एक प्रोबेशनर डीएसपी और बोरे में भरी टिकुली बिंदी) की कहानी ।

(इस कहानी में सच का मुझे कभी पता नहीं चला। अनुभव और ज्ञान की कमी के कारण मैं भ्रमित हुआ-ऐसा भी हो सकता है। पर अनुरोध है कि पूरी कहानी जरूर पढें।)

पहली किश्त -
हजारीबाग में ट्रेनिंग के बाद प्रोबेशन
के लिए सहरसा जिला भेजा गया। पीडब्ल्यूडी के गेस्टहाऊस के एक कमरे में रहने का जुगाड़ हो गया था। खाना खुद बना लेता था। एक दिन एक पत्रकार मेरे पास आये। उन्होंने बातचीत के क्रम में चुनौती भरे लहजे में कहा कि
है हिम्मत तो पटना जाने वाली बस को चेक करके देखें। मुझे उनकी बात बड़ी अटपटी लगी। मैंने कहा-ठीक है। मैं आज ही चेक कर लेता हूँ।
मैंने देखा था कि एसडीपीओ लाल साहब नित्य शाम को केमिकल व्यवसायी खेमका के बंगले पर जाते थे और दस बजे रात तक वहीं बैठे रहते थे।
बीच-बीच में पटना वाली बस के सकुशल गुजर जाने का समाचार रास्ते में पड़ने वाले थानों से पूछते रहते थे। उनकी निष्ठा देखकर मैं खुश होता रहता था। उनकी ही तरह दो डॉक्टर भी बैठे रहते थे। दोनों बेगुसराय के थे। खेमका के घर तक जाने का रास्ता बस स्टैंड होकर ही था।
पत्रकार की चुनौती को ध्यान में रखते हुए मैं शाम को एसडीपीओ साहब के बंगले पर पहुँच गया। उनसे कहा-सर, आज मैं भी आपके साथ चलूँगा । उन्होंने कहा -'ठीक है,चलिए।'
बस स्टैंड पहुँचते ही मैंने कहा-सर, आज पटना वाली बस को चेक कीजिए न। उन्होंने कहा-चलिए। चेक कर लेते हैँ।
स्टैंड में पटना जाने वाली मात्र एक गाड़ी बची हुई थी। बाकी गाड़ियाँ जा चुकी थीं। मुझे निराशा होने लगी। फिर भी स्टैंड में लगी हुई गाड़ी की डिक्की खुलवा कर देखने का निर्णय लिया। डिक्की खोली गयी। एक जूट का बँधा हुआ बोरा रखा हुआ था। उसे खुलवाया, निराश हुआ देखकर कि
उसमें औरतों द्वारा ललाट पर लगायी जाने वाली टिकुलियां (बिंदियां)रखी थीं। कुछ आम के अचार भरे डिब्बे थे। मेरे दिमाग में पत्रकार की चुनौती कौंध रही थी।
मैंने बस कंडक्टर से बोरे के मालिक के बारे में पूछा। उसने हँसते हुए कहा-अभी तो यहीं था। लगता है सिनेमा देखने चला गया है।
मुझे चिढ़ हो रही थी। लग रहा था कि यह आदमी बात बना रहा है। स्वाभाविक था पटना की बस पर सामान रखकर पैसेंजर सिनेमा देखने कैसे जा सकता है? सिनेमा हौल बगल में था। कहा-उसे खोजकर लाओ। कुछ देर बाद कंडक्टर आकर बोला-सर, सिनेमा हॉल में नहीं है। इसी के बाद बोरा खुलवाया गया था।
मैंने एक टिकुली निकालकर उसके पृष्ठ भाग को छुआ फिर खुरचा। टिकुली के पीछे से चावल जैसी मोटी रबरनुमा चीज निकली। मैंने उसे अचानक लाल साहब के मुँह की तरफ बढ़ा दिया। वे 'अरे , यह क्या कर रहे हैँ ?' कहते हुए तेजी से चार-पाँच कदम पीछे खिसक गए। मैं चौंक गया ,
क्योंकि उनका इसतरह हड़बड़ाकर पीछे हटना अस्वाभाविक था। मैंने कहा-'सर, कुछ गड़बड़ है। इसे जब्त कर लिया जाए।' वे गुस्साने लगे। पर मेरी जिद के बाद स्टैंड में प्रतिनियुक्त एक हवलदार को बुलाकर उसे जब्ती की कार्रवाई का आदेश देकर मुझे साथ लेकर खेमका के मकान पर चले आये।
खेमका के मकान पर पहुँचा। अंदर खेमका थे। तीन चार मुश्टण्ड से दिखने वाले लोग भी थे। इसके पहले कभी ये लोग नहीं दिखे थे। मुझे अचानक लगा कि माहौल कुछ तनावपूर्ण है। लाल साहब ने टिकुली के पीछे से निकला चावल दिखाते हुए खेमका से कहा- डीएसपी साहब को शक है कि यह नारकोटिक्स है ।
खेमका हँसने लगा। उसने हँसते हुए जवाब दिया-यह तो चावल है। डीएसपी साहब कहें तो मैं उन्हें असली ब्राउन सुगर का पैकेट दिखा दूँ। इसी बीच मैंने देखा कि लाल साहब खेमका को मटकी मार रहे हैँ, मानो खेमका को इशारा कर रहे हों कि यह आदमी विश्वसनीय नहीं है, इसके सामने खुलना खतरनाक होगा।
अचानक मुझे याद आया कि एक बार खेमका के बँगले में रेक पर टिकुली का बंडल देखकर मैंने पूछा था-खेमका जी टिकुली का बिजिनेस करते हैँ क्या? लाल साहब ने कहा था -नहीं, ये तो केमिकल के व्यवसाई हैँ।
मुझे लगने लगा कि पत्रकार की चुनौती सही थी।
लाल साहब दस बजे तक बस की खैरियत नहीं, उसपर लदे माल की खैरियत पूछते रहते थे। बस पर टिकुली के माध्यम से नारकोटिक्स भेजे जा रहे थे।
नया-नया डीएसपी की ट्रेनिंग लेकर आया था। मुझे वहाँ बैठना अपमानजनक लगा। मैंने लाल साहब से अनुरोध किया कि वे मुझे गेस्ट हाऊस तक छुडवा दें।
खेमका मुझे गेट तक छोड़ने आये । उन्होंने रास्ते में कहा -'डीएसपी साहब , मैंने रात एक सपना देखा है जिसमें आप घायल अवस्था में बदहाल पड़े थे। शायद मृत्यु हो गयी थी।' खेमका का तात्पर्य यह था कि मेरी हत्या हो गयी थी। मैंने कहा -अरे, सपना तो सपना होता है।
(क्रमशः)
एसडीपीओ साहब की जीप से गेस्ट हाऊस की तरफ चला। तभी पीछे आती एक मोटर सायकिल पर नजर पड़ी। मोटर सायकिल लगातार पीछे आ रही थी। मैंने जीप को जानबूझकर एक गली के रास्ते मुड़वा दिया। आश्चर्य हुआ, मोटर सायकिल भी गली में पहुँच गयी। मैंने एक बार और रास्ता बदला।
मोटर सायकिल फिर उसी रास्ते में आ गयी। मुझे विश्वास हो गया कि मोटर सायकिल मेरा पीछा कर रही है। फिर मैं सीधे गेस्ट हाऊस चला आया।
गेस्ट हाऊस में मेरे साथ एक रिश्तेदार का लड़का रहता था। खाने वगैरह में मदद के लिए बुला लिया था। वैसे भी, रात में गेस्ट हाऊस में सन्नाटा हो जाता था।
एक से दो भला था। तीसरा साथी मेरा पिस्टल था।
खाना खाने के बाद बिस्तर पर लेट गया। सोच रहा था -क्या करूँ। प्रोबेशनर था स्वतंत्र रूप से कुछ कर नहीं सकता था। यह तो क्लियर था कि खेमका के घर से नारकोटिक्स का व्यापार चल रहा था जिसमें पुलिस की भी मिलीभगत थी। दो डॉक्टर भी संलिप्त थे।
खेमका के भाई की हत्या हो गयी थी। इसके बाद उसके घर पर 1-4 का गार्ड प्रतिनियुक्त कर दिया गया था। हवा में यह भी प्रचार था कि खेमका ने ही अपने भाई की हत्या करवाई थी।
बाद में सूत्रों ने बताया कि स्मगलिंग में तीन अलग-अलग ग्रुप संलग्न थे। एक के संरक्षक एक माननीय मंत्री थे।
दूसरा ग्रुप आनंद मोहन के संरक्षण में चलता है। तीसरा ग्रुप आनंद मोहन का धुर विरोधी माना जाने वाला एक व्यक्ति चलाता था। लेकिन इस सम्बन्ध में मुझे कोई आधिकारिक जानकरी नहीं थी। बाद में भी नहीं हो पायी।
रात के करीब बारह बजे दरवाजे पर कुछ खटका हुआ। मुझे लगा कोई है।
मैंने रिश्तेदार के लड़के को जगाया। पिस्टल लिए दरवाजा खोला। कुछ भागते हुए तेज पदचाप सुनायी पड़े। सीढ़ी से तेजी से नीचे उतरा, क्योंकि मेरा कमरा दूसरी मंजिल पर था। अचानक बाउंड्री के बाहर जलती लाईट में तीन आदमी बारी-बारी से 2-2 मिनट के अन्तराल पर सड़क पर तेजी से निकलते दिखायी पड़े।
विश्वास हो गया कि दरवाजे पर यही लोग अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके थे । लेकिन क्यों ?
बहुत सोचा । अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मुझे डराने का प्रयास किया जा रहा है या फिर मेरी जासूसी की जा रही है । कौन था मेरा सूत्र ? मैं किससे निर्देशित हो रहा था ?
हो सकता है रात में मैं उसी के पास गया होऊँ। लेकिन मैं तो अपने कमरे में था।
दूसरे दिन मैं अपने कमरे से नहीं निकला। सोच रहा था कि एसपी को बताऊँ या नहीं। कहीं एसपी भी तो नहीं मिले हुए हैँ? तीसरे दिन मैंने एसपी से मिलने का निश्चय किया । (क्रमशः )
तीसरे दिन एसपी साहब ने खुद एक सिपाही भेजकर बुलाया। अपराह्न का समय था। काफी सोचने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि नारकोटिक्स के इस घिनौने व्यापार के सम्बन्ध में एसपी को जानकारी देकर मुझे अपने कर्त्तव्य का निर्वहन कर देना चाहिए।
एक कागज के टुकड़े पर लिखा -
Khemka-Narcotics-Two doctors-one senior police officer. सोचा- एसपी को कुछ कहने की बजाय यही थमा दूँगा।
आखिर एसपी के आवास पर पहुँचा। साहब गोपनीय कार्यालय में बैठे थे। मैंने आने की खबर भेज दी। बुला लिया गया।
एसपी ने हालचाल पूछा। मैंने कहा -'सब ठीक है। एक सूचना देनी थी। '
उन्होंने पूछा-क्या है? बताओ। मैंने पुर्जा उन्हें दे दिया। पढ़ते ही लगा कि उन्हें करेंट छू गया। तुरत कुर्सी से उठे। खुले दरवाजे की तरफ बढ़े। दरवाजा बंद कर फिर अपनी कुर्सी पर आ बैठे।
मैं चौंक गया। दरवाजा मेरी ही पीठ की ओर था।
उन्हें दरवाजा बंद करने के लिए स्वयं उठने की बजाय मुझे बंद करने के लिए कहना चाहिए था। खैर, मैं भी खड़ा होकर बैठ गया।
कुर्सी पर बैठते ही उन्होंने पूछा-'कौन पुलिस ऑफीसर है ****?'
मैंने जवाब दिया-'यह मुझे नहीं मालूम।' फिर उन्होंने कहा-ठीक है। तुम चुप रहो। मैं मैनेज करता हूँ।'
मैंने कहा-' मैं क्या कर सकता हूँ सर? इसीलिए तो आपको जानकारी दी है।' फिर उन्होंने कहा-'जिप्सी ले लो। सौर बाजार थाने की तरफ घूम आओ'। घंटी बजायी। ऑर्डर्ली को बुलाकर ड्राइवर को तैयार करने का आदेश दिया। मैं सैल्यूट कर बाहर निकल आया।
सोचने लगा-मुझे सौर बाजार की तरफ क्यों भेज रहे हैँ? टाउन से करीब पाँच-सात किलोमीटर दूर, उस तरफ जिधर जाने के लिए खेमका के मकान से गुजरने की जरुरत ही नहीं थी। मुझे शक हुआ। क्या एसपी भी संलग्न हैँ? मुझे बाहर भेजकर खेमका से मिलने तो नहीं जा रहे हैँ?
एसपी संलग्न होंगे तो टेलिफोन पर बातचीत करने की बजाय खेमका के मकान पर जाएँगे। और वही हुआ।
मैं सौर बाजार की तरफ न जाकर कुख्यात तवायफों के मुहल्ले का चक्कर लगाकर चाय की दुकान पर बैठ गया। वहाँ से खेमका के गेट को देखा जा सकता था। मुझे कौन पहचानता था?
और फिर?
वही हुआ जिसकी मुझे आशंका थी। एसपी साहब खेमका के मकान से बाहर निकल रहे थे। खेमका हँसते हुए उनकी विदाई कर रहा था।
मैं टाउन थाने में बैठा था। एक व्यक्ति ने कहा-'खेमका सहरसा छोड़ रहा है।' मैं चुपचाप सुनता रहा।
एक दिन बाद एसपी ने टेलिफोन कर कहा-
*****, एक थाना-प्रभारी के विरुद्ध जाँच का आदेश दिया है। क्राइम रीडर से जाकर ले लो।
क्राइम रीडर से मिला। उसने कहा-'मुझे तो आदेश की कोई कॉपी नहीं मिली है।' उसने पूरी खोज की कि हो सकता है, कहीं मिस हो गया हो। आदेश की कॉपी नहीं मिली। एसपी को टेलिफोन किया।
उन्होंने कहा-हो सकता है गोपनीय रीडर को मिला हो। मैंने गोपनीय रीडर से तहकीकात की। उसने भी खूब खोजा पर नहीं मिला कुछ भी। एसपी ने क्राइम रीडर से दुबारा पूछने का आदेश दिया। इसतरह करीब चार बार गोपनीय और क्राइम के बीच दौड़ा। जाँच नहीं मिलनी थी, नहीं मिली।
एसपी ने कहा-छोड़ दो,******* । खोजते हैँ। आश्चर्य था कि गोपनीय या क्राइम में से किसी को कोई डाँट नहीं पड़ी। एक घंटे पूर्व के अपने ही आदेश को एसपी खोजने की बात कर रहे थे। ऐसा होता है क्या ?
अगले दिन फिर टाउन थाने में कुछ सब-इंस्पेक्टर के साथ टेबल टॉक कर रहा था।
एक इंस्पेक्टर भी थे। यों ही सामान्य बातें हो रही थीं।' प्रोबेशनर को सिखाना सबका दायित्व है'-इस भाव के साथ सबलोग अपने-अपने अनुभव सुना रहे थे।
तभी आर एन सिंह नाम के एक सब -इंस्पेक्टर आये। वे एम्बेसेडर होटल में रहते थे। सहरसा का यह होटल स्मगलरों का अड्डा माना जाता था।
आर एन सिंह टेबल के पास आकर खड़े हो गए। उम्रदराज थे। गोरे-चिट्टे, सुंदर व्यक्तित्व वाले राजपूत थे। अचानक पूछ बैठे-'सर, मंगल ग्रह के बारे में जानते हैँ?' मैं मंगल ग्रह के बारे में बताने लगा। वे चुपचाप सुनते रहे। लेकिन शायद उनकी जिज्ञासा शांत नहीं हुई थी या फिर
जो वे सुनना या सुनाना चाहते थे, उससे मैं अनजान था। गम्भीर होकर बोले-'बस, इतना ही' और चुपचाप चल दिए।
आर एन सिंह का यह व्यवहार मुझे काफी बुरा लगा। शायद यह व्यक्ति मेरा मजाक उड़ा रहा है-मुझे लगा। लेकिन सच यह नहीं था।
मैंने आवाज ऊँची कर आर एन सिंह को पुकारा।
लेकिन वह चुपचाप बढ़ता चला गया, पीछे मुड़कर एकबार देखा तक नहीं। कैसे मान लेता कि उसकी यह गतिविधि स्वाभाविक थी? कहीं न कहीं कोई उद्वेलन था इस व्यक्ति के मस्तिष्क में। वह कुछ कहना चाह रहा था पर शायद खुलकर बोल नहीं पा रहा था। सिपाही से प्रोन्नत होकर दारोगा बना था। मैट्रिकुलेट था।
लेकिन उसका बडी लैंग्वेज मुझे झकझोर रहा था। शायद उसका मंगल किसी अमंगल का पैगाम सुना रहा था। लेकिन यहाँ तक मेरी सोच नहीं पहुँच पायी थी। सोच भी कैसे पाता? (क्रमशः )
आखिरकार आ गया आखिरत का वह दिन करीब दस दिनों बाद। सोमवार की शाम थी वह। एक सिपाही डाक लेकर आया। मुझे सलखुआ थाने के प्रभारी के विरुद्ध जाँच का आदेश मिला था। मुझे पूरी तरह याद नहीं है, लेकिन शायद एक इंजीनियर और दो जेई की हत्या हो गयी थी जिसमें
प्रभारी दरोगा की संलग्नता का आरोप था। मुझे मंगलवार की सुबह करीब पाँच बजे महिषी पहुँचना था। एक पतवार वाली नाव और एक हवलदार को लेकर उमड़ती हुई कोशी के पार स्थित थाना पहुँचकर जाँच पूरी करनी थी।
बरसात पूरे उफान पर थी। कोशी का पाट कम से कम 15 किलोमीटर में फैला था।
रोज बाँध के टूटने की सम्भावना व्यक्त की जारही थी। मैं हल्का-फुल्का तैर लेता था, पर उमड़ती धाराओं और गुर्राती हुई कोशी के सैलाब के बीच अपनी कमजोर स्थिति को महसूस कर असहज हो रहा था।
गोपनीय रीडर से मुलाकात हुई। उसने कहा-' सर, आपकी जगह मैं होता तो जाने से इनकार कर देता।
पुरानी घटना है, तत्काल जाँच की क्या जरुरत है? एसपी को यदि दरोगा का आचरण संदिग्ध दिखायी पड़ रहा है, तो तत्काल उसका ट्रांसफर कर दें। ट्रांसफर क्यों नहीं कर रहे हैँ? 'लेकिन गोपनीय प्रवाचक की बात को मैं हँसी में टाल गया था। मैंने पूछा -'क्यों नहीं जाते?'
उसने कहा-'सर, कैसी बात करते हैँ? कोशी अभी उमड़ी हुई है। आपको शायद पता नहीं है कि उसका पाट अभी कम से कम 15 किलोमीटर का होगा। काफी तीव्र धारा है कोशी की। सलखुआ थाना नदी के दूसरे छोर पर है। पूरी नदी पार करनी होगी। नाव से पार करना काफी खतरनाक है।' गेस्ट हाऊस वापस आ गया।
रात का खाना खाया। फिर सो गया।
लेकिन रात में एक विचित्र सपना देखा। एक माँ और बेटी थी। परिचित थी दोनों। डायन कहते थे गाँववाले। बोलते-बोलते बेटी ने अचानक सिर धुनना शुरू किया और उसके सिर से तीन तीव्र धाराएँ निकलने लगीं। मेरी नींद टूट गयी। यह कैसा सपना था! मैं उद्विग्न हो उठा था।
फिर नींद नहीं आ रही थी। मैं आंध्रविश्वासी नहीं हूँ। लेकिन इस स्वप्न ने मुझे हिला दिया था-यह सच है।
तभी मुझे आर एन सिंह के मंगल-प्रश्न और उसके बडी लैंग्वेज का ध्यान आया। आर एन सिंह ने मंगल ग्रह के बारे में पूछा था। क्या वह कहना चाहता था कि मंगलवार को ग्रह है यानि खतरा है ?
मंगलवार को एसपी द्वारा जाँच के लिए निर्धारित तिथि, आर एन सिंह के मंगल-प्रश्न, गोपनीय प्रवाचक की वर्जना और रात के स्वप्न से मुझे लगने लगा कि कुछ बात तो है। फिर भी मैं अडिग था-जाना तो है ही।
दूसरे दिन मैं साढ़े चार बजे ही महिषी घाट पहुँच गया। नाव लगी हुई ही थी।
एक हवलदार मौजूद था। नाविक के साथ दो आदमी और भी मौजूद थे। मैंने हवलदार से पूछा-कौन हैँ ये लोग? हवलदार ने कहा -'मुझे नहीं मालूम। ये लोग नहीं जाएँगे।' फिर हवलदार मुझे किनारे ले गया। उसने कहा-'हुजूर, आप नए हैँ, विभाग का अनुभव नहीं है आपको। जिन दो युवकों को आप नाव पर देख रहे हैँ,
वे स्मगलिंग का धंधा करते हैँ। वे आपसे एकान्त में कुछ बात करना चाहते हैँ।' उन युवकों ने जो बताया उसे सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। प्रमाण के लिए टेलिफोन बूथ पर जाकर एक व्यक्ति से उसने बात की। स्पीकर ऑन था। मैंने पूछा -तुम सारी बात डी आई जी या किसी अन्य सीनियर ऑफीसर के समक्ष बोलोगे ?
उसने कहा-नहीं। मैंने जाने का निर्णय टाल दिया। मैं अभिमन्यु बनना नहीं चाहता था।
सुबह साढ़े छह बजे ही एसपी का बुलावा आ गया। मैं अविलम्ब गोपनीय पहुँचा। एसपी साहब के हाथ में अखबार थी। प्रथम पृष्ठ पर ही PSLV की उड़ान के फ्लॉप होने की खबर छपी थी। वे गुस्से में थे,
मानो उनकी भी उड़ान फ्लॉप हो गयी हो। मैंने कहा-नाव पर मुझे चक्कर आने लगता है।
एसपी-'पहले ही बता देते।'
मैं-'मुझे क्या पता था कि 15 किलोमीटर चौड़े कोशी के प्रवाह को पतवार वाली नाव से पार करना है?'
एसपी-प्रोबेशनर हो।
मैं-मेरा संरक्षण आपका दायित्व है।
फिर वे चुप हो गए ।
मैं जय हिंद कहकर लौट आया। करीब 8 बजे आर एन सिंह 1 किलो मिठाई लेकर पहुँचे। आते ही पूछा-आप स्वस्थ हैँ न सर। मैंने हँसते हुए कहा-आप जैसे इंसानों के रहते मेरा क्या बिगड़ सकता है आर एन सिंह? आर एन सिंह की आँखों में आँसू थे।
टाउन थाने में खेमका के एक गुर्गे से मुलाकात हुई ।
वह मेरी मनःस्थिति टटोलना चाह रहा था। थानेदार से उसकी अच्छी पटती थी। टेबल पर प्लेट में सेब रखे थे। वह सेब को चाकू से काटते हुए मुझे देख रहा था। मैंने भी सेब काटे। टुकड़ों को प्रेम से चबा-चबाकर खाने लगा।
गुर्गा-सर, खेमका बुरे आदमी नहीं हैँ।
मैं-'अच्छी तरह जान रहा हूँ उन्हें,
पर अभी खेमका कहाँ से आ गए?'
तभी थाने में सूचना आयी कि एक व्यक्ति होटल के कमरे में मृत पड़ा है। मैं भी थानेदार के साथ होटल पहुँचा। दरवाजे को खोला गया। अंदर बिस्तर पर एक नंगी लाश पड़ी थी। होटल के मैनेजर ने बताया कि शहर का ही एक मारवाड़ी लड़का था।
'इसतरह के केसेज में पुलिस को
प्रथमदृष्टया यह देखना होता है कि हत्या है या नहीं। लेकिन खिड़की, दरवाजे बंद थे। फिर हत्या कैसे हो सकती है?'- थानेदार ने कहा।
कमरे में एक मग रखा था जिसमें कुछ पाउडर घोला हुआ था। कुछ पाउडर पानी के नीचे बैठा हुआ था। एक तौलिया और एक जांघिया बाल्टी में डालकर बाथरूम में रखा गया था ।
मुझे लगा कि सुरक्षा की दृष्टि से कमरे की बनावट की समीक्षा की जाए। मैं दरवाजे के पास गया। दरवाजा लकड़ी का ही था। लेकिन उसके ठीक ऊपर दीवार में शीशे की पट्टी लगी थी। मैंने कमरे से बाहर निकलकर शीशे को हल्का-सा धक्का दिया। शीशा दीवाल के तख्ते पर गिर गया। दरवाजे को बंद करवाया।
फिर हाथ डालकर दरवाजे की सिटकिनी को खोलने का प्रयास किया। सिटकिनी खुल गयी।
इसतरह स्पष्ट था कि बंद दरवाजे को आधार बनाकर हत्या के ऐंगिल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।दरवाजे को बाहर से भी खोला और बंद किया जा सकता था। मैंने थानेदार को समझाने का प्रयास किया।
लेकिन वह इसे युडी केस ही मान रहा था। मैंने एसपी से बात की। उन्होंने कहा-थानेदार अनुभवी है। उसे निर्णय लेने दो। तुम चले आओ।
पत्रकार गेस्ट हाऊस पहुँचा। उसने कहा-गैंगवार है, सर। आपके कारण ही मारा गया। मुझे विश्वास नहीं हुआ था, पर मैं बहुत कुछ सोचने को मजबूर हो गया था।
मेरे प्रशिक्षण का एक दौर पूरा हो गया था ।

तो क्या सच में मेरी हत्या की योजना थी? लेकिन क्यों? क्या भेद खुलने का डर था? लेकिन जब मैं जिंदा हूँ, तब हत्या की साजिश पर कैसे विश्वास करूँ?
दूसरे या तीसरे दिन मुझे थाना-ट्रेनिंग के लिए नौहट्टा थाने में योगदान का आदेश दे दिया गया।
नौहट्टा कोशी तटबंध के पास ही स्थित है। मुझे खुशी हुई , क्योंकि ग्रामीण थाने की कार्यशैली को जानने -समझने का मौका मिल रहा था। (क्रमशः )
आदेशानुसार नौहट्टा में योगदान दे दिया। भौगोलिक स्थिति, अपराध के स्वरूप, अपराध-केंद्र और डेमोग्राफी पर थाना-प्रभारी से बातचीत की। थाने के स्टाफ पर बातचीत हुई। थानेदार ने बहुत-सारी मुश्किलें बतायीं जिसमें फोर्स की कमी और सरकारी गाड़ी का न होना प्रमुख था।
नौहट्टा करीब-करीब तटबंध पर ही स्थित बस्ती है। शहर से दूर होने के कारण जरुरत की दुकानें खुल गयी हैँ। पर इसे शहर नहीं कहा जा सकता। यहाँ हिंदुओं में मुख्यतः राजपूत हैँ। मुस्लिम आबादी भी राजपूतों की आबादी के ही बराबर है। लोगों ने बताया कि यहाँ के मुसलमान राजपूतों के अपने भाइबंद हैँ।
दो भाई थे। एक हिंदु रह गए, दूसरे मुसलमान हो गए। आज भी एक हिंदु पिंडी है जिसकी पूजा हिंदु-मुस्लिम दोनों करते हैँ। में मल्लाहों की आबादी काफी है। वे मुखिया टायटिल रखते हैँ। शायद मछुआ शब्द का क्षेत्रीय रूप मुखिया शब्द है।
कोशी का दियारा, अपराध का केंद्र है।
वहाँ बाढ़ खत्म होने के बाद फसलों पर अधिकार जमाने के लिए मारामारी होती है।
क्षेत्र में जातीय वैमनस्य भी पुरजोर दिखायी पड़े। भूमिहार नगण्य हैँ। राजपूत और मैथिल ब्राह्मणों की आबादी है। पिछड़ों में यादव और मल्लाह अधिसंख्यक हैँ।
दियारा क्षेत्र में मुस्लिम अपराधी नेतृत्त्व करते थे। सूत्रों के अनुसार उनके पास अच्छे खासे आधुनिक हथियार भी थे।
कोशी नदी को स्थानीय लोग गंगा ही कहते हैँ। पिछड़ों के बीच मंडल टायटिल लोकप्रिय है। परम्परा के अनुसार मंडल समुदाय शाकाहारी माना जाता है।
एक दिन एक मुखिया जी थाने पर आये। ये जाति से मुखिया नहीं, पद से मुखिया थे यानि पंचायत प्रधान थे। इन्होंने प्रथम इत्तिला प्रतिवेदन दर्ज करने के लिए एक लिखित आवेदन दिया। उसके अनुसार कुछ अज्ञात चोरों ने उनके घर में सेंध मारकर कपड़े-लत्ते और जेवरात से भरे कई बक्से चुरा लिए थे ।
उन्हें पता था कि थाने की अपनी गाड़ी नहीं है जिससे पुलिस के जाने के लिए एक जीप भी लेकर आये थे। मैंने देर नहीं की। 1-4 का होमगार्ड बल तैयार करवाया, क्योंकि थाने में यही बल उपलब्ध था और प्रभारी महोदय को लेकर घटनास्थल के लिए रवाना हो गया।
चोरी के स्थल का निरीक्षण किया।
अजीब बात थी कि जहाँ से चोरी की बात बतायी जा रही थी वह जगह ईंट की मजबूत दीवारों वाले मुखियाजी के मकान से काफी बाहर फूस की झोपड़ी थी। बताया गया कि गड्ढा खोदकर बक्से निकाले गए थे। लेकिन मिट्टी पर घसीटने के कोई निशान नहीं थे। कुदाल से काटी गयी मिट्टी सतह से समकोण बनाती हुई तहदर्ज थी।
मुझे विश्वास हो गया कि कहानी झूठी गढ़ी गयी है यानि चोरी हुई ही नहीं। सोचने की बात है कि महँगे जेवरात और कपड़ों के बक्से घर में नहीं रखकर बाहर की झोपड़ी में क्यों रखे जाएँगे। लेकिन झूठी कहानी भी क्यों? कुछ कारण तो होना चाहिए।
मैं इसी उधेड़बुन में था कि एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया
और बताने लगा कि अमुक गाँव के बाहर बक्से फेंके हुए हैँ। मुझे लगा चलो कुछ क्लू तो मिला। हो सकता है चोरी हुई ही हो। मैं अविलम्ब उस स्थान पर पहुँचा जहाँ कई बक्से टूटी फूटी अवस्था में खुले पड़े थे।
मुखिया जी भी साथ थे।
मैंने पूछा-मुखिया जी, किसी अपराधी छवि का कोई व्यक्ति आसपास हो तो बताएँ। उन्होंने बड़ी आहत स्वर में कहा कि हुजूर एक मल्लाह का लड़का है इसी गाँव (जिस गाँव के पास बक्से उपलब्ध हुए थे) में सोनू नाम का। उसे मैंने देखा तो नहीं है, पर उसकी बदनामी है। उसी पर हमको शक है।
मैंने उसके घर का पता लिया और चौकीदारों की फौज के साथ गाँव, फिर सोनू के घर और फिर खलिहान में प्रवेश किया। पूरा उलट-पुलट करवाया। लेकिन कुछ भी बरामद नहीं हुआ। पूरी सर्च में सोनू का पिता शरीक था। उसने सहर्ष हर सम्भावित स्थान पर सर्च करने की छूट दे दी थी।
अंत में मैंने पूछा कि तुम्हारा लड़का कहाँ है। उसने कहा हुजूर, दस मिनट में आपके पास हाजिर करवा देते हैँ। मुझे आप पर विश्वास है-आप इंसाफ करेंगें। मैं अंतर्द्वंद्व में फँसा था। आखिर माजरा क्या है?
सोनू सचमुच दस मिनट में मेरे सामने था। मैंने सख्ती से पूछना शुरू किया।
सोनू लगभग 15-16 साल का लड़का था। उसने बताया कि मुखिया जी का लड़का मेरे साथ कल क्रिकेट खेल रहा था। उसी समय मुझसे झगड़ा हो गया था और उसने मुझे सिखा देने की धमकी दी थी।
मैं उसे लेकर मुखिया जी के दरवाजे पर पहुँचा। मुखिया जी के लड़के से भी पूछा उसने भी कल के झगड़े को स्वीकार किया ।
सोनू के पिता ने बताया कि कल मुखिया जी ने मुझे और मेरे लड़के को बुलवाकर डाँटा भी था। मैंने अपने लड़के की तरफ से माफी भी माँगी थी।
मुखिया जी के भाई ने कहा कि हाँ, आये तो थे पर उस समय भी गर्मी दिखा रहे थे।
स्पष्ट था कि मुखिया झूठ बोल रहा था।
वह तो कह रहा था कि मैंने कभी मल्लाह के लड़के को देखा नहीं है। मैंने फैसला सुना दिया। मैंने कहा-मुखिया जी, आपके FIR को झूठा कर रहा हूँ और आपके ऊपर झूठे केस में दूसरे को फँसाने का मुकदमा कर रहा हूँ। मुखिया घबड़ा गया। मैं उसे भी थाने पर ले आया। लेकिन फिर वह माफी माँगने लगा।
सोनू मल्लाह के पिता ने भी कहा- हुजूर, मुखिया जी हमलोगों के गार्जियन हैँ। उन्हें माफ कर दिया जाए। मैंने एसपी साहब से दूरभाष पर बात की। उन्होंने कहा-सुधीर, स्वयं निर्णय लो। मैंने नवसिखुए की भूमिका निभाते हुए मुखिया जी के आवेदन को फाड़ दिया। दोनों 'मुखिया' घर चले गए।
मुखिया जी ने इधर-उधर कम्प्लेन भी किया मेरे खिलाफ, फिर मौन हो गए।
(क्रमशः)
सहरसा से विदाई के साथ वर्षों के लिए वर्दी से भी नाता टूट गया।
सहरसा में बहुत सारी घटनाएँ हुईं। उन सबों का उल्लेख करने की जरुरत मैं नहीं समझता हूँ। लेकिन एक घटना ऐसी हुई जिसका उल्लेख करना जरूरी है क्योंकि इसने शायद हमारे पुलिस-जीवन को काफी प्रभावित किया था। बहुत दिन हो गए।
इसलिए किस थाने की यह घटना थी, मुझे याद नहीं है, हो सकता है पोस्ट को पढ़कर कोई सहरसा-वासी याद दिला दें। एक दिन एस. पी. श्री रेजी डुंगडुंग ने बुलाया और मुझे एक काण्ड का पर्यवेक्षण करने के लिए कहा। मैं प्रोबेशनर था। मुझे खुशी हुई, क्योंकि पुलिस उपाधीक्षक के रूप में कांडों का
पर्यवेक्षण सबसे महत्त्वपूर्ण दायित्व होता है। पर्यवेक्षण का यह पहला मौका था।
घटना यह थी कि सघन जवाहर रोजगार योजना के तहत एक ग्रामीण सड़क बन रही थी जिसमें FIR के अनुसार एक ही गाँव के दो गुटों के बीच गोलीबारी हुई थी और बम भी छोड़े गए थे। वादी मुखिया खुद या शायद उसी का कोई परिजन था।
पर्यवेक्षण का अवसर मिलने की खुशी तो थी, लेकिन मुझे यह पता नहीं था कि इस काण्ड का पर्यवेक्षण-प्रतिवेदन DSP (HQ) डॉ चंद्रशेखर आजाद चौरसिया समर्पित कर चुके हैं और FIR में नामित अभियुक्तों के विरुद्ध आरोप उनके द्वारा सत्य करार किया जा चुका है।
मुझे एसपी साहब द्वारा जिप्सी और एक गार्ड भी दिया गया। इन्हें लेकर मैं संबद्ध थाने में पहुँचा। थानेदार और आई. ओ. को साथ लिया और घटनास्थल की ओर रवाना हो गया। गाँव पहुँचा तो थानेदार मुझे मुखिया जी के दरवाजे पर ले गया। बताया कि सर, सारी सच्चाई आपको यहीं मालूम हो जाएगी।
उसकी आवाज में मुझे मक्कारी की गंध महसूस हुई। गुस्सा भी आया पर, पर यह एक प्रोबेशनर के लिए अनुचित था। मुझे लगा कि थानेदार मुझे गलत पाठ पढ़ा रहा है। मुखिया जी ने पूरी पुलिस टीम के लिए शर्बत-पानी की व्यवस्था की। पर मैंने कुछ नहीं लिया।
फिर मैं पूरी टीम के साथ गाँव के मुहल्लों में घूम -घूमकर पूछ-ताछ करने लगा । चौकीदार मुझे एक टोले में ले गया। वहाँ लोगों से घटना के बारे में पूछा। सबों ने मुखिया की तारीफ करते हुए कहा कि कुछ लफंगे मुखिया जी का बेवजह विरोध करते रहते हैं।
बताया गया कि वादी और आरोपित दोनों यादव जाति के ही हैं, आरोपित लोग दरिद्र हैँ और मुखिया जी की तरक्की से जले-भुने रहते हैं। शक खत्म नहीं हुआ, क्योंकि चौकीदार मुखिया का भक्त दिखायी पड़ रहा था और उसी टोले का था । चौकीदार ही वहाँ लेकर गया था।
दो तीन और जगहों पर गया। सभी जगह आरोपितों के खिलाफ ही लोग बयान दे रहे थे। मुझे लगने लगा कि घटना और आरोप सत्य है।
अंत में एक और बस्ती में पहुँचा। वहाँ एक व्यक्ति पर नजर पड़ी जो कंठीमाला पहने हुए था। मैने गाड़ी रुकवायी। उसके पास पहुँचकर रुका और उसके गले में लटकी माला को पकड़ा और
बोला-'देखो कंठीमाला पहने हुए हो। झूठ मत बोलना। बताओ क्या हुआ था।'
उसने बड़े ही शांत स्वर में कहा-हुजूर , मुझे किसी का डर नहीं है। मैं झूठ नहीं बोलूँगा। मुखिया जी जानबूझकर गाँववालों को फँसा रहे हैं। गोली मुखिया जी का भतीजा सुनील चलाया है। रोड बन रहा था जिसका विरोध हो रहा था । बस,
सुनील आकर गोली चलाने लगा।
मैने पूछा-बाबा, सिर्फ गोली ही नहीं चली थी। बम भी फेंका गया था। कंठी वाले बाबा ने बेलाग स्वर में कहा-यह सब झूठ है। बम-तम कुछ नहीं चला था।
बम-तम कुछ नहीं चला था-यह सुनकर मैं चौंक गया। थानेदार ने कहा -'सर, यह झूठ बोल रहा है। बम तो चले थे। एक नहीं कई।'…
थानेदार और आईओ को लेकर उस स्थान पर पहुँचा जहाँ बम फेंकने की बात थी। सुतली वगैरह प्राप्त होने की बात बतायी गयी थी।
लेकिन घटनास्थल को देखते ही माजरा साफ हो गया। वहाँ करीब 1500 वर्गफ़ुट में गोबर और मिट्टी की काफी मोटी और सूखी परत बैठी हुई थी। कहीं भी जलने का कोई निशान नहीं था।
बगल में एक यादव जी का घर था। वस्तुतः उन्हीं का बथान था। उन्होंने बताया कि जगह सुरक्षित रखा गया है। कोई परिवर्त्तन नहीं किया गया है।
स्पष्ट था कि या तो बम-विस्फोट की कहानी झूठी थी या फिर बम-काण्ड अन्यत्र हुआ था, लेकिन मैंने किसी को यह नहीं बताया कि मैं क्या सोच रहा हूँ।
मुखिया से पूछा तो उसने भी पुष्टि की कि बम यहीं फेंके गए थे। IO और थानेदार ने भी बताया कि बम के अवशेष यहीं मिले थे।
इसतरह मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि कंठी वाले बाबा सही कह रहे हैं।बम वाली बात झूठी है। आरोपित निर्दोष हैं। असली दोषी मुखिया, उसका भतीजा सुनील और उसके कुछ गुर्गे हैं।
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