शिखाबन्धन (वन्दन) आचमन के पश्चात् शिखा को जल से गीला करके उसमें ऐसी गाँठ लगानी चाहिये, जो सिरा नीचे से खुल जाए। इसे आधी गाँठ कहते हैं। गाँठ लगाते समय गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते जाना चाहिये ।शिखा, मस्तिष्क के केन्द्र बिन्दु पर स्थापित है।
जैसे रेडियो के ध्वनि विस्तारक केन्द्रों में ऊँचे खम्भे लगे होते हैं और वहाँ से ब्राडकास्ट की तरंगें चारों ओर फेंकी जाती हैं, उसी प्रकार हमारे मस्तिष्क का विद्युत् भण्डार शिखा स्थान पर है,
उस केन्द्र में से हमारे विचार, संकल्प और शक्ति परमाणु हर घड़ी बाहर निकल-निकलकर आकाश में दौड़ते रहते हैं।
इस प्रवाह से शक्ति का अनावश्यक व्यय होता है और अपना कोष घटता है। इसका प्रतिरोध करने के लिये शिखा में गाँठ लगा देते हैं। सदा गाँठ लगाये रहने से अपनी मानसिक शक्तियों का बहुत-सा अपव्यय बच जाता है।
सन्ध्या करते समय विशेष रूप से गाँठ लगाने का प्रयोजन यह है कि रात्रि को सोते समय यह गाँठ प्रायः शिथिल हो जाती है या खुल जाती है। फिर स्नान करते समय केश-शुद्धि के लिये शिखा को खोलना पड़ता है।
सन्ध्या करते समय अनेक सूक्ष्म तत्त्व आकर्षित होकर अपने अन्दर स्थिर होते हैं, वे सब मस्तिष्क केन्द्र से निकलकर बाहर न उड़ जाएँ और कहीं अपने को साधना के लाभ से वंचित न रहना पड़े, इसलिये शिखा में गाँठ लगा दी जाती है।
फुटबाल के भीतर की रबड़ में हवा भरने की एक नली होती है। इसमें गाँठ लगा देने से भीतर भरी हुई वायु बाहर नहीं निकल पाती। साइकिल के पहियों में भरी हुई हवा को रोकने के लिये भी एक छोटी-सी बालट्यूब नामक रबड़ की नली लगी होती है,
जिसमें होकर हवा भीतर तो जा सकती है, बाहर नहीं आ सकती। गाँठ लगी हुई शिखा से भी यही प्रयोजन पूरा होता है। वह बाहर के विचार और शक्ति समूह को ग्रहण करती है । भीतर के तत्त्वों का अनावश्यक व्यय नहीं होने देती ।
आचमन से पूर्व शिखा बन्धन इसलिये नहीं होता, क्योंकि उस समय त्रिविध शक्ति का आकर्षण जहाँ जल द्वारा होता है, वह मस्तिष्क के मध्य केन्द्र द्वारा भी होता है।
इस प्रकार शिखा खुली रहने से दुहरा लाभ होता है । तत्पश्चात् उसे बाँध दिया जाता है।
गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है।
हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया ।
अनेकानेक रत्नों से सुशोभित भारतीय संस्कृति रत्नाकरवत् है , जिसमे अनगिनत कलकल निनादिनी स्त्रोतस्विनी की अजल धाराँए विलीन होती रही हैं । भारतीय सनातन संस्कृति जीवन एवं जगत के व्यापक आदर्शो का समष्टि रूप है - इसका मूलाधार धर्म के ताने बाने से विनिर्मित है ।
धर्म प्रमुख होने के कारण यह सनातन संस्कृति देवोन्मुख है और इसकी व्याप्ति प्रसार के कारण विदेशी संस्कृतियां भी इसमे अन्तर्भूत होती गयीं । इसी सनातन संस्कृति के अन्तर्गभ मे समन्वयवादिता का लक्ष्य निहित होने से विभिन्न मत-मतांतर तथा देवी देवता एक सूत्र मे निबद्ध होते गये ।
मित्रों भगवान शिव स्वयं परब्रह्म हैं। इसलिए, वे अपने वास्तविक स्वरुप में, यानी नग्न रहना पसंद करते हैं। लेकिन, उन्होंने श्रीहरि की विनती स्वीकार करके, बाघंबर या सिंहचर्म को , वस्त्र के रुप में स्वीकार किया।
ये कथा भगवान विष्णु के , नरसिंह अवतार से जुड़ी हुई है। प्रह्लाद की रक्षा के लिए, श्रीहरि ने नरसिंह अवतार धारण करके, हिरण्यकशिपु का वध अपने पंजे से कर दिया। लेकिन,
अष्टावक्र इतने प्रकाण्ड विद्वान थे कि माँ के गर्भ से ही अपने पिताजी "कहोड़" को अशुद्ध वेद पाठ करने के लिये टोंक दिए जिससे क्रुद्ध होकर पिताजी ने आठ जगह से टेड़ें हो जाने का श्राप दे दिया था ।
जब अँग्रेज ने आधुनिक शिक्षा भारत पर लागू की, उसने विज्ञान पर एकाधिकार जमाया और भारतीय विज्ञानियों का मजाक उड़ाया।
हमारी विज्ञान परंपरा को नष्ट करने का प्रयास किया।
अँग्रेज के काम में ब्राह्मण बाधक था, अभी भी है।
क्योंकि वेद से परिचित व्यक्ति कह सकता है कि अँग्रेज पाकिटमार नकलची है।