एक बार जब हस्तिनापुर की राज्यसभा में युधिष्ठिर और दुर्योधन में से भावी युवराज के चयन का प्रश्न चल रहा था तब विदुर ने दोनों की न्यायिक क्षमता जांचने का सुझाव दिया। राज्यसभा में चार अपराधी बुलाये गए जिन पर कि हत्या का आरोप सिद्ध हो चुका था।
बारी थी सजा निर्धारित करने की। पहला नंबर दुर्योधन का आया। दुर्योधन ने तुरंत चारों को मृत्युदंड सुना दिया। फिर युधिष्ठिर का नंबर आया। युधिष्ठिर ने पहले चारों का वर्ण पूछा। फिर वर्ण के हिसाब से शूद्र को 4 साल, वैश्य को 8 साल, क्षत्रिय को 16 साल की सजा दी।
और ब्राह्मण को अपनी सजा स्वयं निर्धारित करने के लिए कहा। लोकतंत्र में इस कहानी का काफी महत्व है।
जब मैं UPSC की कोचिंग कर रहा था तो इंटरव्यू गाइडेंस के लिए UPSC के एक रिटायर्ड मेंबर लेक्चर के लिए आये थे।
उन्होंने बताया कि इंटरव्यू में चाहे जो बोलें मगर डेमोक्रेसी के खिलाफ कुछ न बोलें। आप इंटरव्यू में लोकतंत्र में कमियां नहीं निकाल सकते। जो पहली चीज मेरे दिमाग में चमकी वो ये कि तानाशाह भी तो यही करते हैं। मतलब क्या हम लोकतंत्र नामक तानाशाही में रहते हैं?
और असली समस्या ये हैं कि हमारा लोकतंत्र कोई शुद्ध लोकतंत्र नहीं है। ये तो प्रतिनिधित्व लोकतंत्र है। इसमें तो जनता प्रतिनिधि चुनती है, जो कि नेता कहलाते हैं। और सिविल सर्वेन्ट्स सेलेक्ट करने वालों का कहना है कि आप इसमें भी खामियां नहीं निकाल सकते।
मतलब जो भी IAS/IPS चुने जा रहे हैं वे पहले से ही नेताओं को सर्वेसर्वा मानने के लिए प्रशिक्षित हैं।अगर ऐसा है तो जोहो रहा है वो बिलकुल सही हो रहा है।नेता चाहे बीच कोरोना में चुनावी रैली करे, या किसी के मुंह पे थूक दे, वो गलत हो ही नहीं सकता, विशेष रूप से तब जब वो सत्ता पक्ष से हो।
क्यूंकि सही गलत का निर्णय तो उन्ही सिविलसेवा अधिकारियों के पास हैं न जो पहले से ही लोकतंत्र द्वारा चुने हुए नेताओं के भगवान् मानने के लिए प्रोग्राम्ड हैं। वहीँ अगर बैंक में कैशियर दो मिनट के लिए भीड़ ख़तम होने के बाद, मास्क नीचे करके नाक खुजा ले तो DM साहब आके जुर्माना ठोक देंगे।
चाहे वही DM साहब बाद में खुले आम बिना मास्क के मीटिंग करते नजर आएं। इस हिसाब से तो अगर आंदोलनकारी किसानों के ऊपर COVID गाइडलाइन्स तोड़ने के लिए FIR होती है तो कोई गलत नहीं होती। क्यूंकि यहां अपराध का निर्णय इस बात से होता है कि अपराध किया किसने हैं।
हस्तिनापुर वाली कहानी में तो ब्राह्मण ने, जो की उस समय नीति निर्धारक होते थे, स्वयं को मृत्युदंड दिया था, मगर आधुनिक नीति निर्धारक यानी नेता खुद को क्या सजा देते हैं ये किसी से छुपा नहीं है।
वैसे तो संविधान में आर्टिकल 14 से 16 तक समानता का गीत खूब ही गया गया है लेकिन जब बात लोकतंत्र की आती है तो संविधान भी हार जाता है। क्यूंकि संविधान खुद अपनी प्रस्तावना में स्वयं को जनता के अधीन बताता है। और जनता मतलब लोकतंत्र, और लोकतंत्र मतलब नेता।
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ये कौनसा देश है जो आगे बढ़ रहा है? कहीं अपनावाला देश तो नहीं? पर हमको तो नहीं दिखाई देता। लेकिन नेता लोग तो कह रहे हैं कि आगे बढ़ रहा है। और लोकतन्त्र कहता है नेता बहुत समझदार होते हैं। फिर तो सही ही बोल रहे होंगे। मतलब देश तो आगे बढ़ रहा है।
बस हमको पता नहीं चल रहा।कहीं ऐसा तो नहीं तो देश चुपचाप आगे बढ़ रहा हो, किसी को बिना बताये। हो सकता हैकि जब रात को हम सो रहे हों तब देश चुपके से आगे बढ़ जाता हो और सुबह हम लोगों के मजे लेनेके लिए रुक जाता हो।नेताओं को पता लग ही जाता होगा। क्यूंकि वे तो बेचारे रात दिन काम करते हैं।
पब्लिक ही है जो आलसियों की तरह रात को सो जाती है। पब्लिक सोती है तभी तो देश आगे बढ़ता है। मतलब पब्लिक ही देश के आगे बढ़ने में बाधक है। या फिर ये भी हो सकता है कि देश हमको बिना साथ लिए ही आगे बढ़ रहा है। नेता भी आगे बढ़ रहे हैं, इसीलिए उनको पता है।
सारे मंत्री भ्रष्ट थे, और आपस में लड़ रहे थे। जनता लुट रही थी। भ्रष्टाचार के कारण राज्य के व्यापारी भी दुखी थे। राजकीय घाटे को पूरा करने के लिए राजा ने व्यापारियों पर दुगुने-चौगुने कर लगा रखे थे। ऊपर से मंत्री भी बेचारे व्यापारियों के पास रंगदारी वसूलने पहुँच जाते।
व्यापारी बेचारे क्या करते, वे अपना घाटा जनता से पूरा करते। जनता भी त्रस्त थी। व्यापारियों के ऊपर जनता का विश्वास टूटने लगा। यहां राजा और मंत्रियों की पैसे की भूख खत्म ही नहीं हो रही थी।
2011 में सुनील कुमार नाम के एक श्रीमान ने कौन बनेगा करोड़पति में 5 करोड़ जीत कर इतिहास रचा था। पहली बार कोई इतनी बड़ी रकम जीता था। करोड़पति बनकर सुनील जी बड़े खुश थे। वे लोकल सेलिब्रिटी बन चुके थे।
लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, धन के साथ अहंकार आ गया, और जैसे ही अहंकार आया, बुद्धि चली गयी। उन्हें अय्याशी की, घूमने फिरने की, नशे की आदत लग गयी। उनके चारों ओर चापलूसों का जमघट लग गया। चापलूसों की बातों में आकर उन्होंने अपने पैसे को उलटी सीढ़ी जगह निवेश कर दिया।
दानवीर होने का भी चस्का लग गया, क्यूंकि इससे तारीफें मिलती थी, मीडिया में नाम होता था। उनके पुराने साथियों ने, जो कि उनके बुरे दिनों में उनके साथ थे, जिन्होनें उनको KBC जीतने लायक बनाया था, जिनमें कि उनकी पत्नी भी शामिल थीं, उनको खूब समझाने की कोशिश की।
वैसे तो पिछले 30 साल में लगभग हर सरकार ने बैंकरों को कोल्हू के बैल की तरह जोता है। परन्तु इस सरकार ने तो बैंकरों को गरीब की जोरू ही बना के रख दिया है।
मतलब सड़क छाप गुंडे से लेकर ऐरे-गैर DM तक कोई भी बैंकरों की औकात नाप के चला जाता है। प्रधानसेवकजी के दौरे से लेकर पंचायत के चुनाव तक के लिए छुट्टी के दिन बैंक खुलवा दिए जा रहे हैं। टारगेट पूरे करने के चक्कर में संडे की छुट्टी ईद का चाँद हो गयी है।
ऐसा लगता है कि इस सरकार में बैठे लोगों की बैंकरों से कोई पुरानी खुन्नस थी जो कि अब धीरे धीरे निकल रही है। पहले जीरो बैलेंस वाले जन-धन खाते खुलवाए। लोगों को लगा कि शायद खाते में 15 लाख आने वाले हैं इसलिए बैंकों के बाहर भीड़ लगा के एक-एक आदमी ने छह-छह जीरो बैलेंस खाते खुलवा लिए।
1. Even if we accept your claim, it doesn't make the data wrong. 2. There is no basis for your 70% inactive customer claim. 3. Customers who are less active, are the most difficult to deal with.
You must have remembered the Assam Plantation workers case of inoperative accounts at SBI for which FM, without even having basic knowledge of RBI KYC guidelines, publicly abused SBI chairman, and revealed her long time prejudice against SBI as "Heartless Bank".
4. Every 3 years zero balance inactive customers are purged out by the system, of course, after giving notices three times, the making them inoperative, then freezing their accounts, and lastly closing after taking necessary approval.
I accept that I shouldn't have out-rightly expressed Trade-Union and political parties' financial linkages. As per law, trade unions cannot share there funds with the political parties. But since when laws have been followed strictly in India, especially by the people in power?
1. 46% of the funding to political parties is unaccounted. 2. Accounting of Trade Unions is highly obscure. 3. A huge amount is received by trade unions, that too, on regular and constant basis, however, no concrete utilization -
of that money can be seen on the ground. 4. It is not easy to digest the claim that so much money is spent on the maintenance of the trade unions. Either it is usurped by the union officials as their private asset or there is some secret tunnel out.