भारतीय शिक्षा नीति में हाल में ही जो परिवर्तन हुए हैं, उनमें से एक "भारतीय ज्ञान प्रणाली" को यूजीसी के पाठ्यक्रम में जोड़ा जाना भी था। इस विषय से नेट (एनईटी) की परीक्षा का पाठ्यक्रम आसानी से ऑनलाइन उपलब्ध है -
इसकी पांचवी इकाई (यूनिट) स्थापत्य कला से सम्बंधित है। परंपरागत रूप से भारत में मूर्तियों-मंदिरों का ही नहीं इसमें नगरों और बांधों-सड़क-तालाब इत्यादि का भी थोड़ा सा जिक्र आता है। ये क्यों महत्वपूर्ण है? क्योंकि इसमें कल्लनई बांध का जिक्र भी आता है।
ये बांध चोल सम्राट करिकला का बनवाया हुआ है (150 CE)। करीब दो हजार वर्ष पहले कावेरी नदी पर बांध बना होगा, ये सोच पाना आम भारतीय के लिए आज कठिन इसलिए है क्योंकि उसे #दल_हित चिंतकों ने यही बताया है कि भारत में तो कोई अविष्कार हुए नहीं, कोई वैज्ञानिक परंपरा नहीं थी।
आम आदमी के लिए शासन बांध बनवायेगा, बांध बनवाने योग्य तकनिकी जानकारी लोगों के पास होगी, ये सोच पाना ही कठिन हो जाता है। ऐसा तब है जब भारत (और एशिया) का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज (रुड़की आईआईटी), इसलिए बना था क्योंकि स्थानीय तकनीक से बनी नहर को "मेन्टेन" करने के लिए इंजिनियर नहीं थे।
नहर-बांध से आगे तालाबों तक पहुंचेंगे तो जाने-माने गांधीवादी अनुपम मिश्र जी ने "आज भी खरे हैं तालाब" (amzn.to/41TLIUz) जैसी कई किताबें लिखीं, तब लोगों को विश्वास हुआ कि भारत में जल संरक्षण की कोई व्यवस्था थी। कहीं जो अनुपम मिश्र के पास गांधीवादी होने का ठप्पा न होता तो?
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एडिट डेस्क असल में समाप्त नहीं हुआ। ये समय-तकनीक में बदलावों के साथ प्रिंट मीडिया के न बदलने के कारण हुआ है। पुराने जमाने में अलग से पत्रकारिता का कोर्स शायद ही कोई करता था। पत्रकारिता के पेशे में आने वाले कई लोग हिंदी-अंग्रेजी साहित्य के छात्र होते थे।
एक तो छात्र जीवन में ही इन्हें लम्बे लेख लिखने, वर्तनी-व्याकरण सुधारने की आदत होती थी। ऊपर से संपादक जो कि स्वयं वर्षों से ये काम कर रहे होते थे, उनकी निगरानी भी होती थी। जब पत्रकारिता की पढ़ाई-कोर्स किये लोग आने लगे तो खर्च बचाने के लिए संपादकों की संख्या घट गयी।
पेज-एडिटर, फीचर-एडिटर जैसे कई पद गायब होने लगे। साथ ही पाठ्यक्रमों के, परीक्षा के तरीकों के बदलने से लम्बे लेख लिखने की आदत गायब हो चुकी थी। वर्तनी-व्याकरण या शब्दों के प्रयोग का अनुभव भी कम हो चुका था। लिखने वाले स्वयं या आपस में मिलकर संपादन कर ले ये भी संभव नहीं रहा।
बिहार के मिथिलांचल में एक प्रचलित कहावत है - कही त माय मारल जै नै कही त बाप पिल्ला खाय! वैसे तो इसका अर्थ मोटे तौर पर हिंदी के "आगे कुंआ पीछे खाई" या अंग्रेजी के "between the devil and the deep sea" जैसा है, लेकिन इसके पीछे एक कहानी होती है।
कहानी कुछ यूँ है कि एक व्यक्ति था, जिसके परिवार में तीन ही लोग - वो स्वयं, उसकी पत्नी और एक बेटा था। एक दिन सुबह वो बाजार से पाव भर मीट खरीद लाया और पत्नी को बनाने के लिए देकर खेतों पर, अपने काम पर चला गया।
कुकर का जमाना नहीं था, कुछ इस वजह से, और पत्नी मीट की थोड़ी शौक़ीन भी थी इसलिए भी, बनाते-बनाते वो युवती चखकर देख रही थी कि मांस पका या नहीं। पाव भर होता ही कितना है? चखने-चखने में ही स्त्री ने पूरा मांस समाप्त कर डाला।
People just love to lay the blame squarely on #Biharis. Let me show you an example of what 'abba-jabba-dabba' method actually means. Let's take recent #Karnataka elections for an example.
Bommai renovated and restored the sugar factory in Mandya which had been stopped for decades. BJP went down to the 3rd place. @BJP4India also lost Yadagiri, Haveri, and Chikmagalur constituencies that have new medical colleges now.
Try airports - @BJP4India lost in Hassan which has permission for the new airport. Shimoga Rural where a new airport has been built was also lost by BJP. So airports also don't work like factories & medical colleges.
जिसमें रोटियाँ रखते हैं न, वो केसेरोल भी पहले भारत में नहीं होता था। अब आप कहेंगे कि फिर रोटियाँ बनाकर रखते कहाँ थे? रोटियाँ बनाकर रखने की अभी जैसी जरूरत ही नहीं होती थी। फिर टीवी आया, टीवी पर "हमलोग" जैसे धारावाहिक आने लगे। अस्सी के दशक में जब ये शुरू हुए तो स्थितियां बदली।
धारावाहिक के आने का समय करीब-करीब वही था जो शहरों के आम मध्यमवर्गीय परिवार के रात के खाने का समय था। परिवार और विशेषकर महिलाओं को लक्ष्य करके बनाये जाने वाले "सोप ऑपेरा" को देखने का अब समय कैसे मिले? वो खाना बनायेंगी या बैठकर टीवी देखेंगी? केसेरोल समस्या को सुलझाने आया।
अब रोटियाँ सीधे तवे से थाली में नहीं आतीं, पहले केसेरोल में जातीं और फिर सब टीवी देखते-देखते खाना खा सकते थे। इससे दूसरी समस्या का निर्माण हो गया। केसेरोल में थोड़ी देर रखते ही चोकर वाले आटे की बनी रोटियाँ काली पड़ने लगती थीं। निदान? आटा मिल से पिसवाने के बदले पैकेट वाला आया।
आपको याद ना हो तो हम याद दिला देते हैं; ऐसी मूर्खताएं आपने पहले भी की हैं। थोड़ा सा वो समय याद कीजिये जब कुछ दशक पहले आप टीवी पर रामायण का प्रसारण देखा करते थे मी लॉड! उस जमाने में रामायण, फिल्म, चित्रहार आदि के बीच एक प्रचार आता था।
पहले एक कसरत करते युवा पहलवान को दिखाते, फिर वो एक अखरोट तोड़ने का प्रयास करता और आह करता हुआ गाल दबा लेता था। इसी वक्त एक उस्ताद सा लगने वाला पहलवान आकर कहता, क्यों पहलवान? शरीर के लिए इतना कुछ और दांतों के लिए कोयला? इस प्रचार से भारत में कोलगेट टूथपेस्ट फैलना शुरू हुआ था।
आजकल प्रचार में दिखाते हैं कि टूथपेस्ट में नीम, नमक-तेल, चारकोल यानि कोयला इत्यादि है। यानि पहले जिन चीजों को हानिकारक बताकर आपसे महंगी चीजें "एलीट" होने के नाम पर खरीदवाई थीं, उनका नुकसान होता है, पुराना वाला ही बेहतर है ये समझ आने लगा।
भारत में जैसे नगर की रक्षक देवियाँ होती हैं, कुछ वैसा ही विदशों में भी होता है। हनुमान जी को जैसे लंकिनी को घूँसा मारकर लंका में घुसना पड़ा था, उधर भी वैसे ही माना जाता है कि नगर के रक्षक देवता की आज्ञा के बिना अन्दर नहीं घुसा जा सकता।
एक किस्से में नगर के रक्षक देवता देखते हैं कि कुछ लोग नगर के अन्दर प्रवेश का प्रयास कर रहे हैं। उसने सबको रोका और पूछा कि वो कौन हैं जो देर रात गए चुपके से घुस रहे हैं? पहले ने बताया कि वो प्लेग है। नगर रक्षक देवता बोले तुम तो पूरा नगर ही साफ कर दोगे! तुम्हें अन्दर कैसे जाने दूं?
प्लेग बोला, मैं तो मृत्यु देवता के आदेश से केवल 300 लोग लेने आया हूँ। इससे 1 भी अधिक ले जाने लगूं तो रोक लीजियेगा। नगर देवता को बात सही लगी, उन्होंने प्लेग को जाने दिया। दूसरे ने कहा कि वो हैजा है। नगर देवता फिर बोले कि तुम तो पूरा नगर ही साफ कर दोगे! तुम्हें अन्दर कैसे जाने दूं?