यह अद्भुत व चमत्कारी अंक बहुत समय काल से हमारे ऋषि -मुनियों के नाम के साथ प्रयोग होता रहा है।
----~~~॥ॐ ॥~~~---
अ→१ ... आ→२ ... इ→३ ... ई→४ ... उ→५ ... ऊ→६. ... ए→७ ... ऐ→८ ओ→९ ... औ→१० ... ऋ→११ ... लृ→१२
अं→१३ ... अ:→१४.. ऋॄ →१५.. लॄ →१६
ङ→५ ... च→६ ... छ→७ ... ज→८ ...
झ→९ ... ञ→१० ... ट→११ ... ठ→१२ ...
ड→१३ ... ढ→१४ ... ण→१५ ... त→१६ ...
थ→१७ ... द→१८ ... ध→१९ ... न→२० ...
म→२५ ... य→२६ ... र→२७ ... ल→२८ ...
व→२९ ... श→३० ... ष→३१ ... स→३२ ...
ह→३३ ... क्ष→३४ ... त्र→३५ ... ज्ञ→३६ ...
ड़ ... ढ़ ...
--~~~ओ अहं = ब्रह्म ~~~--
"ब्रह्म = ब+र+ह+म = २३+२७+३३+२५ = १०८"
यह मात्रिकाएँ (१८स्वर +३६व्यंजन=५४) नाभि से आरम्भ होकर ओष्टों तक आती है,इनका एक बार चढ़ाव, दूसरी बार उतार होता है, दोनों बार में वे १०८ की संख्या बन जाती हैं,इस प्रकार १०८ मंत्र जप से नाभि चक्र से लेकर जिव्हाग्र तक की १०८ सूक्ष्म तन्मात्राओं का प्रस्फुरण हो जाता है,
मनुष्य शरीर की ऊँचाई
= यज्ञोपवीत(जनेउ) की परिधि
= (४ अँगुलियों) का २७ गुणा होती है।
= ४ × २७ = १०८
३)
नक्षत्रों की कुल संख्या = २७
प्रत्येक नक्षत्र के चरण = ४
जप की विशिष्ट संख्या = १०८
अर्थात ॐ मंत्र जप कम से कम १०८ बार करना चाहिये ।
अर्थात ३६×३=१०८ अत: पाप कर्म संस्कार निवृत्ति हेतु किये गये मंत्र जप को कम से कम १०८ अवश्य ही करना चाहिये।
इस समय में ईश्वर का ध्यान करना चाहिये,
सूर्य देव वर्ष में दो बार अपनी स्थिति भी बदलते है, छःमाह उत्तरायण में रहते है,
और छः माह दक्षिणायन में
अत: सूर्य छः माह की एक स्थिति में १०८००० बार कलाएं बदलते है,
इन १२ भागों के नाम - 👇
मेष, वृष, मिथुन, कर्क,
सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक,
धनु, मकर, कुंभ और मीन हैं,
अत: ग्रहों की संख्या ९ में राशियों की संख्या १२ से गुणा करें (१२×९) तो संख्या १०८ प्राप्त हो जाती है,
एक “१" ईश्वर का प्रतीक है,ईश्वर का एक सत्ता है अर्थात ईश्वर १ है और मन भी एक है,
शून्य “०" प्रकृति को दर्शाता है,
आठ “८" जीवात्मा को दर्शाता है क्योकि योग के अष्टांग नियमों से ही जीव प्रभु से मिल सकता है,
जीव “८" को परमपिता परमात्मा से मिलने के लिए प्रकृति “०" का सहारा लेना पड़ता है,ईश्वर और जीव के बीच में प्रकृति है,
प्रकृति “0 " में क्षणिक सुख है और परमात्मा में अनंत और असीम,
२- द्वैत, दुनिया, संसार
३- गुण प्रकृति (माया)
४- अवस्था भेद (वर्ण)
५- इन्द्रियाँ
६- विकार
७- सप्तऋषि, सप्तसोपान
८- आष्टांग योग
९- नवधा भक्ति (पूर्णता)
अहंकार के गुण = २
बुद्धि के गुण = ३
मन के गुण = ४
आकाश के गुण = ५
वायु के गुण = ६
अग्नि के गुण = ७
जल के गुण = ८
पॄथ्वी के गुण = ९
२+३+४+५+६+७+८+९ =४४
अत: प्रकॄति के कुल गुण = ४४
जीव के गुण = १०
इस प्रकार संख्या का योग = ५४
एवं सृष्टि प्रलय की संख्या = ५४
दोंनों संख्याओं का योग = १०८
संख्या “०" जड़ प्रकृति का संकेत है,
संख्या “८" बहुआयामी जीवात्मा का संकेत है,
[ यह तीन अनादि परम वैदिक सत्य हैं ]
[ यही पवित्र त्रेतवाद है ]
इसलिये यदि “०" न हो तो कोई क्रम गणना आदि नहीं हो सकती
“१" की चेतना से “८" का खेल
“८" यानी “२" से “९"
यह “८" क्या है ?
मन के “८" वर्ग या भाव,
१. काम ( विभिन्न इच्छायें / वासनायें )
२. क्रोध
३. लोभ
४. मोह
५. मद ( घमण्ड )
६. मत्सर ( जलन )
७. ज्ञान
८. वैराग
एक सामान्य आत्मा से महानात्मा तक की यात्रा का प्रतीक है ॥ १०८ ॥
इन आठ भावों में जीवन का ये खेल चल रहा है,
इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बनें,
रहस्यमय संख्या १०८ का हिन्दू- वैदिक संस्कृति के साथ हजारों सम्बन्ध हैं जिनमें से ये कुछ का संग्रह है,