जाए, दलितों पर अत्याचार की खबरें उड़ाई जाएं तो इससे कांग्रेस को चुनावी फायदा होगा।
पिछले करीब छह महीने से कैंब्रिज एनालिटिका बिना किसी शोर-शराबे के इसी फॉर्मूले पर काम कर रही है। साथ ही कई मीडिया संस्थानों के प्रमुखों को मोटी रकम (4/28)
इस बात के लिए खिलाई गई है कि वो अब अपनी खबरों में कैंब्रिज एनालिटिका का नाम नहीं लेंगे। कांग्रेस पार्टी ने कैंब्रिज एनालिटिका के साथ कोऑर्डिनेशन की जिम्मेदारी सिर्फ एक व्यक्ति सैम पित्रोदा को दे रखी है। सैम पित्रोदा राजीव गांधी के भी बेहद करीबी हुआ करते थे।
कैंब्रिज (5/28)
एनालिटिका फिलहाल 2 मोर्चों पर काम कर रही है। पहला, सरकार के खिलाफ नाराजगी के मुद्दे पैदा करना और दूसरा, राहुल गांधी की इमेज में सुधार करना। इन दोनों ही मोर्चों पर पिछले दिनों में काफी काम हुआ है जिसके बारे में इसी रिपोर्ट में हम आपको आगे बताएंगे। जहां तक इमेज सुधारने की (6/28)
बात है वो तो फिर भी ठीक है लेकिन सरकार के खिलाफ नाराजगी के मुद्दे पैदा करने में कैंब्रिज एनालिटिका की महारथ मानी जाती है।
इसमें उसका सबसे खास औजार बनता है सोशल मीडिया और मेनस्ट्रीम मीडिया। इन दोनों की मदद से पिछले कुछ दिनों में यह माहौल पैदा करने की कोशिश हो रही है कि (7/28)
देश में कुछ भी ठीक नहीं हो रहा है।
अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है, लोग महंगाई से परेशान हैं, बेरोजगारी बढ़ गई है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, भ्रष्टाचार अपने चरम पर है, अपराध बढ़ते जा रहे हैं, दलितों पर अत्याचार हो रहे हैं, अल्पसंख्यकों को दबाया जा रहा है, देश में आतंकवादी (8/28)
हमले हो रहे हैं, भारत पाकिस्तान औऱ चीन के मुकाबले पिछड़ता जा रहा है, इस सब माहौल के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार जनता की परेशानियों के लिए उदासीन है। ये वो मुद्दे हैं जिनका जिक्र कैंब्रिज एनालिटिका की लीक हुई रिपोर्ट में भी था।
अगर आप ऊपर के मुद्दों को (9/28)
पढ़ लिए हैं तो समझ जाएंगे कि कैसे ज्यादातर झूठी खबरों और फर्जी नैरेटिव के जरिए इन सभी को हवा देने की भरपूर कोशिश की गई है।
लेकिन जमीनी हालात बिल्कुल अलग हैं। समस्याएं हर देश में होती हैं, लेकिन फिलहाल कोई समस्या इतनी भी नहीं है कि लोग सड़कों पर उतर जाएं। लेकिन जब आप (10/28)
कांग्रेस नेताओं के भाषणों को सुनेंगे, या कांग्रेस के लिए काम कर रहे मीडिया संस्थानों की खबरों को देखेंगे तो आपको लगेगा कि वाकई देश में कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा। इसके लिए कई पत्रकारों और लेखकों को हर महीने 50 हजार से लेकर 5 लाख रुपये तक के भुगतान की खबरें भी सामने आ चुकी (11/28)
हैं।
कैंब्रिज एनालिटिका की सिफारिश पर ही इस साल जनवरी में अचानक कई बड़े पत्रकारों और नेताओं ने यह बोलना और लिखना शुरू कर दिया कि 2019 का चुनाव अगर मोदी जीत गए तो देश में लोकतंत्र खत्म हो जाएगा। दलितों पर अत्याचार की कई झूठी खबरें पिछले एक साल में कैंब्रिज एनालिटिका ने (12/28)
ही फैलाईं। जब सरकार ने सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण दिया तो कांग्रेस पार्टी इसके खिलाफ खुलकर बोल नहीं सकी। लिहाजा इस मुद्दे पर भी दलितों को शक पैदा करने की जिम्मेदारी चंद्रशेखर रावण जैसे तत्वों को दी गई।
हमारी जानकारी के मुताबिक इस तरह के कई तत्वों को कैंब्रिज एनालिटिका (13/28)
से मोटी फंडिंग भी मिल रही है। इसी तरह से पिछले दिनों बेरोजगारी के फर्जी आंकड़े मीडिया में जारी किए जाने के मामले में भी कैंब्रिज एनालिटिका का ही हाथ था। हमारे सूत्र ने बताया कि कैंब्रिज एनालिटिका ने ही कांग्रेस नेतृत्व को सुझाव दिया था कि महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ना बेहतर (14/28)
होगा। लेकिन क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं के चलते कांग्रेस इसमें अब तक कुछ खास कामयाब नहीं हो सकी है।
एजेंसी के इस सुझाव का नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस हाईकमान शुरू से ही इतने दबाव में आ गया कि हर जगह सहयोगी पार्टियों ने ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया। यहां तक कि बिहार में आरजेडी (15/28)
ज्यादा सीटें छोड़ने को तैयार नहीं। यूपी में सपा-बसपा ने तो पल्ला ही झाड़ लिया। बंगाल में सीपीएम ने कह दिया कि कांग्रेस से गठबंधन नहीं होगा। बाकी राज्यों में भी यही स्थिति है। कैंब्रिज एनालिटिका इसे अपने पूरे इलेक्शन गेमप्लान में एक बड़े झटके के तौर पर देखती है। अब उसका (16/28)
जोर उम्मीदवार उतारने में तालमेल बिठाने और नतीजे आने के बाद की सौदेबाजी पर टिकी है।
यह बात भी सामने आई है कि कैंब्रिज एनालिटिका ने शुरू में राफेल को मुद्दा बनाने से मना किया था। लेकिन जब राहुल गांधी अपनी रैलियों में बार-बार इसका जिक्र करने लगे तो उसने इसे अपने एजेंडे का (17/28)
हिस्सा बना लिया। लेकिन इसमें वो बुरी तरह से नाकाम रही। लोग यह समझने लगे हैं कि राहुल गांधी दरअसल दूसरी हथियार कंपनी यूरोफाइटर की तरफ से बोल रहे हैं। हथियार सौदों में रिश्वतखोरी के गांधी परिवार के इतिहास को देखते हुए लोग समझ गए कि दाल में कुछ काला है।
राहुल गांधी ने इस (18/28)
मामले में जो सबसे बड़ी गलती कर दी वो आंकड़ों को लेकर थी। वो जहाजों के दाम से लेकर सौदे की कीमत तक पर लगातार कई आंकड़े बोलते रहे। ऐसे में उनके समर्थक भी नहीं मानते कि राफेल सौदे में कोई घोटाला या गड़बड़ी हुई है। सुप्रीम कोर्ट में मामला जाने के बाद रही-सही विश्वसनीयता (19/28)
भी मिट्टी में मिल गई। खुद कैंब्रिज एनालिटिका के अधिकारी अब मानते हैं कि राहुल गांधी जितना इस मुद्दे पर पीएम मोदी को गाली देंगे, उतना बीजेपी को फायदा होगा। लेकिन ये एक ऐसा मामला है जिसमें राहुल गांधी उनकी सुनने को तैयार नहीं हैं।
गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने (20/28)
विकास को पागल कहा था। लेकिन इस नकारात्मक प्रचार का नतीजा यह हुआ कि गुजरात में हाथ में आई बाजी गंवानी पड़ी। लिहाजा विकास के मुद्दे पर कांग्रेस का कोई भी नेता ज्यादा नहीं बोल रहा। वैसे भी विकास के काम जनता को दिखाई दे रहे होते हैं। अगर राहुल गांधी कहते हैं कि कोई काम नहीं (21/28)
हुआ और इलाके में बिना भ्रष्टाचार के सड़क बनी हो तो जनता समझ जाती है कि वो झूठ बोल रहे हैं। यही बात उज्जवला, बिजली और मकान देने की स्कीमों पर भी लागू होती है।
लंदन में ईवीएम हैकिंग का दावा करने वाली एक प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई थी। दरअसल इस पूरे आयोजन के पीछे भी कैंब्रिज (22/28)
एनालिटिका का ही हाथ था। इसके लिए कपिल सिब्बल खास तौर पर वहां भेजे गए थे। लेकिन विदेशी मीडिया के कैमरों में वो कैद हो गए और पहचान जाहिर होते ही सारा खेल समझ में आ गया। नतीजा ये हुआ कि फायदा कम और भरोसे का नुकसान ज्यादा हुआ। लोग समझने लगे कि ईवीएम को मुद्दा बनाने के पीछे (23/28)
असल नीयत क्या है।
फिलहाल की स्थिति को देखकर यही लगता है कि अमेरिका से यूरोप तक अपनी कुटिल नीतियों से कामयाबी के झंडे गाड़ने वाली कैंब्रिज एनालिटिका भारत में लाचार दिख रही है। पहली बार उसे राहुल गांधी के रूप में एक ऐसा क्लाइंट मिला है, जिसको लोग भरोसे के लायक नहीं मानते। (24/28)
आधी से ज्यादा आबादी के लिए राहुल गांधी की छवि हास्यास्पद, झूठ बोलने वाले और फर्जी आरोप लगाने वाले नेता की है। भारत के मुद्दों और लोगों की सोच को भी एजेंसी अभी तक ढंग से समझ नहीं पाई है। जातीय नफरत फैलाने वाली उसकी रणनीति ने कांग्रेस को शुरुआती फायदा जरूर दिया, लेकिन (25/28)
धीरे-धीरे ज्यादातर मामलों की सच्चाई सामने आ गई। उदाहरण के तौर पर कुछ समय पहले गुजरात में घुड़सवारी करने पर एक दलित की हत्या की खबर कैंब्रिज एनालिटिका ने ही अखबारों और चैनलों के जरिए फैलाई थी, लेकिन 2-3 दिन में ही यह खबर सामने आ गई कि ये छेड़खानी का मामला था और हत्या के (26/28)
आरोप में गिरफ्तार लोग उसकी ही जाति के हैं। लिहाजा समय के साथ ऐसी खबरों की विश्वसनीयता कम होती गई।
जातीय नफरत पैदा करने के लिए कांग्रेस ने कन्हैया कुमार, हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी, अल्पेश ठाकोर और चंद्रशेखर रावण जैसे जितने भी नेता पैदा किए उन सबकी सच्चाई धीरे-धीरे (27/28)
जनता के सामने आती गई। यही कारण है कि रातों-रात पैदा हुए इन नेताओं को उनके जातीय समुदाय के लोग ही शक की नज़र से देखने लगे थे।
समान विचार वाले दलों के साथ काम करेंगे: सोनिया गांधी। कितने विचार समान हैं मैडम, और साथ काम करने की बजाय, आपसे में Merge क्यों नहीं हो जाते।
कालचक्र कैसे घूमता है यह भी देखने वाली बात है। कभी इंदिरा गांधी के समय में सभी विरोधी दल मिलकर चुनाव लड़ने की कोशिश (1/11)
करते थे और तब विपक्ष को ताना मारा जाता था कि "तुम्हारा प्रधानमंत्री" कौन बनेगा। यह ताना स्वयं इंदिरा गांधी भी मारती थी।
लेकिन 1977 में 5 दलों ने मिलकर जनता पार्टी का गठन कर लिया और इंदिरा गांधी का सफाया हो गया जबकि उसने अपनी सत्ता को बचाने के लिए इमरजेंसी लगा कर (2/11)
देश को जेलखाना बना दिया। जनता पार्टी के घटकों ने एक नया राग छेड़ा कि जनसंघ का तो जनता पार्टी में विलय हो गया परंतु RSS का नहीं हुआ, उसे भी अपना विलय जनता पार्टी में करना चाहिए जिसे संघ ने नहीं माना और जनता सरकार अपने ही बोझ तले दब कर गिर गई क्योंकि उसके नेताओं की (3/11)
भाजपा ने राष्ट्रपति शासन लगाया है तो सुप्रीम कोर्ट ने उसमें अड़ंगा लगाया है। अपने उत्तराखंड का ही उदाहरण है।
इसलिए भाजपा दूसरा खेला करती है। वो उन लोगों को तोड़ देती है जो अपनी सरकारों में परेशान हैं। विपक्षी इसे ऑपरेशन लोटस कहते हैं लेकिन सच्चाई ये है कि इनके (1/10)
खुद के ही दुखी रहते हैं, भाजपा तो बस सहारा देती है। वैसे ये ऑपरेशन फलाना ढिमका तब नही होता जब कोई भाजपा से कांग्रेस में जाये। तब लोकतंत्र की रक्षा होती है।
ये इसलिए बता रहा हूँ कि अमित शाह बंगाल में कह रहे थे कि हमें 2024 में 35 सीट दीजिए... 2025 की जरूरत नही पड़ेगी, (2/10)
ममता की सरकार चले जाएगी। फिर न यहां दंगे होंगे, न गौहत्या, न घुसपैठ... इसके लिए उन्होंने बगल के असम का उदाहरण दिया कि आज वहां ये सब नही होता। हालांकि मीडिया ने चालाकी से चलाया कि अमित शाह ने कहा कि हमे लोकसभा में जिताओ, हम फिर हिंसा नही होने देंगे। अब इसे पढ़कर लगेगा (3/10)
जल्द ही आपको असत्यपाल मलिक के भौंके गए मेटेरियल कांग्रेस द्वारा र-रोने के नाम पर दिखने वाले हैं।
उसने कहा कि CRPF ने केंद्र से प्लेन मांगे थे लेकिन मोदी ने मना कर दिया जिस वजह से पुलवामा हुआ। उसके बाद मोदी और डोभाल ने इसे मुंह बंद करने को कहा। (अब क्यों बता रहा है (1/10)
ये इससे कोई नही पूछेगा)
अब ये जान लो कि इस बन्दे पर 300 करोड़ के हर फेर की जांच चल रही है। जल्द ही सीबीआई इसे खोपचे में लेने वाली है। इसलिए ये ड्रामा कर रहा है। इसने ये भी ड्रामा किया कि ISI इसे मारने वाली है क्योंकि इसने 370 हटाया था। इस वजह से ये Z+ सिक्योरिटी मांग (2/10)
रहा था लेकिन सरकार ने इसे नही दी। ये सरकारी बंगले के जुगाड़ में भी लगा हुआ था कि पूर्व राज्यपाल के नाते इसे दिया जाए लेकिन ऐसा कोई कानून नही है तो सरकार ने इसे नही दिया। इसके बाद इसने फर्जी किसान आंदोलन के नाम पर धमकाया कि मैं मोदी की ईंट से ईंट बजा दूँगा लेकिन कुछ नही (3/10)
शिवाजी का पत्र, गद्दार मिर्जा राजा जयसिंह के नाम...
भारतीय इतिहास में दो ऐसे पत्र मिलते हैं जिन्हें दो विख्यात महापुरुषों ने दो कुख्यात व्यक्तिओं को लिखे थे। इनमे पहिला पत्र "जफरनामा" कहलाता है... जिसे श्री गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब को भाई दया सिंह के हाथों भेजा था। यह (1/14)
दशम ग्रन्थ में शामिल है। इसमे कुल 130 पद हैं। दूसरा पत्र शिवाजी ने आमेर के राजा जयसिंह को भेजा था... जो उसे 3 मार्च 1665 को मिल गया था।
इन दोनों पत्रों में यह समानताएं हैं की दोनों फारसी भाषा में शेर के रूप में लिखे गए हैं। दोनों की पृष्ठभूमि और विषय एक जैसी है। दोनों में (2/14)
देश और धर्म के प्रति अटूट प्रेम प्रकट किया गया है। जफरनामा के बारे में अगली पोस्टों में लिखेंगे।
शिवाजी का पत्र बरसों तक पटना साहेब के गुरुद्वारे के ग्रंथागार में रखा रहा... बाद में उसे "बाबू जगन्नाथ रत्नाकर" ने सन 1909 अप्रेल में काशी में काशी नागरी प्रचारिणी सभा से (3/14)
कुबेर और रावण जैसे विद्वानों का देश श्रीलंका आज खुद को दिवालिया घोषित कर चुका है।
किसी समय लंका में कुबेर की सत्ता थी उन्होंने भारत के कितने ही छोटे राज्यो को निवेश से मदद की। लेकिन लंका में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगो की थी जो कुबेर के इन निर्णयों से खुश नही (1/15)
थे वे नही चाहते थे कि ऋषि मुनि किसी तरह की रिसर्च करे और अन्य राज्य लंका से आगे बढ़े।
ऐसे लोगो का प्रतिनिधित्व कुबेर का भाई रावण खुद कर रहा था, अंततः कुबेर को अपदस्थ किया गया और रावण लंका का राजा बना। रावण ने ऋषि मुनियों पर अत्याचार शुरू कर दिये, अयोध्या के सूर्यवंशियों (2/15)
को छोड़कर शेष सम्पूर्ण भारत उसकी खड़क से सहम गया था।
रावण जानता था कि अयोध्या जीतना आसान नही है, मगर समस्या अहंकार की थी जो मानता था कि अयोध्या अभी रहने दो।
यही अहंकार रावण को ले डूबा, जब अयोध्या के राजकुमारों राम और लक्ष्मण ने ताड़का और सुबाहू का वध किया तब भी रावण का (3/15)
आज देश भर में आंबेडकर जयंती मनायी जायेगी... लगभग हर पार्टी ने खुद को सबसे बड़ा आंबेडकर भक्त दिखाने की कोशिश करेगी... लेकिन जरा झाँककर देखते हैं इतिहास में कौन बाबा साहेब के साथ था और कौन खिलाफ...
जब बाबा साहेब आंबेडकर ने काँग्रेस की नेहरूनीतियों से तंग आ कर काँग्रेस से (1/12)
खुद को अलग कर लोकसभा चुनाव लड़ा तो नेहरू ने जी जान लगा दी की वह लोकसभा ना पहुँच पायें... बाबा साहेब ने बंबई से चुनाव लड़ा... काँग्रेस चाहती तो वहाँ अपना उम्मीदवार नहीं उतारती लेकिन काँग्रेस ने वहाँ उम्मीदवार उतार कर बाबा साहेब को संसद तक आने से रोक दिया और यह सिर्फ एक बार (2/12)
नहीं दो बार किया। बाबा साहेब भंडारा से चुनाव लड़े वहाँ भी काँग्रेस ने बाबा साहेब को धन बल का प्रयोग कर हरा दिया।
संघ को गरीयाने वालों को पता करना चाहिये की कैसे बाबा साहेब राज्यसभा तक पहुँचे। बेशक संघ और बाबा साहेब के विचारों में कुछ विरोधाभास तो थे लेकिन समानताएँ भी थी। (3/12)