योग के सन्दर्भ में नाड़ी वह मार्ग है जिससे होकर शरीर की ऊर्जा प्रवाहित होती है। योग में यह माना जाता है कि नाडियाँ शरीर में स्थित नाड़ीचक्रों को जोड़तीं है।
कई योग ग्रंथ १० नाड़ियों को प्रमुख मानते हैं[1]। 1/ hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8…
इनमें भी तीन का उल्लेख बार-बार मिलता है - ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। ये तीनों मेरुदण्ड से जुड़े हैं। इसके आलावे गांधारी - बाईं आँख से, हस्तिजिह्वा दाहिनी आँख से, पूषा दाहिने कान से, यशस्विनी बाँए कान से, अलंबुषा मुख से, कुहू जननांगों से तथा शंखिनी गुदा से जुड़ी होती है।
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अन्य उपनिषद १४-१९ मुख्य नाड़ियों का वर्णन करते हैं।
ईड़ा ऋणात्मक ऊर्जा का वाह करती है। शिव स्वरोदय, ईड़ा द्वारा उत्पादित ऊर्जा को चन्द्रमा के सदृश्य मानता है अतः इसे चन्द्रनाड़ी भी कहा जाता है। इसकी प्रकृति शीतल, विश्रामदायक और चित्त को अंतर्मुखी करनेवाली मानी जाती है।
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पिंगला धनात्मक ऊर्जा का संचार करती है। इसको सूर्यनाड़ी भी कहा जाता है। यह शरीर में जोश, श्रमशक्ति का वहन करती है और चेतना को बहिर्मुखी बनाती है।
पिंगला का उद्गम मूलाधार के दाहिने भाग से होता है जबकि ईडां का बाएँ भाग से।
B. ईड़ा नाड़ी C. सुषुम्ना नाड़ी D. पिंगला नाड़ी 4/
नाड़ियों में इंगला, पिगला और सुषुम्ना तीन प्रधान हैं. इनमें भी सुषुम्ना सबसे मुख्य है। अधिकतर लोग इड़ा और पिंगला में जीते और मरते हैं और मध्य स्थान सुषुम्ना निष्क्रिय बना रहता है। जब ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, असल में तभी से यौगिक जीवन शुरू होता है।
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प्रतिदिन प्रात:काल सूर्योदय के समय से ढाई-ढाई घड़ी के हिसाब से एक-एक नासिका से श्वास चलता है। इस प्रकार रात-दिन में 12 बार बाईं और 12 बार दाहिनी नासिका से क्रमानुसार श्वास चलता है।
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किस दिन किस नासिका से पहले श्वासक्रिया होती है, इसका एक निर्दिष्ट नियम है, यथा-
आदौ चन्द्र: सिते पक्षे भास्करस्तु सितेतरे।
प्रतिपत्तो दिनान्याहुस्त्रीणि त्रीणि क्रमोदये।।
(पवनविजवस्वरोदय)
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शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से 3-3 दिन की बारी से चन्द्र अर्थात बाईं नासिका से तथा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से 3-3 दिन भी बारी से सूर्य नाड़ी अर्थात दाहिनी नासिका से पहले श्वास प्रवाहित होता है।
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अर्थात शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा- इन 9 दिनों में प्रात:काल सूर्योदय के पहले बाईं नासिका से तथा चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, दशमी, एकादशी, द्वादशी- इन 6 दिनों को प्रात:काल पहले दाहिनी नासिका से
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श्वास चलना प्रारंभ होता है और वह ढाई घड़ी तक रहता है। उसके बाद दूसरी नासिका से श्वास जारी होता है।
कृष्णपक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या- इन 9 दिनों में सूर्योदय के समय पहले दाहिनी नासिका से तथा चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी,
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दशमी, एकादशी, द्वादशी- इन 6 दिनों में सूर्य के उदयकाल में पहले बाईं नासिका से श्वास आरंभ होता है और ढाई घड़ी के बाद दूसरी नासिका से चलता है। इस प्रकार नियमपूर्वक ढाई-ढाई घड़ी तक एक-एक नासिका से श्वास चलता है।
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यही मनुष्य जीवन में श्वास की गति का स्वाभाविक नियम है।
वहेत्तावद् घटीमध्ये पश्चतत्त्वानि निर्दिशेत्।
प्रतिदिन रात-दिन की 60 घड़ियों में ढाई-ढाई घड़ी के हिसाब से एक-एक नासिका से निर्दिष्ट क्रम से श्वास चलने के समय क्रमश: पंचतत्वों का उदय होता है।
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इस श्वास-प्रश्वास की गति को समझकर कार्य करने पर शरीर स्वस्थ रहता है और मनुष्य दीर्घजीवी होता है, फलस्वरूप सांसारिक, वैषयिक सब कार्यों में सफलता मिलने के कारण सुखपूर्वक संसार यात्रा पूरी होती है।
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वाम नासिका का श्वासफल :
जिस समय इडा नाड़ी से अर्थात बाईं नासिका से श्वास चलता हो, उस समय स्थिर कर्मों को करना चाहिए, जैसे अलंकार धारण, दूर की यात्रा, आश्रम में प्रवेश, राज मंदिर तथा महल बनाना तथा द्रव्यादि को ग्रहण करना।
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तालाब, कुआं आदि जलाशय तथा देवस्तंभ आदि की प्रतिष्ठा करना। इसी समय यात्रा, दान, विवाह, नया कपड़ा पहनना, शांतिकर्म, पौष्टिक कर्म, दिव्यौषध सेवन, रसायन कार्य, प्रभु दर्शन, मित्रता स्थापन एवं बाहर जाना आदि शुभ कार्य करने चाहिए।
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बाईं नाक से श्वास चलने के समय शुभ कार्य करने पर उन सब कार्यों में सिद्धि मिलती है, परंतु वायु, अग्नि और आकाश तत्व उदय के समय उक्त कार्य नहीं करने चाहिए।
दक्षिण नासिका का श्वासफल :
जिस समय पिंगला नाड़ी अर्थात दाहिनी नाक से श्वास चलता हो, उस समय कठिन कर्म करने चाहिए,
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जैसे कठिन क्रूर विद्या का अध्ययन और अध्यापन, स्त्री संसर्ग, नौकादि आरोहण, तान्त्रिकमतानुसार वीरमंत्रादिसम्मत उपासना, वैरी को दंड, शास्त्राभ्यास, गमन, पशु विक्रय, ईंट, पत्थर, काठ तथा रत्नादि का घिसना और छीलना, संगीत अभ्यास, यंत्र-तंत्र बनाना, किले और पहाड़ पर चढ़ना,
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हाथी, घोड़ा तथा रथ आदि की सवारी सीखना, व्यायाम, षट्कर्मसाधन, यक्षिणी, बेताल तथा भूतादिसाधन, औषधसेवन, लिपिलेखन, दान, क्रय-विक्रय, युद्ध, भोग, राजदर्शन, स्नानाहार आदि।
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सुषुम्ना का श्वासफल :
दोनों नाकों से श्वास चलने के समय किसी प्रकार का शुभ या अशुभ कार्य नहीं करना चाहिए। उस समय कोई भी काम करने से वह निष्फल ही होगा। उस समय योगाभ्यास और ध्यान-धारणादि के द्वारा केवल भगवान को स्मरण करना उचित है।
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सुषुम्ना नाड़ी से श्वास चलने के समय किसी को भी शाप या वर प्रदान करने पर वह सफल होता है।
श्वास-प्रश्वास की गति जानकर, तत्वज्ञान के अनुसार, तिथि-नक्षत्र के अनुसार, ठीक-ठीक नियमपूर्वक सब कर्मों को करने पर आशाभंगजनित मनस्ताप नहीं भोगना पड़ता।
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- कल्याण के दसवें वर्ष का विशेषांक योगांक से साभार
(लेखक- परिव्राजकाचार्य परमहंस श्रीमत्स्वामी निगमानन्दजी सरस्वती)
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Context for the abv tweets was the following tweet.
"वस्तुतः जैसे आजकल हिन्दुओं के मेलों में ईसाई प्रचारक स्त्री-पुरुष खड़े होकर लोगों को बटोरने के लिए श्रीराम एवं श्रीकृष्ण का गुणगान करते हैं और जब लोग इकट्ठे हो जाते हैं तब उन्हें यीशु की महिमा बताकर पुस्तक बाँटकर हिन्दु धर्म की निन्दा करके उन्हें ईसाई बनने की प्रेरणा देते हैं,1/
ठीक वैसे ही श्रीराम की लोकप्रियता के कारण जैन श्रीराम की चर्चा करते हैं, परन्तु उन्हें ईश्वर न मानकर लोगों को यह बताते हैं कि अन्त में दुःखी होकर राम सोलह हजार राजाओं एवं सीता आदि रानियों के साथ जैनी हो गये।
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जैनमत में सीताराम परमेश्वर नहीं, किन्तु एक णमोकार मंत्र जपनेवाले जैनी है। साक्षात् परब्रह्म, परमेश्वर को दुःखी मनुष्य मानकर उनका अवैदिक, निरीश्वरवादी जैन मत में दीक्षित होने का वर्णन करना उनका कुछ कम अपमान नहीं है।
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"बिठा अकेली पुष्पक में, रावण ले जाया करता था।
निर्जन उपवन में प्रमोद से, जी बहलाया करता था।
विद्या यन्त्र मन्त्र से जिसने, लिए देव देवी भी कील ।
क्या सम्भव है उसके आगे, रहा अखण्डित शील ।।
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हाय कलङ्कित हो रहा, सूर्यवंश अभिराम ।
दुराचारिणी के बने, रघुकुल राम गुलाम ।।"
पत्नी के पीछे पागल बन, राघव ने लोपी कुलकार ।
महासती का जामा पहने, कभी न पतिता छिप सकतो।
सती साध्वी और रानियां, बैठे बैठे रोती हैं।
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उल्टा युग आया देखो, कुलटा पटरानी होती है ।
पर वे देवी रावण के, चरणों को पूजा करती।
इन पापाचारों से कैसे, टिक पायेगी यह धरती ॥
देखो भाई दीख रहे हैं, कलियुग के आसार रे।
राजघराने में भी पलते, ऐसे पापाचार रे ।। 3/
Swami Karpatri Ji answers the reason behind विकृत रामायण of Jainism.
"रामचरित्र की अत्यन्त लोकप्रियता देखकर जैन तीर्थङ्करों ने यह सोचा होगा कि यदि जैन जनता वाल्मीकिरामायण की ओर आकर्षित हुई तो स्वभावतः उनकी प्रीति वेद एवं ईश्वर तथा+ 1/3
It’s as stupid question as asking how would I prove Yishu Bhagvatam wrong. Simple, anything which differs from Vyasa’s Bhagvatam is not part of Bhagvatam.
I never asked or expect a non-Vedic to accept or believe Vedic.
My point is that Itihasa texts like Ramayana and Mahabharata are the part Vedic text architecture and they propound the principles of Vedas to the layman in story form.
Now, why some non Vedics would call their story collection Ramayana or Mahabharata when neither stories are same as the original nor the principles/Siddhanta distilled through the stories are at contradiction with Vedas?
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Oh!! And you think I didn’t know that? Ignoring first two lines.
Exactly for that reason I called Jain Ramayanas Yishu Bhagvatam of their time.If you have parallel history and separate scriptures then why do you need to insert Ramayana into it which is essentially a Hindu thing?