अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। इसके लिए यूनियन बनाई गई थी। यूनियन को काम दिया था स्टाफ को मैनेजमेंट की ज्यादतियों से बचाने का, वर्क कल्चर सुधारने का, बैंकर्स के मुद्दे उठाने का, अच्छी सैलरी दिलवाने का।
लेकिन फ़िलहाल यूनियन में कुर्सी-प्रेमी, कमीशनखोर, लालची और ढीठ लोग भरे हुए हैं जो कुम्भकर्णी निद्रा में सोते हैं और सिर्फ लेवी मांगने के टाइम ही जागते हैं। बैंकर पिट जाता है, बैंक लुट जाता है, सरकार अपनी वोट-बैंक पॉलिटिक्स से प्रेरित योजनाएं बैंकों पर लाद देते है,
और कलेक्टर छुट्टी के दिन बैंक खुलवा कर टारगेट पूरा करवाता है, फर्जी लोन बांटने का प्रेशर आता है और नहीं बांटने पर FIR होती है। RBI बैंकों को लूट कर सरकार का वित्तीय घाटा पूरा कर रहा है और यहां यूनियन 4% की लेवी अर्जेण्टली काटने का सर्कुलर निकाल रहे हैं।
यूनियन से बैंकरों की नयी पीढ़ी का पूरी तरह मोह भंग हो चुका है। उधर सरकार और मैनेजमेंट पूरी तरह बेलगाम हो चुके हैं। बैंकर और बैंक दोनों ही परेशान हैं। अब लोग मुद्दे उठाने के लिए नए तरीके ढूंढ रहे हैं। अभी पिछले कुछ समय से बैंकर समुदाय सोशल मीडिया पर सक्रिय हुआ है।
कुछ लोग अपने नाम से हैं और कुछ मेरी तरह बेनाम हैं। यहां न बैंक का भेदभाव है न बैच का, न अफसर-क्लर्क का भेदभाव है न जगह का। इससे दो फायदे हैं, एक तो बैंकर अपने मुद्दे उठाने के लिए अब यूनियन पे निर्भर नहीं है।
और दूसरा ये कि घटिया वर्क-कल्चर के एक बैच से अगले बैच पर ट्रांसफर होने का जो विष-चक्र है वो भी टूटेगा। साथ ही नॉन-बैंकर्स को भी, बैंकिंग में फैली गंद के बारे में पता चलेगा। कम से कम उम्मीद तो यही है। आगे देखते हैं क्या होता है।
• • •
Missing some Tweet in this thread? You can try to
force a refresh
हिटलर एक भीषण तानाशाह था। इसका एक उदाहरण एक कहानी से मिलता है। हिटलर को आर्यन नस्ल (संस्कृत वाले आर्य से भिन्न) की श्रेष्ठता पर पूरा भरोसा था।
उसका मानना था की बाकी नस्लों को ख़तम कर देना चाहिए क्यूंकि वे जर्मनी और मनुष्य जाति का विकास अवरुद्ध कर रही हैं। उन बाकी नस्लों में यहूदी बहुमत में थे। अपनी बात को सिद्ध करने के लिए उसने कपालविज्ञान (Phrenology) का सहारा लिया।
(आधुनिक विज्ञान कपालविज्ञान को कपोल कल्पना मानता है और मान्यता नहीं देता)। इसके लिए हिटलर ने अपने कुछ डॉक्टरों को बुलाया और लोगों को पकड़ कर उनकी खोपड़ी के आकार की जांच करने के लिए कहा।
आजकल की राजनीतिक व्यवस्था को देखकर राजा नहुष की कहानी याद आती है। पुराणों के अनुसार राजा नहुष कौरवों के पूर्वज थे। अत्यंत ही
वीर, धार्मिक, न्यायप्रिय और दयावान व्यक्ति। धरती लोक के वासी उनसे खुश थे। वही दूसरी तरफ स्वर्ग में इंद्र का राज था।
इंद्र भोग विलास में व्यस्त रहते थे। एक बार राक्षसों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया। उनको देखते ही इंद्र बिना लड़े, भाग खड़े हुए। किसी तरह बाकी के देवताओं ने राक्षसों को परास्त किया और स्वर्ग की रक्षा की। युद्ध के बाद देवताओं ने सप्तऋषियों से सलाह मशविरा किया।
सब लोग अप्सराओं के बीच मदिरा में धुत्त रहने वाले और लड़ाई के समय भाग खड़े होने वाले डरपोक और अय्याश इंद्र की हरकतों से परेशान थे। निर्णय हुआ कि वर्तमान इंद्र को हटा कर नए इंद्र की नियुक्ति की जायेगी। बहुत ढूंढने पर राजा नहुष इंद्र की पदवी के लिए उपयुक्त माने गए।
बैंक ने कस्टमर को भगवान बनाने के चक्कर में राक्षस बना दिया है और बैंकर को गुलाम। हर कस्टमर सर्विस का सर्कुलर, कस्टमर कंप्लेंट पर की गयी बेमतलब की कार्यवाही, बैंकर पे लगाए गए लांछन, हमको अंदर से पत्थर बना रहा है।
सोशल मीडिया पे रोज देखता हूँ, लोगों को SBI के लंच पे जोक मारते हुए, सर्विस क्वालिटी को गाली देते हुए, माल्या और नीरव को सही ठहराते हुए, बैंक और बैंक वालों को गालियाँ देते हुए। हर एक ऐसे मैसेज के साथ मेरे अंदर की भलाई थोड़ी सी मर जाती है।
आज जो बैंकों की कस्टमर क्वालिटी खराब है वो इसी वजह से है। अगर यही हाल रहा तो धीरे धीरे, गरीब, अनपढ़, अपंग, वृद्ध कस्टमर को देखकर दया नहीं चिढ मचने लगेगी। लोग, सरकार और मैनेजमेंट ये भूल गए हैं कि आप लाख कानून निकल लें, हजार नियम बना लें, सर्विस तो ब्रांच में बैठा बैंकर ही देगा।
आज फिर एक "मेरे पैसे से तुमको सैलरी मिलती है" वाले कस्टमर से सामना हुआ। शायद काफी समय से प्लान बना के बैठा था कि किस तरह बैंक वालों का नया साल बर्बाद करना है। पता नहीं पिछले दो हफ्ते से कौनसी मौत पड़ी है, छोटी सी ब्रांच में भी जबरदस्त भीड़ चढ़ी हुई है।
और ज्यादातर कस्टमर ज़लालत वाले। गौर करने पर समझ आया कि ये पूरी की पूरी भीड़ सरकारी है। हर व्यक्ति किसी न किसी खैराती सरकारी स्कीम की मेहरबानी से बैंक में धरा हुआ है। महिला गर्भवती है, खाता खुलवाना पड़ेगा, छः हजार जो मिलेंगे। अब नवां महीना चल रहा है तो मैडम तो बैंक आ नहीं सकती।
और बैंक बिना कस्टमर के आये खाता खोलेगा नहीं। तो होगा क्या? उनके पतिदेव अपने पूरे खानदान को लेकर बैंक आएंगे और हल्ला मचाएंगे। मनरेगा का पैसा, वृद्धावस्था पेंशन, स्कूल की स्कालरशिप सब खातों में ही आएगी।
एक बार गांधीजी टैगोर साहब से मिलने शांति निकेतन स्कूल आये थे। लोगों से मिलने जुलने का सिलसिला चल रहा था। एक लड़के ने गांधीजी से ऑटोग्राफ माँगा। जैसा कि अक्सर बड़े लोग करते हैं, गांधीजी ने एक उपदेश लिखा और फिर नीचे हस्ताक्षर कर दिए।
उपदेश में लिखा "Never make a promise in haste. Having once made it, fulfill it at the cost of your life." जैसे ही टैगोर साहब ने ये देखा, वे नाराज हो गए। उसी ऑटोग्राफ बुक में उन्होंने नीचे बंगाली में लिखा, "A prisoner forever with a chain of clay."
फिर ये सोच कर कि गांधीजी को शायद बंगाली समझ न आये, नीचे अंग्रेजी में लिखा, "Fling away your promise if is found to be wrong." दोनों ही महान व्यक्तित्व हैं। लकिन दोनों के विचार एक दुसरे से विपरीत थे।
सरकार बदलने से कानून नहीं बदलते। सरकार बदल के आप सिर्फ अपने वहम को संतुष्ट कर सकते हैं, असलियत नहीं बदल सकते। जिन लोगों को लगता है कि कांग्रेस में रामराज्य था और मोदी ने आके सब बर्बाद कर दिया, और जो लोग मोदी को मसीहा और कांग्रेस को देशद्रोही मानते हैं, दोनों ही नादान हैं।
आप हिमालय से महात्मा लाकर सत्ता में बिठा दीजिये, कुछ समय बाद वो भी जनता का खून चूसना शुरू कर देगा। जब तक आप सत्ता के परजीवियों को नहीं हटाएंगे तब तक कोई भी बदलाव असंभव है। सत्ता के परजीवी वे लोग हैं जो कुर्सी पर नहीं बैठते, जनता के सामने नहीं आते, मगर जीते उसी के सहारे हैं।
जैसे, उच्चासीन नौकरशाह, सरकारी विज्ञापनों की लालसा लिए बैठा मीडिया और सेलिब्रिटी पत्रकार, बिज़नेस लॉबी के लोग जैसे कोटक, और उनके दलाल जैसे राडिया, सरकारी टुकड़ों पे पलने वाले NGO, सेलिब्रिटी वकील, यूनियन के नेता, सरकारी कार्यक्रमों में नाचने वाले बॉलीवुड के भांड आदि इत्यादि।