(इस कहानी में सच का मुझे कभी पता नहीं चला। अनुभव और ज्ञान की कमी के कारण मैं भ्रमित हुआ-ऐसा भी हो सकता है। पर अनुरोध है कि पूरी कहानी जरूर पढें।)
पहली किश्त -
के लिए सहरसा जिला भेजा गया। पीडब्ल्यूडी के गेस्टहाऊस के एक कमरे में रहने का जुगाड़ हो गया था। खाना खुद बना लेता था। एक दिन एक पत्रकार मेरे पास आये। उन्होंने बातचीत के क्रम में चुनौती भरे लहजे में कहा कि
मैंने देखा था कि एसडीपीओ लाल साहब नित्य शाम को केमिकल व्यवसायी खेमका के बंगले पर जाते थे और दस बजे रात तक वहीं बैठे रहते थे।
बस स्टैंड पहुँचते ही मैंने कहा-सर, आज पटना वाली बस को चेक कीजिए न। उन्होंने कहा-चलिए। चेक कर लेते हैँ।
मैंने बस कंडक्टर से बोरे के मालिक के बारे में पूछा। उसने हँसते हुए कहा-अभी तो यहीं था। लगता है सिनेमा देखने चला गया है।
मुझे लगने लगा कि पत्रकार की चुनौती सही थी।
नया-नया डीएसपी की ट्रेनिंग लेकर आया था। मुझे वहाँ बैठना अपमानजनक लगा। मैंने लाल साहब से अनुरोध किया कि वे मुझे गेस्ट हाऊस तक छुडवा दें।
(क्रमशः)
गेस्ट हाऊस में मेरे साथ एक रिश्तेदार का लड़का रहता था। खाने वगैरह में मदद के लिए बुला लिया था। वैसे भी, रात में गेस्ट हाऊस में सन्नाटा हो जाता था।
खाना खाने के बाद बिस्तर पर लेट गया। सोच रहा था -क्या करूँ। प्रोबेशनर था स्वतंत्र रूप से कुछ कर नहीं सकता था। यह तो क्लियर था कि खेमका के घर से नारकोटिक्स का व्यापार चल रहा था जिसमें पुलिस की भी मिलीभगत थी। दो डॉक्टर भी संलिप्त थे।
बाद में सूत्रों ने बताया कि स्मगलिंग में तीन अलग-अलग ग्रुप संलग्न थे। एक के संरक्षक एक माननीय मंत्री थे।
रात के करीब बारह बजे दरवाजे पर कुछ खटका हुआ। मुझे लगा कोई है।
बहुत सोचा । अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मुझे डराने का प्रयास किया जा रहा है या फिर मेरी जासूसी की जा रही है । कौन था मेरा सूत्र ? मैं किससे निर्देशित हो रहा था ?
दूसरे दिन मैं अपने कमरे से नहीं निकला। सोच रहा था कि एसपी को बताऊँ या नहीं। कहीं एसपी भी तो नहीं मिले हुए हैँ? तीसरे दिन मैंने एसपी से मिलने का निश्चय किया । (क्रमशः )
एक कागज के टुकड़े पर लिखा -
आखिर एसपी के आवास पर पहुँचा। साहब गोपनीय कार्यालय में बैठे थे। मैंने आने की खबर भेज दी। बुला लिया गया।
एसपी ने हालचाल पूछा। मैंने कहा -'सब ठीक है। एक सूचना देनी थी। '
मैं चौंक गया। दरवाजा मेरी ही पीठ की ओर था।
कुर्सी पर बैठते ही उन्होंने पूछा-'कौन पुलिस ऑफीसर है ****?'
मैंने जवाब दिया-'यह मुझे नहीं मालूम।' फिर उन्होंने कहा-ठीक है। तुम चुप रहो। मैं मैनेज करता हूँ।'
मैं सौर बाजार की तरफ न जाकर कुख्यात तवायफों के मुहल्ले का चक्कर लगाकर चाय की दुकान पर बैठ गया। वहाँ से खेमका के गेट को देखा जा सकता था। मुझे कौन पहचानता था?
और फिर?
मैं टाउन थाने में बैठा था। एक व्यक्ति ने कहा-'खेमका सहरसा छोड़ रहा है।' मैं चुपचाप सुनता रहा।
एक दिन बाद एसपी ने टेलिफोन कर कहा-
क्राइम रीडर से मिला। उसने कहा-'मुझे तो आदेश की कोई कॉपी नहीं मिली है।' उसने पूरी खोज की कि हो सकता है, कहीं मिस हो गया हो। आदेश की कॉपी नहीं मिली। एसपी को टेलिफोन किया।
अगले दिन फिर टाउन थाने में कुछ सब-इंस्पेक्टर के साथ टेबल टॉक कर रहा था।
तभी आर एन सिंह नाम के एक सब -इंस्पेक्टर आये। वे एम्बेसेडर होटल में रहते थे। सहरसा का यह होटल स्मगलरों का अड्डा माना जाता था।
आर एन सिंह का यह व्यवहार मुझे काफी बुरा लगा। शायद यह व्यक्ति मेरा मजाक उड़ा रहा है-मुझे लगा। लेकिन सच यह नहीं था।
मैंने आवाज ऊँची कर आर एन सिंह को पुकारा।
बरसात पूरे उफान पर थी। कोशी का पाट कम से कम 15 किलोमीटर में फैला था।
गोपनीय रीडर से मुलाकात हुई। उसने कहा-' सर, आपकी जगह मैं होता तो जाने से इनकार कर देता।
लेकिन रात में एक विचित्र सपना देखा। एक माँ और बेटी थी। परिचित थी दोनों। डायन कहते थे गाँववाले। बोलते-बोलते बेटी ने अचानक सिर धुनना शुरू किया और उसके सिर से तीन तीव्र धाराएँ निकलने लगीं। मेरी नींद टूट गयी। यह कैसा सपना था! मैं उद्विग्न हो उठा था।
तभी मुझे आर एन सिंह के मंगल-प्रश्न और उसके बडी लैंग्वेज का ध्यान आया। आर एन सिंह ने मंगल ग्रह के बारे में पूछा था। क्या वह कहना चाहता था कि मंगलवार को ग्रह है यानि खतरा है ?
दूसरे दिन मैं साढ़े चार बजे ही महिषी घाट पहुँच गया। नाव लगी हुई ही थी।
सुबह साढ़े छह बजे ही एसपी का बुलावा आ गया। मैं अविलम्ब गोपनीय पहुँचा। एसपी साहब के हाथ में अखबार थी। प्रथम पृष्ठ पर ही PSLV की उड़ान के फ्लॉप होने की खबर छपी थी। वे गुस्से में थे,
एसपी-'पहले ही बता देते।'
मैं-'मुझे क्या पता था कि 15 किलोमीटर चौड़े कोशी के प्रवाह को पतवार वाली नाव से पार करना है?'
एसपी-प्रोबेशनर हो।
मैं-मेरा संरक्षण आपका दायित्व है।
फिर वे चुप हो गए ।
टाउन थाने में खेमका के एक गुर्गे से मुलाकात हुई ।
गुर्गा-सर, खेमका बुरे आदमी नहीं हैँ।
मैं-'अच्छी तरह जान रहा हूँ उन्हें,
तभी थाने में सूचना आयी कि एक व्यक्ति होटल के कमरे में मृत पड़ा है। मैं भी थानेदार के साथ होटल पहुँचा। दरवाजे को खोला गया। अंदर बिस्तर पर एक नंगी लाश पड़ी थी। होटल के मैनेजर ने बताया कि शहर का ही एक मारवाड़ी लड़का था।
'इसतरह के केसेज में पुलिस को
कमरे में एक मग रखा था जिसमें कुछ पाउडर घोला हुआ था। कुछ पाउडर पानी के नीचे बैठा हुआ था। एक तौलिया और एक जांघिया बाल्टी में डालकर बाथरूम में रखा गया था ।
इसतरह स्पष्ट था कि बंद दरवाजे को आधार बनाकर हत्या के ऐंगिल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।दरवाजे को बाहर से भी खोला और बंद किया जा सकता था। मैंने थानेदार को समझाने का प्रयास किया।
पत्रकार गेस्ट हाऊस पहुँचा। उसने कहा-गैंगवार है, सर। आपके कारण ही मारा गया। मुझे विश्वास नहीं हुआ था, पर मैं बहुत कुछ सोचने को मजबूर हो गया था।
तो क्या सच में मेरी हत्या की योजना थी? लेकिन क्यों? क्या भेद खुलने का डर था? लेकिन जब मैं जिंदा हूँ, तब हत्या की साजिश पर कैसे विश्वास करूँ?
दूसरे या तीसरे दिन मुझे थाना-ट्रेनिंग के लिए नौहट्टा थाने में योगदान का आदेश दे दिया गया।
कोशी का दियारा, अपराध का केंद्र है।
क्षेत्र में जातीय वैमनस्य भी पुरजोर दिखायी पड़े। भूमिहार नगण्य हैँ। राजपूत और मैथिल ब्राह्मणों की आबादी है। पिछड़ों में यादव और मल्लाह अधिसंख्यक हैँ।
कोशी नदी को स्थानीय लोग गंगा ही कहते हैँ। पिछड़ों के बीच मंडल टायटिल लोकप्रिय है। परम्परा के अनुसार मंडल समुदाय शाकाहारी माना जाता है।
चोरी के स्थल का निरीक्षण किया।
मैं इसी उधेड़बुन में था कि एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया
मुखिया जी भी साथ थे।
सोनू सचमुच दस मिनट में मेरे सामने था। मैंने सख्ती से पूछना शुरू किया।
मैं उसे लेकर मुखिया जी के दरवाजे पर पहुँचा। मुखिया जी के लड़के से भी पूछा उसने भी कल के झगड़े को स्वीकार किया ।
मुखिया जी के भाई ने कहा कि हाँ, आये तो थे पर उस समय भी गर्मी दिखा रहे थे।
स्पष्ट था कि मुखिया झूठ बोल रहा था।
(क्रमशः)
सहरसा में बहुत सारी घटनाएँ हुईं। उन सबों का उल्लेख करने की जरुरत मैं नहीं समझता हूँ। लेकिन एक घटना ऐसी हुई जिसका उल्लेख करना जरूरी है क्योंकि इसने शायद हमारे पुलिस-जीवन को काफी प्रभावित किया था। बहुत दिन हो गए।
घटना यह थी कि सघन जवाहर रोजगार योजना के तहत एक ग्रामीण सड़क बन रही थी जिसमें FIR के अनुसार एक ही गाँव के दो गुटों के बीच गोलीबारी हुई थी और बम भी छोड़े गए थे। वादी मुखिया खुद या शायद उसी का कोई परिजन था।
अंत में एक और बस्ती में पहुँचा। वहाँ एक व्यक्ति पर नजर पड़ी जो कंठीमाला पहने हुए था। मैने गाड़ी रुकवायी। उसके पास पहुँचकर रुका और उसके गले में लटकी माला को पकड़ा और
उसने बड़े ही शांत स्वर में कहा-हुजूर , मुझे किसी का डर नहीं है। मैं झूठ नहीं बोलूँगा। मुखिया जी जानबूझकर गाँववालों को फँसा रहे हैं। गोली मुखिया जी का भतीजा सुनील चलाया है। रोड बन रहा था जिसका विरोध हो रहा था । बस,
मैने पूछा-बाबा, सिर्फ गोली ही नहीं चली थी। बम भी फेंका गया था। कंठी वाले बाबा ने बेलाग स्वर में कहा-यह सब झूठ है। बम-तम कुछ नहीं चला था।
बम-तम कुछ नहीं चला था-यह सुनकर मैं चौंक गया। थानेदार ने कहा -'सर, यह झूठ बोल रहा है। बम तो चले थे। एक नहीं कई।'…
लेकिन घटनास्थल को देखते ही माजरा साफ हो गया। वहाँ करीब 1500 वर्गफ़ुट में गोबर और मिट्टी की काफी मोटी और सूखी परत बैठी हुई थी। कहीं भी जलने का कोई निशान नहीं था।
स्पष्ट था कि या तो बम-विस्फोट की कहानी झूठी थी या फिर बम-काण्ड अन्यत्र हुआ था, लेकिन मैंने किसी को यह नहीं बताया कि मैं क्या सोच रहा हूँ।
इसतरह मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि कंठी वाले बाबा सही कह रहे हैं।बम वाली बात झूठी है। आरोपित निर्दोष हैं। असली दोषी मुखिया, उसका भतीजा सुनील और उसके कुछ गुर्गे हैं।