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#जय_जिनेन्द्र #जिनवाणी #Jainism
पूज्य पुरुषों की वंदना-स्तुति हमें पूज्य बनने की प्रेरणा देती है। इतना ही नहीं उनके मार्ग पर चलकर हम उन जैसा भी बन सकते हैं। हमारे आराध्य पूज्य नवदेवता हैं-
अरिहन्त जी
सिद्ध जी
आचार्य जी
उपाध्याय जी
साधु जी
जिन धर्म
जिन अागम
जिन चेत्य
जिन चैत्यालय
धर्म स्थान में जिनका पद महान होता है, जो गुणों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं उन्हें परमेष्ठी कहते हैं।

जीव जिस पद में स्थित होकर आत्म - साधना करते हुए अन्तत: मोक्ष-सुख को प्राप्त करते हैं उस पद को परम पद कहा जाता है।

परमेष्ठी ५ हैं  - अरिहंत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय और साधु परमेष्ठी।
अरिहन्त परमेष्ठी का स्वरूप -

जिन्होंने चार घातिया कर्मों को नष्ट कर दिया हैं तथा जो अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, अनंत सुख रूप अनंत चतुष्टय से युक्त हैं। समवशरण में विराजमान होकर दिव्यध्वनि के द्वारा सब जीवों को कल्याणकारी उपदेश देते हैं, वे अरिहंत परमेष्ठी कहलाते हैं।
सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप - जो ज्ञानावरणआदि आठ कर्मो से रहित है एवं क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक वीर्य सुक्ष्मत्व अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व इन आठ गुणों से युक्त हैं। शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं।
आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप - जो दीक्षा-शिक्षा एवं प्रायश्चित आदि देकर भव्य जीवों को मोक्षमार्ग में लगाते हैं, संघ के संग्रह (एकत्रित करना), निग्रह (नियंत्रण करना) में कुशल होते हैं आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं।

(भव्य जीव - सम्यक दृष्टि जो मोक्ष मार्गी है
संघ - साधुओं का संघ)
उपाध्याय परमेष्ठी - जो मुनि शिष्यों एवं भव्य जीवों को निरन्तर दया, धर्म का उपदेश देते हैं तथा सिद्धान्त आदि ग्रन्थों का ज्ञान करवाते हैं।

साधु परमेष्ठी - जो ज्ञान, ध्यान, तप में लीन रहते हैं, आरंभ परिग्रह से रहित पूर्ण दिगम्बर मुद्राधारी साधु परमेष्ठी कहलाते हैं।
जिन धर्म का स्वरूप - जो संसार के दुखों से छुड़ाकर उत्तम सुख मोक्ष मे पहुंचा देता है वह जिनेन्द्र देव द्वारा कहा हुआ जिनधर्म है। वह उत्तम क्षमादि रूप, अहिंसादि रूप, वस्तु के स्वभावरूप एवं रत्नत्रय रूप है।

जिनागम का स्वरूप - जिनेन्द्र प्रभु द्वारा कथित वीतराग वाणी को जिनागम ..
कहते हैं जिनागम वस्तु स्वरूप का पूर्ण ज्ञान प्रतिपादित करता है इसे जिनवाणी, सच्चा शास्त्र, श्रुत देव, जैन सिद्धान्त ग्रन्थ भी कहते हैं।

जिन चैत्य का स्वरूप - साक्षात् तीर्थकर, केवली भगवान के अभाव में धातुपाषाण आदि से तद्रूप जो रचना की जाती है उसे चैत्य कहते हैं।
जिन चैत्य को जिन बिम्ब अथवा जिन प्रतिमा भी कहते हैं।

जिन चैत्यालय का स्वरूप - जिन चैत्य जहाँ विराजमान होते हैं उसे चैत्यालय कहते हैं। जिन चैत्यालय को समवशरण, मंदिर, जिनगृह, देवालय इत्यादि अनेक शुभ नामों से जाना जाता है।
जिन चैत्य-चैत्यालय मनुष्य एवं देवों द्वारा निर्मित (कृत्रिम) तथा किसी के द्वारा नहीं बनाये गये (अकृत्रिम) दोनों प्रकार के होते हैं। नन्दीश्वर द्वीप आदि अनेक स्थानों पर अकृत्रिम चैत्य-चैत्यालय हैं।

(स्वाध्याय, आचार्य विद्यासागर नेट से)
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