बिहार के एक भूतपूर्व DGP जो लालू-राबड़ी के कार्यकाल में महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके थे उनके अनुसार लालू यादव सीधे थानेदारों को फोन लगाकर वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को दरकिनार कर हतोत्साहित करना शुरू किए। एक CM का इसतरह निचले क्रम से जुड़ना एक मायने
में अच्छा कहा जा सकता है कि ग्राउंड लेवेल की बातें तथ्यात्मक रूप से पहुंचे। पर जब यह पुलिस की कार्यशैली को गलत तरीके से प्रभावित करने के लिए किया जाए तो इसका असर विधि व्यवस्था पर बहुत ही प्रतिकूल तरीके से पड़ता है। जब एक थानेदार सीधे मुख्यमंत्री से जुड़ जाए तो पदानुक्रम भंग हो
जाता और वरिष्ठ अधिकारी के मूल्यवान सुझाव भी दरकिनार हो जाते। इसका सबसे बड़ा दुरुपयोग थाना स्तर पर केस को कमजोर करने में होता रहा है। जिससे कि दोषियों पर कठोर करवाई सुनिश्चित होने में संदेह होने तय था।
राबड़ी देवी के शासनकाल में 2003 में 1967 बैच के IPS अधिकारी डीपी ओझा DGP हुए तब कुछ हद तक पुलिस मुख्यालय का खोया हुआ स्वाभिमान प्रतिष्ठित हो सका।
डीपी ओझा की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि अपहरण और हत्या के CID केस में शहाबुद्दीन के खिलाफ गिरफ्तारी का आदेश जारी हो सका।
तत्कालीन मुख्यमंत्री राबड़ी देवी इस मामले में नहीं पूछे जाने पर बहुत नाराज हुई थी। लालू प्रसाद उस समय पटना में नहीं थे उन्होंने DGP को तलब किया और कहा कि इस मुद्दे को राबड़ी देवी के यहां जाकर एक्सप्लेन करें।
जब वो मुख्यमंत्री राबड़ी देवी से मिले तो उन्होंने क्रोधित दृष्टि से DGP की ओर देखा और तीन बार पूछा कि मुझसे पूछा क्यों नहीं गया?
उसके बाद DG साहब का धैर्य जवाब दे गया और उन्होंने कहा कि DGP या सीनियर पुलिस अधिकारियों को यह निर्धारित करने का विशेषाधिकार है कि किसे अरेस्ट करना है।
साथ ही उन्होंने साफ शब्दों में यह भी कहा कि भविष्य में भी ऐसे मामलों में वह CM का परमिशन नहीं लेंगे।
शहाबुद्दीन के गिरफ्तारी के आदेश के बाद लालू आवास में कोलाहल मची थी सबसे बड़ी बेटी मीसा भारती भी पर्दे के पीछे से प्रयासरत रही कि शहाबुद्दीन की गिरफ्तारी का ऑर्डर वापस लिया जा सके।
इसके डेढ़ महीने बाद ही बिहार की राबड़ी देवी सरकार ने डीपी ओझा को हटा कर वारिस हयात ख़ान को राज्य का DGP नियुक्त किया।
शनिवार का दिन था दफ़्तर खुलते ही इस फ़ैसले से प्रदेश के प्रशासनिक अमले में सनसनी फैल गई थी। 6 महीने भी अपने पद पर नहीं रह सके।
पद से हटाए जाने के बाद डीपी ओझा ने पुलिस की सेवा से ही इस्तीफ़ा दे दिया जबकि वे फ़रवरी में सेवानिवृत्त होने वाले थे।
उसके पहले डीपी ओझा ने सार्वजनिक बयानों में अपराधियों और नेताओं के नेक्सस के साथ ही शासनतंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार पर तीखे प्रहार भी किया था।
उनसे पहले बिहार में किसी पुलिस महानिदेशक ने सत्ता और नेता के ख़िलाफ़ इतना खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं की थी।
इस प्रकार शहाबुद्दीन को जेल भिजवाने के मामले में भी अहम भूमिका निभाई थी।
एक समारोह में उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि बिहार के लोगों ने लफंगों के हाथों में सत्ता डाल दी है और सत्ता से जुड़े नेता भी जेल में बंद अपराधी सरगना के चरण छूने पहुँच जाते हैं।
ग़ौरतलब हो कि उस बयान के गत माह राजद प्रमुख लालू यादव ने सिवान की जेल में बंद शहाबुद्दीन से भेंट की थी।
भूतपूर्व DGP नीलमणि साहब कहते हैं, यह वही डीपी ओझा थे जो IG विजिलेंस रहते हुए राज्य सरकार के 1982 के सर्कुलर को 1999 में चुनौती दिए थे। इस सर्कुलर का यह प्रावधान था कि किसी भी गजटेड अधिकारी के विरुद्ध भ्रष्टाचार का केस दर्ज करने के लिए विजिलेंस कमिश्नर का परमिशन लेना जरूरी है।
और विधायकों-मंत्रियों के खिलाफ केस दर्ज करने के लिए मुख्यमंत्री का परमिशन जरूरी है।
डीपी ओझा ने हाईकोर्ट के समक्ष सफलतापूर्वक अपना पक्ष रखा कि किसी के खिलाफ भ्रष्टाचार का केस दर्ज करने के लिए किसी अथॉरिटी के परमिशन की जरूरत नहीं होनी चाहिए। उसके लिए विजिलेंस ही सक्षम ऑथोरिटी है।
यह एक दुर्लभ केस था जब एक IG अपने सरकार के सर्कुलर के खिलाफ मुकदमा लड़ा और उसे जीता भी।
नीतीश कुमार की सरकार ने इस परिवर्तित प्रावधान का सर्वप्रथम 2004 में उपयोग किया जब विजिलेंस ने बीपीएससी के चेयरमैन को बीपीएससी की परीक्षाओं में तथाकथित अनियमितता के केस में गिरफ्तार किया था।
लालू प्रसाद अक्सर अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के खिलाफ दर्ज सीरियस केसेस को सीआईडी को रेफर कर देते थे जो कि उनके लिए मामले को लटकाने खातिर एक कोल्ड स्टोरेज का काम करता था।
एक बार एक आईपीएस अधिकारी तेजप्रताप सिंह जो उस समय के सीआईडी के मुखिया थे मुख्यमंत्री के द्वारा सुझाया कुछ केसेज को इंटरटेन करने से मना कर दिया बाद में खफा होकर लालू प्रसाद उनका तबादला कर दिए।
1974 बैच के बिहार कैडर के आईपीएस अधिकारी गौतम साहब एक वाकिया बताते हैं, 1993-94 की बात है जब उन दिनों वो शाहाबाद रेंज के DIG थे। अमझोर थाने के एक गांव से एक बच्चे का अपहरण हुआ था। बाद में बच्चे को पुलिस ने बरामद भी किया और अपहरणकर्ता को गिरफ्तार भी किया गया। #मंगलराज
थाने के इंचार्ज ने FIR दर्ज किया उसके बाद पुलिस मुख्यालय से उसके पास कॉल आया कि उस केस पर धीमी गति से कार्य करें। इसके बाद भी उस पुलिस अधिकारी को सीआईडी में ट्रांसफर भी कर दिया गया और इतना ही नहीं जिले के एसपी को भी कहा गया कि अपहरणकर्ता के बेल को सुनिश्चित करें। #मंगलराज
डीआईजी गौतम को जब इस मामले की जानकारी हुई तो उन्होंने पुलिस स्टेशन इंचार्ज को बुलाया। यह आश्वासन भी दिया उसका तबादला नहीं होगा। पुलिस अधिकारी रोने लगा मगर फिर भी वह ट्रांसफर के पक्ष में था कि अगर वह ट्रांसफर को स्वीकार नहीं करता है तो वह मारा भी जा सकता है।
बाद में यह खुलासा हुआ
कि जो किडनैपर था वह इंजीनियरिंग कॉलेज प्रवेश परीक्षा रैकेट का हिस्सा था और सत्ता शक्ति के अत्यंत नजदीक था।
गौतम साहब कहते हैं, “Criminals work in the shadows and masks look the same in darkness. ”
यानी अपराधी जो साये में और मुखौटे में अपराध करते हैं वो अंधेरे में एक ही दिखते हैं!
1972 बैच के आईपीएस अधिकारी किशोर कुणाल को भी लालू के कार्यकाल में कड़वे अनुभवों का सामना करना। सीआईएसएफ के डीआईजी के तौर पर पटना में पोस्टेड थे। वर्ष 1995 में विधानसभा चुनाव का समय था और राज्य पुलिस के साथ और कुछ संवेदनशील बूथों पर अर्धसैनिक बलों के डिप्लॉयमेंट में लगे थे।
इस दौरान उन्होंने सरकार के द्वारा संवेदनशील बूथों के चयन पर अपनी चिंता जताई थी। किशोर कुणाल ने बताया की ज्यादातर संवेदनशील बूथ जिन्हें सरकार ने चिन्हित किया था वह असल में लालू यादव के विरोधियों के गढ़ थे!
तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने सीआरपीएफ के डीजी एसबीएम त्रिपाठी को चुनाव तैयारियों का समीक्षा करने के लिए भेजा था। मीटिंग के अंत में उन्होंने कहा कि आशा करता हूं कि चुनाव शांतिपूर्ण और निष्पक्ष होंगे।
उसके बाद किशोर कुणाल खड़े हुए और और बोले कि चुनाव शांतिपूर्ण तो होंगे लेकिन निष्पक्ष नहीं। उसके बाद उन्होंने त्रिपाठी साहब से उन कारणों को एक्सप्लेन किया जिसके आधार पर चुनाव की निष्पक्षता पर सवाल उठाये थे।
किशोर कुणाल के मन में जो भी संदेह थे वह अंतिम चरण के चुनाव के समय तक इनकी पुष्टि भी हुई। हालांकि सूचना यह भी मिलती रही कि जितने अर्द्धसैनिक बल के जवान थे, मतदान की अवधि तक सब को बैरकों में रखा जाता था और बूथ पर तभी भेजा जाता था जब मतदान समाप्त हो जाते थे।
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लक्षद्वीप:
1970 के उत्तरार्ध की बात है। लक्षद्वीप के कवरत्ती से हिंसा की खबर आई। केरल राजभवन में सुरक्षा बलों की एक कम्पनी तैनात थी जिसके कम्पनी कमांडर गढ़वाल के रावत साहब थे। रात को 10 बजे कम्पनी को मूव करने का आदेश आया। जो जिस हालत में था लाठी और राइफल लेकर तैयार हुआ।
राजभवन से बसों में सवार होकर रात के 12 बजे मूवमेंट शुरू हुआ। 4 बजे सभी कोचीन बन्दरगाह पर पहुंचे। भारतीय नौसेना का जहाज कृष्णा खड़ा था। वहां पर पूरे कम्पनी का फ्रेश पर्टिकुलर्स तैयार किया गया। राशन की लोडिंग हुई और 2 बजे जहाज चल पड़ा। अगले दिन कम्पनी कवरत्ती पहुंची।
वहां छोटे-छोटे बोट के मदद से सामानों को किनारे लगाया गया। कम्पनी कमांडर ने पुलिस अधीक्षक को रिपोर्ट किया। बिहार के बड़हिया के रहने वाले थे वो। उन्होंने मामले की जानकारी दी। और कहा कि तुरंत दंगा नियंत्रण का काम शुरू हो। जो भी दिख जाए उसको 4-6 लाठी लगाना है। आवश्यकता पड़ने पर फायर।
आहम्पि॒तॄन्सु॑वि॒दत्राँ॑ अवित्सि॒ नपा॑तं च वि॒क्रम॑णं च॒ विष्णोः॑।
ब॑र्हि॒षदो॒ ये स्व॒धया॑ सु॒तस्य॒ भज॑न्त पि॒त्वस्त इ॒हाग॑मिष्ठाः॥
(#ऋग्वेद १०.१५.०३) #पितृपक्ष
उत्तम ज्ञान से युक्त पितरों को तथा अपान पात् और विष्णु के विक्रमण को, मैंने अपने अनुकूल बना लिया है । कुशासन पर बैठने के अधिकारी पितर प्रसन्नापूर्वक आकर अपनी इच्छा के अनुसार हमारे-द्वारा अर्पित हवि और सोमरस ग्रहण करें।
ऋषि: - शङ्खो यामायनः
देवता - पितरः
छन्द: - विराट्त्रिष्टुप्
बर्हि॑षदः पितर ऊ॒त्य॒र्वागि॒मा वो॑ ह॒व्या च॑कृमा जु॒षध्व॑म्।
त आ ग॒ताव॑सा॒ शंत॑मे॒नाथा॑ नः॒ शं योर॑र॒पो द॑धात॥
(#ऋग्वेद १०.१५.०४) #पितृपक्ष
बिहार रेजीमेंट के जवानों की शौर्यगाथा, कर्नल बी. संतोष बाबू के शहीद होने के बाद तोड़ी 18 चीनी सैनिकों की गर्दन:
पिछले दिनों गलवान घाटी में चीनी सैनिकों ने एक सोची-समझी साजिश के तहत भारतीय जवानों पर हमला किया।
हालांकि चीन की पीएलए ऑर्मी की तरफ से अचानक हुए इस हमले में पहले भारत को बड़ा नुकसान हुआ, लेकिन उसके बाद जिस तरह से बिहार रेजीमेंट के जवानों ने मोर्चा संभाला, उसके बाद चीनी सैनिक भाग खड़े हुए।
उस रात बिहार रेजीमेंट के जवानों ने बहादुरी की कहानी,
पूरी दुनिया में सैन्य अभियानों के लिए मिसाल बन गयी है। उस रात चीनी सैनिकों की तादाद भारतीय सेना की तुलना में पांच गुणा ज्यादा थी, लेकिन फिर भी हमारे बहादुर जवानों ने चीनी सेना को ऐसा मारा कि अब वह शांति से बातचीत को सुलझाने की बात कर रहा है।
1983 में तत्कालीन बिहार सरकार को हिलाने वाले बहुचर्चित श्वेतनिशा उर्फ बॉबी हत्याकांड और उसके बाद हुए हलचल पर सुजीत जी ने दैनिक भास्कर ने एक शृंखला लिखी थी। यशस्वी आचार्य श्री किशोर कुणाल उस समय पटना एसएसपी थे। सीबीआई की भूमिका पर सवाल खड़े हुए थे। पूरी शृंखला सूत्रवत है:
भाग 1
बीते 5 जून को 1985-88 के बीच दिल्ली पुलिस के कमिश्नर रहे वेद प्रकाश मारवाह का 87 वर्ष की आयु में गोवा में निधन हो गया है। वेद मारवाह हमेशा देश के बेहतरीन पुलिस अधिकारियों में गिने जाएंगे। उनके जीवन के कुछ प्रसंगों की रेहान भाई चर्चा करते हैं।
अप्रैल 1985 में दिल्ली के पुलिस कमिश्नर का पद संभालने के कुछ महीनों के अंदर ही उन्होंने गृह सचिव सी.जी. सोमैया से मिलने का समय माँगा।
सोमैया से मिलने पर उन्होंने शिकायत की कि वो गृह मंत्री बूटा सिंह से परेशान हैं।
क्योंकि वो अपने कुछ लोगों को दिल्ली के महत्वपूर्ण थानों में पोस्टिंग के लिए ज़ोर डालते रहते हैं. ये वो लोग हैं जिन्हें पुलिस महकमे में ईमानदार नहीं माना जाता। सोमैया भी अपनी ईमानदारी के लिए मशहूर थे।
यह हमारी प्राचीन परम्परा है, वैसे तो हमारी हर बात प्राचीन परम्परा है, कि लोग बाहर जाते हैं और ज़रा–ज़रा–सी बात पर शादी कर बैठते हैं। अर्जुन के साथ चित्रांगदा आदि को लेकर यही हुआ था। यही भारतवर्ष के प्रवर्त्तक भरत के पिता दुष्यन्त के साथ हुआ था, #रागदरबारी
यही ट्रिनिडाड और टोबैगो, बरमा और बैंकाक जानेवालों के साथ होता था, यही अमरीका और यूरोप जानेवालों के साथ हो रहा है और यही पण्डित राधेलाल के साथ हुआ। अर्थात् अपने मुहल्ले में रहते हुए जो बिरादरी के एक इंच भी बाहर जाकर शादी करने की कल्पना–मात्र से बेहोश हो जाते हैं…
…वे भी अपने क्षेत्र से बाहर निकलते ही शादी के मामले में शेर हो जाते हैं। अपने मुहल्ले में देवदास पार्वती से शादी नहीं कर सका और एक समूची पीढ़ी को कई वर्षों तक रोने का मसाला दे गया था। उसे विलायत भेज दिया जाता तो वह निश्चय ही बिना हिचक किसी गोरी औरत से शादी कर लेता।