छन्द - अनुष्टुप
ऋषि - शंताति
देवता - चन्द्रमा एवं विश्वेदेवा
यह सूक्त ऋग्वेद में भी है। मान्यता है कि इसके जप-पाठ से रोग नष्ट हो जाते हैं। आइए इस सूक्त के सभी ऋचाओं को देखते हैं।
उतागश्च्कृषम् देवा देवा जीवयथा पुनः॥१॥
हे देवों ! हे देवों ! आप नीचे गिरे हुए को फिर निश्चयपूर्वक ऊपर उठायें. हे देवों ! हे देवों ! और पाप करनेवाले को भी फिर जीवित करें, जीवित करें।
दक्षं ते अन्य आवातु व्यन्यो वातु यद्रपः॥२॥
ये दो वायु हैं। समुद्र से आनेवाला पहला वायु है और दूर भूमि पर से आनेवाला दूसरा वायु है। इनमें से एक वायु तेरे पास बल ले आये और दूसरा वायु जो दोष है, उसे दूर करे।
त्वं हि विश्वभेषज देवानां दूत ईयसे॥३॥
हे वायु! औषधि यहाँ ले आ! हे वायु! जो दोष है, वह दूर कर। हे सम्पूर्ण औषधियों को साथ रखने वाले वायु! निःसंदेह तू देवों का दूत-जैसा होकर चलता है, जाता है, प्रवाहित है।
त्रायंतां विश्वा भूतानि यथायमरपा असत् ॥४॥
हे देवों ! इस रोगी की रक्षा करें। हे मरुतों के समूहों ! रक्षा करें ! सब प्राणी रक्षा करें। जिससे यह रोगी रोग-दोष रहित हो जाए।
दक्षं त उग्रमाभारिशं परा यक्ष्मं सुवामि ते॥५॥
आपके पास शांति फैलानेवाले तथा अविनाशी साधनों के साथ आया हूँ। तेरे लिये प्रचण्ड बल भर देता हूँ। तेरे रोग को दूर कर भगा देता हूँ।
अयं मे विश्वभेषजो यं शिवाभिमर्शनः॥६॥
मेरा यह हाथ भाग्यवान है। मेरा यह हाथ अधिक भाग्यशाली है। मेरा यह हाथ सब औषधियों से युक्त है और मेरा यह हाथ शुभ-स्पर्श देनेवाला है।
अनामयित्नुभ्यां हस्ताभ्यां ताभ्यां त्वाभि मृशामसि॥७॥
दस शाखा वाले दोनों हाथों के साथ वाणी को आगे प्रेरणा करने वाली मेरी जीभ है। उन निरोग करने वाले दोनों हाथों से तुझे हम स्पर्श करते हैं।
[समाप्त]