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जलियाँवाला बाग सुनते ही आज भी हर सच्चे भारतीय की आत्मा सिहर उठती है और लहू खौल उठता है..
आइए बात करते हैं उस अमर बलिदानी की जिसने इस जघन्य हत्याकांड का प्रतिशोध लेने के लिए 21साल प्रतीक्षा की..
#उधम_सिंह
आगे बढ़ने से पहले जानने योग्य बात यह है कि उधम सिंह द्वारा प्रतिशोध की कार्यवाही पर चाचा जी और बापू जी की प्रतिक्रिया क्या रही..


उधमसिंह के इस कार्रवाई को अधिकांश भारतीयों ने अंग्रेजों के अत्याचारों पर एक प्रतिक्रिया ही माना किंतु भारत के तथाकथित कर्ताधर्ताओं ने इसकी भर्त्सना की।
बापू ने इसे पागलपन बताते हुए कहा कि"इस अतिरेक से मुझे बहुत कष्ट पहुँचा है और मैं इसे पागलपन समझता हूँ।"
"मुझे आशा है कि इस कृत्य से राजनैतिक निर्णय प्रभावित नहीं होगा।"
चाचा ने नेशनल हेराल्ड में लिखा,"इस हत्या पर दुख है किंतु पूरी आशा है कि इस से भारत के राजनीतिक भविष्य पर कोई दूरगामी प्रभाव नहीं पड़ेगा।"
ये दोनों ही वक्तव्य 15/3/1940 के 'नेशनल हेराल्ड' और 'हरिजन'में प्रकाशित हुए।
आज ही के दिन 1940 में सरदार उधम सिंह को लंदन की पेंटनविले जेल में फांसी दी गई।

उधम सिंह का जन्म 26/12/1899 को पंजाब के गाँव उपाली में हुआ जहाँ उनके किसान पिता सरदार टहल सिंह उपाली रेल्वे क्रॉसिंग पर चौकीदार का काम करते थे।उनके बचपन का नाम शेर सिंह था।
पिता की मृत्यु के बाद शेर सिंह और उनके बड़े भाई मुक्ता सिंह अमृतसर के केन्द्रीय खालसा अनाथालय में रहने लगे।
अनाथालय में शेर सिंह ने सिख धर्म की दीक्षा ली जिसके बाद उन्हें उधम सिंह नाम दिया गया।
1918 में मैट्रिक पास करने के बाद 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया।
इसी साल हुए जलियाँवाला नरसंहार ने उधम सिंह के मन पर गहरी चोट पहुँचाई और उनके जीवन की दिशा ही बदल दी।
उन्होंने निर्दोष मारे गए लोगों का बदला लेने की ठानी।
उन्हें क्रांति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाले सरदार भगतसिंह थे।
1924 में उधमसिंह गदर पार्टी से जुड़े।
ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने के लिए प्रवासी भारतीयों को संगठित करने के उद्देश्य से उधमसिंह अफ्रीका,अमेरिका और यूरोप की यात्रा पर गए।
1927 में वे गोला-बारूद लेकर भारत लौटे। उनके साथ 25 नौजवान भी भारत आए देश सेवा के लिए।
जल्द ही उन्हें बंदी बना लिया गया।
आरोप?
उनके पास अवैध हथियार और गदर पार्टी का प्रतिबंधित परचा गदर-इ-गूंज (क्रांति की आवाज़) का बरामद होना। उन पर मुकदमा चला और पाँच साल की कैद हुई।
1931 में जेल से बाहर आने पर उनकी गतिविधियों पर नजर रखी जाने लगी।
पंजाब पुलिस की नज़रों से बच कर वे कश्मीर पहुँचे और वहाँ से जर्मनी, फिर 1934 में लंदन में इंजीनियर बन कर काम किया और माइकल ओ डायर की हत्या की योजना बनाई।
पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर ने जलियाँ वाला बाग में ब्रिगेडियर जनरल डायर के की कार्रवाई का अनुमोदन किया था।
13 मार्च 1940 को माईकल ओ डायर केक्सटन हाल, लंदन में ईस्ट इंडिया संगठन और सेंट्रल एशियन सोसायटी की संयुक्त बैठक को संबोधित करने वाले थे।
उधम सिंह ने अपनी जैकेट में एक पिस्तौल छुपाई और हाल में एक सीट पर बैठ गए ।
बैठक की समाप्ति पर मंच की और बढ़ते हुए डायर पर दो गोलियाँ चलाईं जो उनके ह्रदय और दाएं फेफड़े को चीरते हुए निकल गई और उनकी वहीं मृत्यु हो गई।
13 मार्च 1940 को दिए अपने वक्तव्य में उधम सिंह ने कहा:
"मैंने गोली विरोध प्रदर्शन के लिए चलाई। मैंने अंग्रेजी साम्राज्यवाद के चलते भारत के लोगों को भूख से मरते देखा है। ये मैंने किया है और पिस्तौल 3 या 4 बार चलाई और मुझे इस पर पछतावा नहीं है।"

"यह मेरा कर्तव्य था। अपने देश के लिए यह किया और मुझे सजा का भय नहीं है।
दस,बीस और पचास साल की जेल हो या फाँसी..मैंने अपना कर्तव्य निभाया।"
4 अप्रैल को कोर्ट में भारत के इस शेर ने कहा..
"मुझे परवाह नहीं है, मैं मरने से नहीं डरता।
बुढ़े होने तक प्रतीक्षा करने का क्या अर्थ है?
मरना तो जवानी में ही चाहिए..वही सही है और मैं वही कर रहा हूँ।
उन्होंने कहा कि
मैं अपने देश के लिए जान दे रहा हूँ ।
मैंने ऐसा किया क्यों कि मेरी उससे दुश्मनी थी।"
"वो इसी योग्य था।
और मातृभूमि के लिए प्राण देने से बढ़ कर कोई सम्मान क्या होगा।"
फिर न्यायाधीश की ओर देख कर उन्होंने कहा,"ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो। आप कहते हैं कि भारत में शांति नहीं है। हमारे यहाँ सिर्फ़ गुलामी है।"
उधम सिंह ने इस प्रकार बहुत सारी खरी बातें वहाँ कहीं।
उनके वहाँ से जाते ही जज ने संवाददाताओं से कहा,"मैं प्रेस को आरोपी के वक्तव्य की रिपोर्टिंग ना करने का आदेश देता हूँ।"
यह वक्तव्य 1996 में सार्वजनिक किया गया।
उन्हें हत्या का दोषी मानते हुए मृत्यु दंड दिया गया और 31/7/1940 को फाँसी दे दी गई।
उधम सिंह का शव 1974 में कब्र से निकाला गया और विधायक साधु सिंह थिंड के प्रयत्नों से उन्हीं के साथ भारत भेजा गया।
उनका अंतिम संस्कार अपनी जन्म भूमि पर किया गया और सतलुज नदी में उनकी अस्थियां प्रवाहित की गईं।
चिता की कुछ राख जो बचाई गई अब जलियाँवाला बाग में एक मर्तबान में रखी हुई है।

बस इतना ही।
@Sheshapatangi की ट्वीट श्रँखला का हिंदी अनुवाद।
वंदेमातरम..🙏
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