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अकाल के बाद मनुष्यता की दूसरी सबसे बड़ी दुश्मन थी महामारी और संक्रामक बीमारियाँ। सौदागरों, सरकारी कर्मचारियों और तीर्थयात्रियों के अन्तहीन ताँते से जुड़े हलचल भरे नगर एक साथ मानव सभ्यता की आधारशिला और रोगाणुओं का घर हुआ करते थे।
नतीजतन, प्राचीन एथेंस या मध्ययुगीन फ़्लोरेंस में लोग इस अहसास के साथ अपना जीवन जिया करते थे कि वे बीमार पड़कर अगले हफ़्ते मर सकते हैं, या अचानक कोई महामारी फैलकर एक झटके में उनके पूरे परिवार को ख़त्म कर सकती है।
इस तरह के सबसे प्रसिद्ध प्रकोप को काली मौत (ब्लैक डैथ) के नाम से जाना जाता था। मध्य युग के लोग काली मौत (ब्लैक डैथ) को मनुष्य के नियन्त्रण और समझ से परे एक भयावह दानवीय शक्ति के रूप में देखते थे। इसकी शुरुआत पूर्वी या मध्य एशिया में किसी जगह पर 1330 के दशक में हुई थी,
जब पिस्सुओं में रहने वाले यर्सीनिया पेस्टिस नामक जीवाणु ने पिस्सुओं द्वारा काटे गए लोगों को संक्रमित करना शुरू कर दिया था। वहाँ से चूहों और पिस्सुओं की सेना पर सवार होकर यह महामारी तेज़ी के साथ समूचे एशिया, यूरोप और उत्तरी अफ़्रीका में फैल गई,
और बीस साल से कम समय में अटलांटिक महासागर के तटों तक पहुँच गई। 7.5 करोड़ से 20 करोड़ के बीच लोग मारे गए, जो यूरेशिया की कुल आबादी का एक चौथाई से ज़्यादा हिस्सा था। इंग्लैंड में दस में से चार लोग मरे, और आबादी महामारी-पूर्व की 37 लाख की संख्या से घटकर, महामारी के बाद 22 लाख रह गई।
फ़्लोरेंस नगर ने अपने 100000 निवासियों में से 50,000 निवासियों को खो दिया। सरकारी अधिकारी इस विपत्ति के सामने पूरी तरह से असहाय थे। सामूहिक प्रार्थनाओं और जुलूसों का आयोजन करने के अलावा इस महामारी को फैलने से रोकने का कोई उपाय उनको नहीं सूझता था, इसका इलाज कराना तो दूर की बात थी।
आधुनिक युग के आने के पहले तक मनुष्य बीमारियों के लिए बुरी हवा, दुष्ट दैत्यों और क्रुद्ध देवताओं को ज़िम्मेदार ठहराया करते थे, और रोगाणुओं तथा विषाणुओं के वजूद को लेकर उनके मन में कोई सन्देह तक पैदा नहीं होता था। लोग देवदूतों और अप्सराओं में तो सहज ही विश्वास कर लेते थे,
लेकिन वे यह कल्पना भी नहीं कर पाते थे कि एक छोटे-से पिस्सू या पानी की एक बूँद में परभक्षियों के समूचे जहाज़ी बेड़े समाए हो सकते हैं। काली मौत अकेली घटना नहीं थी, न ही वह इतिहास की सबसे ख़राब महामारी थी।सबसे ज़्यादा विनाशकारी महामारियों ने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और
प्रशान्त महासागर के द्वीपों पर प्रथम यूरोपियनों के आगमन के बाद हमला किया था। ये खोजी और उपनिवेशी अनजाने ही अपने साथ ऐसी नई संक्रामक बीमारियाँ लेकर आए, जिनके ख़िलाफ़ स्थानीय निवासियों में कोई प्रतिरोधक क्षमता नहीं थी। नतीजे में 90 प्रतिशत तक स्थानीय आबादियाँ मौत का शिकार हुईं।
5 मार्च 1520 को जहाज़ों का एक छोटा-सा बेड़ा क्यूबा के द्वीप से मैक्सिको की ओर रवाना हुआ। इन जहाज़ों में घोड़ों के साथ 900 स्पेनी सैनिक, तोपें और कुछ अफ़्रीकी गुलाम सवार थे। इनमें से एक ग़ुलाम, फ़्रांसिस्को दि एगिया अपनी देह पर इस सबसे कहीं ज़्यादा घातक माल लादे हुए था।
फ़्रांसिस्को को इसकी जानकारी नहीं थी, लेकिन उसकी खरबों कोशिकाओं के बीच कहीं एक जैविक टाइम बम टिकटिक कर रहा था: चेचक का विषाणु। फ़्रांसिस्को के मैक्सिको में उतरने के बाद इस विषाणु ने उसके शरीर में तेज़ी के साथ बढ़ना शुरू कर दिया, और अन्ततः उसकी त्वचा पर भयावह फुंसियों के रूप में
फूट पड़ा। बुखार में डूबे हुए फ़्रांसिस्को को केम्पोआलान नगर स्थित एक स्थानीय अमेरिकी परिवार के घर पर बिस्तर पर ले जाया गया। उसने उस परिवार के सदस्यों को संक्रमित कर दिया, जिन्होंने पड़ोसियों को संक्रमित कर दिया। दस दिन के भीतर केम्पोआलान एक क़ब्रगाह में बदल गया।
शरणार्थियों ने इस बीमारी को आस-पास के नगरों तक फैला दिया। जैसे-जैसे एक के बाद एक शहर इस महामारी के शिकार होते गए, वैसे-वैसे भयभीत शरणार्थियों की एक नई लहर इस बीमारी को समूचे मैक्सिको और उसके परे ले गई।
युकाटन प्रायद्वीप के मायाओं का विश्वास था कि तीन दुष्ट देवता - एक्पेट्ज़, उज़ान्नकक और सोजाकक - रात के समय एक गाँव से दूसरे गाँव में उड़कर यह बीमारी फैला रहे हैं। अज़्टेक इसका दोष टेज़्काट्लिपोका और ज़िपीटोटेक देवताओं के मत्थे मढ़ते थे, या गोरों के काले जादू को दोषी ठहराते थे।
पुरोहितों और वैद्यों से परामर्श किया गया। उन्होंने प्रार्थनाएँ करने, शीतल स्नान करने, शरीर पर बिटूमन मलने और भौंरों को मसल कर उनको घावों पर चुपड़ने की सलाह दी। किसी चीज़ से कोई फ़ायदा नहीं हुआ। हज़ारों की संख्या में शव सड़कों पर सड़ते हुए पड़े थे,
और किसी में साहस नहीं था कि वह उनके पास जाकर शवों को दफ़नाता। कुछ ही दिनों के भीतर पूरे के पूरे परिवार तबाह हो गए, और अधिकारियों ने आदेश दे दिया कि मकानों को शवों पर गिरा दिया जाए। कुछ बस्तियों की आधी आबादी मौत के मुँह में समा गई।
सितम्बर 1520 में महामारी मैक्सिको की घाटी में पहुँच चुकी थी, और अक्टूबर में यह अज़्टेक राजधानी - 250,000 लोगों की आबादी वाले भव्य महानगर तेनोचतित्लान के द्वारों में प्रवेश कर गई। दो महीनों के भीतर अज़्टेक सम्राट क्विटलावक समेत कम-से-कम एक तिहाई आबादी ख़त्म हो गई।
जो मैक्सिको मार्च 1520 में स्पेनी जहाज़ी बेड़े के पहुँचने के समय 220 लाख लोगों का घर हुआ करता था, दिसम्बर तक वहाँ मात्र 140 लाख लोग ही अब जीवित थे। चेचक महज़ पहला आघात था।
जहाँ नए स्पेनी मालिक ख़ुद को समृद्ध करने और स्थानीय लोगों का शोषण करने में व्यस्त रहे, वहीं फ़्लू, ख़सरा और दूसरी संक्रामक बीमारियाँ एक के बाद एक मैक्सिको पर तब तक हमला करती रहीं, जब तक कि 1580 में उसकी आबादी घटकर 20 लाख से कम रह गई।
दो सदियों के बाद, 18 जनवरी 1778 को ब्रितानी खोजी कैप्टन जेम्स कुक हवाई पहुँचा। हवाई के द्वीपों पर 5 लाख लोगों की घनी बसावट थी, जो यूरोप और अमेरिका से पूरी तरह अलग होकर रहते आए थे, और नतीजतन कभी भी यूरोपीय और अमेरिकी बीमारियों के सम्पर्क में नहीं आए थे।
कैप्टन कुक और उसके आदमियों ने प्रथम फ़्लू, तपेदिक और सिफलिस के रोगाणुओं से हवाई का परिचय कराया। बाद के यूरोपीय आगन्तुकों ने मोतीझरा और चेचक को भी इसमें जोड़ दिया। 1853 तक हवाई में मात्र 70,000 लोग रोगों से जीवित बचे रह पाए थे।
महामारियों ने बीसवीं सदी में करोड़ों लोगों को मारना जारी रखा। जनवरी 1918 में उत्तरी फ़्रांस की खन्दकों में एक ख़ास तरह के विषाक्त रोग से सैनिकों का मरना शुरू हुआ, इसे ‘स्पेनिश फ़्लू’ का नाम दिया गया।
युद्ध का वह मोर्चा दुनिया के उस समय के सर्वाधिक कारगर वैश्विक आपूर्ति नेटवर्क का अन्तिम सिरा था। ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, हिन्दुस्तान और ऑस्ट्रेलिया से लगातार आदमियों और युद्ध की सामग्री की आपूर्ति जारी थी।
मध्य-पूर्व से तेल, अर्जेंटीना से अनाज और गोमांस, मलाया से रबर और कांगो से ताँबा भेजा जा रहा था। बदले में उन सबको ‘स्पेनिश फ़्लू’ मिला। कुछ ही महीनों के भीतर आधा अरब लोग यानी दुनिया की कुल आबादी के एक तिहाई लोग इस विषाणु की चपेट में आ गए।
हिन्दुस्तान में इसने 5 प्रतिशत आबादी (150 लाख लोगों) को मार डाला। ताहिती के द्वीप पर 14 प्रतिशत लोग मारे गए। सामोआ में 20 प्रतिशत। कांगो की ताँबे की खदानों में हर पाँच में से एक मज़दूर मर गया।
कुल मिलाकर इस महामारी ने एक साल से भी कम के समय में 5 करोड़ से 10 करोड़ के बीच लोगों की जान ले ली। प्रथम विश्वयुद्ध में 1914 से 1918 के बीच 4 करोड़ लोगों की जान चली गई थी।
जैवप्रौद्योगिकी हमें बैक्टीरिया और वाइरसों को पराजित करने में सक्षम बनाती है, लेकिन इसी के साथ-साथ वह स्वयं मनुष्यों को अपूर्व ख़तरे में भी बदलती है। जो साधन डॉक्टरों को नई बीमारियों को तत्काल पहचानने और उनका इलाज़ करने में सक्षम बनाते हैं।
वही साधन सेनाओं और आतंकवादियों को और भी भयानक बीमारियाँ और क़यामत लाने वाले रोगाणुओं को गढ़ने में भी सक्षम बना सकते हैं। इसलिए इस बात की पूरी सम्भावना है कि बड़ी महामारियाँ मानव जाति को केवल उसी दशा में ख़तरे में डालना जारी रखेंगी।
जबकि स्वयं मानव जाति किसी क्रूर विचारधारा की चाकरी की ख़ातिर उनको पैदा करेगी। जिस युग में मानव जाति प्राकृतिक महामारियों के समक्ष असहाय हुआ करती थी, वह युग शायद बीत चुका है, लेकिन मुमकिन है हमें उसकी याद आए।
साभार- होमो डेयस
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