I accept that I shouldn't have out-rightly expressed Trade-Union and political parties' financial linkages. As per law, trade unions cannot share there funds with the political parties. But since when laws have been followed strictly in India, especially by the people in power?
1. 46% of the funding to political parties is unaccounted. 2. Accounting of Trade Unions is highly obscure. 3. A huge amount is received by trade unions, that too, on regular and constant basis, however, no concrete utilization -
of that money can be seen on the ground. 4. It is not easy to digest the claim that so much money is spent on the maintenance of the trade unions. Either it is usurped by the union officials as their private asset or there is some secret tunnel out.
5. No trade Union will take the risk to openly declare that they share their funds with their parent political party. 6. Even is they do not directly share their funds with their parent political parties, what stops them to fund them in some other ways.
Like, funding the expenses of tours of the political leaders. We have many times seen trade unions sharing stage with the political leaders.
7. The largest national political parties get about Rs. 1000 Cr. funding in an year. Then for what exactly, bank unions
are asking levy amounting to 200-300 crores, besides regular subscription fee.
8. Why the activities of unions are so secret? Every now and then, Union election process is questioned. Union leaders are considered holy cow.
Therefore, I have clear doubt that the union money is being used for political activities. May be I am wrong, but I need to ask it. Even if I am wrong, I should know where exactly my money is being used.
• • •
Missing some Tweet in this thread? You can try to
force a refresh
वैसे तो पिछले 30 साल में लगभग हर सरकार ने बैंकरों को कोल्हू के बैल की तरह जोता है। परन्तु इस सरकार ने तो बैंकरों को गरीब की जोरू ही बना के रख दिया है।
मतलब सड़क छाप गुंडे से लेकर ऐरे-गैर DM तक कोई भी बैंकरों की औकात नाप के चला जाता है। प्रधानसेवकजी के दौरे से लेकर पंचायत के चुनाव तक के लिए छुट्टी के दिन बैंक खुलवा दिए जा रहे हैं। टारगेट पूरे करने के चक्कर में संडे की छुट्टी ईद का चाँद हो गयी है।
ऐसा लगता है कि इस सरकार में बैठे लोगों की बैंकरों से कोई पुरानी खुन्नस थी जो कि अब धीरे धीरे निकल रही है। पहले जीरो बैलेंस वाले जन-धन खाते खुलवाए। लोगों को लगा कि शायद खाते में 15 लाख आने वाले हैं इसलिए बैंकों के बाहर भीड़ लगा के एक-एक आदमी ने छह-छह जीरो बैलेंस खाते खुलवा लिए।
1. Even if we accept your claim, it doesn't make the data wrong. 2. There is no basis for your 70% inactive customer claim. 3. Customers who are less active, are the most difficult to deal with.
You must have remembered the Assam Plantation workers case of inoperative accounts at SBI for which FM, without even having basic knowledge of RBI KYC guidelines, publicly abused SBI chairman, and revealed her long time prejudice against SBI as "Heartless Bank".
4. Every 3 years zero balance inactive customers are purged out by the system, of course, after giving notices three times, the making them inoperative, then freezing their accounts, and lastly closing after taking necessary approval.
अब आते हैं बड़ी कहानी यानि वीडियोकॉन वाले केस पर। चंदा कोचर 1984 में ICICI से मैनेजमेंट ट्रेनी के तौर पर जुड़ीं। 1994 में ICICI बैंक की स्थापना में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा।
वहाँ से तरक्की करते हुए वे 2006 में ICICI बैंक की DMD और 2009 में CEO बनी। दिसंबर 2008 में चंदा कोचर के पति श्री दीपक कोचर और वीडियोकॉन के मालिक श्री वेणुगोपाल धूत ने मिलकर NuPower Renewables Pvt Ltd (NRPL) नाम की कंपनी बनाई।
जनवरी 2009 में धूत ने NRPL में अपनी पूरी हिस्सेदारी दीपक कोचर को मात्र ढाई लाख में बेच दी। इस कंपनी को धूत की सुप्रीम एनर्जी नाम की कंपनी ने मार्च 2010 में 64 करोड़ का लोन दिया। मार्च 2010 के अंत में सुप्रीम एनर्जी ने NRPL में 95% हिस्सेदारी खरीद ली। indianexpress.com/article/busine…
चूंकि ICICI बड़ा बैंक है इसलिए इसकी कहानी भी काफी बड़ी है। इसे एक भाग में समेटना मुश्किल हो गया था। इसलिए इसे दो भागों में पेश कर रहा हूँ।
ICICI की गिनती देश के सबसे बड़े बैंकों में होती है। इस बैंक की सफलता को एक आदर्श के रूप में भी प्रस्तुत किया जाता रहा है। 1994 में स्थापित हुए इस बैंक को 2001 के बाद लगभग हर साल ही भारत के बेस्ट रिटेल बैंक का अवार्ड मिलता आ रहा है।
देश में 1998 में ही इंटरनेट बैंकिंग लाने वाले इस बैंक को टेक्नोलॉजी से लेकर कस्टमर सर्विस में कई अवार्ड मिले हैं। विशेषकर जब चंदा कोचर इसकी CEO थीं तब तो ICICI महिला सशक्तिकरण का प्रतीक बन चुका था।
भारतीय संस्कृति में अंधभक्ति वर्जित है। हमारे सभी धर्मशास्त्र, उपनिषद, वेद पुराण, स्मृतियों में ज्यादातर व्याख्या प्रश्नोत्तर रूप में ही की गयी है। लक्ष्मीजी ने विष्णुजी से, पार्वती ने शिव से, अर्जुन ने कृष्ण से हजारों सवाल पूछे। नचिकेता ने तो यमराज तक से सवाल पूछे थे।
उपनिषद का मतलब ही होता है कि गुरु के पास बैठना। अब पास बैठोगे तो सवाल भी पूछोगे ही। परन्तु आजकल जो वर्क कल्चर चल रहा है उसमें सवाल पूछना वर्जित है। आपको आँख बंद करके ऊपर वालों का हर आदेश मानना है। यही हाल यूनियन के साथ भी है।
हर महीने फीस काट ली जाती है मगर ये कभी नहीं पता चलता कि वो पैसा गया कहाँ? हमें ये भी नहीं पता कि यूनियन वाले करते क्या हैं। वेज सेटलमेंट हो गया लेकिन अभी तक किसी ने ये नहीं बताया कि हमारी प्रमुख मांगें क्यों नहीं मानी गयी।
महाभारत से एक बड़ी सीख ये मिलती है कि घर के मुद्दे अगर घर में ही निपटा लिए जाएँ तो बेहतर हैं। नहीं तो बाहर वाले उन मुद्दों कि आड़ में अपना उल्लू सीधा करने में लग जाते हैं।
शकुनि को भीष्म और हस्तिनापुर से बदला लेना था इसलिए उसने दुर्योधन को भड़काया। द्रोणाचार्य और द्रुपद ने आपस का हिसाब सेटल करने के लिए कौरव और पांडवों का साथ दिया। कर्ण और एकलव्य दोनों को अर्जुन से पर्सनल खुन्नस निकालनी थी।
यदुवंशी भी अपने अपने स्वार्थ के हिसाब से अपने अपने पसंदीदा पक्षों में बंट गए। ऐसा ही एक महाभारत बैंकों के वेज सेटलमेंट में भी होता है। यहां भी पारिवारिक लड़ाई में बाहर के लोग घुसे हुए हैं। यहां दो पक्ष हैं, बैंकर और मैनेजमेंट।