सरकार बदलने से कानून नहीं बदलते। सरकार बदल के आप सिर्फ अपने वहम को संतुष्ट कर सकते हैं, असलियत नहीं बदल सकते। जिन लोगों को लगता है कि कांग्रेस में रामराज्य था और मोदी ने आके सब बर्बाद कर दिया, और जो लोग मोदी को मसीहा और कांग्रेस को देशद्रोही मानते हैं, दोनों ही नादान हैं।
आप हिमालय से महात्मा लाकर सत्ता में बिठा दीजिये, कुछ समय बाद वो भी जनता का खून चूसना शुरू कर देगा। जब तक आप सत्ता के परजीवियों को नहीं हटाएंगे तब तक कोई भी बदलाव असंभव है। सत्ता के परजीवी वे लोग हैं जो कुर्सी पर नहीं बैठते, जनता के सामने नहीं आते, मगर जीते उसी के सहारे हैं।
जैसे, उच्चासीन नौकरशाह, सरकारी विज्ञापनों की लालसा लिए बैठा मीडिया और सेलिब्रिटी पत्रकार, बिज़नेस लॉबी के लोग जैसे कोटक, और उनके दलाल जैसे राडिया, सरकारी टुकड़ों पे पलने वाले NGO, सेलिब्रिटी वकील, यूनियन के नेता, सरकारी कार्यक्रमों में नाचने वाले बॉलीवुड के भांड आदि इत्यादि।
ये लोग आमतौर पर अदृश्य रहकर ही काम करते हैं, और कभी कभार ही दिखाई देते हैं। लोकतंत्र में नेताओं के लिए कोई योग्यता निर्धारित नहीं की गई है, सिवाय इसके कि वे जनता का समर्थन रखते हों (अब वो समर्थन लोकप्रियता के दम पर है या डंडे के जोर पर ये एक अलग विषय है)।
ऐसी परिस्थिति में नेताओं का विशेषज्ञों पर निर्भर होना एक अवश्यम्भावी प्रक्रिया है। नेता को अपने लिए आर्थिक सलाहकार, रक्षा सलाहकार, तकनीकी सलाहकार, मीडिया सलाहकार, विदेश नीति सलाहकार, और भी न जाने कौन कौन से सलाहकार रखने पड़ते हैं।
ये सारे सलाहकार एक ही तबके से आते हैं, CW Mills इसे 'Power Elite' कहते हैं। अब देश की किस्मत इस चीज पर निर्भर करती है कि कौन नेता अपने सलाहकारों और उनके निहित स्वार्थों पर कितना नियंत्रण रख पाता है, और उनकी सलाह में से चापलूसी की चाशनी को हटाकर कितना सही निर्णय ले पाता है।
ऐसा नहीं है कि अम्बानी अडानी मोदी के राज में ही पैदा हुए और मोदी के गद्दी छोड़ते ही वे बर्बाद हो जाएंगे। रिलायंस 1970 के दशक से चली आ रही है और अडानी ने 1990 में मुंद्रा में बंदरगाह बना लिया था। इस बीच कांग्रेस भी आई, तीसरा मोर्चा भी आया, BJP भी आई, वामपंथियों का भी दबदबा रहा।
हर सरकार में ये लोग अपने रास्ते बनाते चले गए। हर सरकार में आम जनता बदहाल रही। लोग अपनी राजनीतिक विचारधारा के अनुसार अपने वहम को संतुष्ट करते रहे।
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एक बार गांधीजी टैगोर साहब से मिलने शांति निकेतन स्कूल आये थे। लोगों से मिलने जुलने का सिलसिला चल रहा था। एक लड़के ने गांधीजी से ऑटोग्राफ माँगा। जैसा कि अक्सर बड़े लोग करते हैं, गांधीजी ने एक उपदेश लिखा और फिर नीचे हस्ताक्षर कर दिए।
उपदेश में लिखा "Never make a promise in haste. Having once made it, fulfill it at the cost of your life." जैसे ही टैगोर साहब ने ये देखा, वे नाराज हो गए। उसी ऑटोग्राफ बुक में उन्होंने नीचे बंगाली में लिखा, "A prisoner forever with a chain of clay."
फिर ये सोच कर कि गांधीजी को शायद बंगाली समझ न आये, नीचे अंग्रेजी में लिखा, "Fling away your promise if is found to be wrong." दोनों ही महान व्यक्तित्व हैं। लकिन दोनों के विचार एक दुसरे से विपरीत थे।
पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी स्वर्गीय श्री T. S. R. Subramanian ने अपनी पुस्तक "India at Turning Point, the Road to Good Governance" में एक किस्से का जिक्र किया है। आप भी सुनिए। सुब्रमनियन साहब रिटायर हो चुके थे और नॉएडा में रहते थे।
चूंकि नए नए दादा बने थे और लड़का अमेरिका में था, इसलिए उनको उससे बात करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय फ़ोन सुविधा (ISD) की जरूरत थी। उस समय मोबाइल का जमाना नहीं आया था। सब काम लैंडलाइन पे ही होता था।
साहब ने BSNL के नजदीकी ऑफिस से संपर्क किया और जरूरी दस्तावेज और राशि जमा करवा दी। लेकिन हफ्ता दस दिन के बाद भी जब ISD सुविधा चालू नहीं हुई तो उन्होंने वापिस कार्यालय में संपर्क किया। तब पता चला की वो एक बहुत जरूरी फीस भरना भूल गए थे, जिसे आम भाषा में 'रिश्वत' भी कहा जाता है।
एक बार अकबर ने एक सपना देखा। सपने में उसने देखा कि बादलों में एक बड़ा ही सुन्दर महल बना हुआ है। राजा उस महल की सैर कर ही रहा था कि सपना टूट गया। दरबार में बादशाह ने अपना सपना दरबारियों को सुनाया।
अब दरबारी ठहरे एक से बढ़ कर एक चापलूस।
"हुज़ूर, ऐसा महल तो आपके पास ही होना चाहिए।"
"अगर ऐसा महल हमारे राज्य में होगा तो हुज़ूर की शान में चार चाँद लग जाएंगे।"
"उस महल को देखने इतने पर्यटक आएंगे कि मुल्क मालामाल हो जाएगा।"
"आप कहें तो दुनिया के एक से बढ़कर एक कारीगर आपके लिए हाज़िर कर दें।"
बादशाह को भी बादलों में महल बनवाने की बात जाँच गयी। बादशाह ने अपने सबसे खास दरबारी बीरबल को बुलाया।
"बीरबल, क्या तुम हमारे लिए ऐसा महल बनवा सकते हो?"
बीरबल बड़ा चालाक और मौकापरस्त व्यक्ति था।
नीति आयोग और अमिताभ कांत जी को रिफॉर्म्स की इतनी जल्दी है कि वो बेसिक होमवर्क करना ही भूल जाते हैं। रिफॉर्म्स के लिए पहला जरूरी कदम होता है आधारभूत ढांचा बनाना। उदाहरण के लिए डिजिटाइजेशन को लेते हैं।
बायोमेट्रिक डिवाइस और सॉफ्टवेयर डिजिटाइजेशन के लिए मूलभूत जरूरत है। इसलिए सरकार को चाहिए था कि देश में बायोमेट्रिक डिवाइस के निर्माण को प्राथमिकता देती। लेकिन सरकार तो जल्दी में थी। डिजिटाइजेशन डंडे के जोर पर लागू करवा दिया।
बायोमेट्रिक डिवाइस चीन से मंगवानी पड़ी। आज भी ज्यादातर बायोमेट्रिक डिवाइस चीन से आती हैं। दूसरा कदम था कि लोगों को कैशलेस लेन-देन के लिए बढ़िया माध्यम उपलब्ध कराना। बिना किसी साइबर सिक्योरिटी सिस्टम के आनन फानन में UPI लागू कर दिया।
शाहरुख़ खान बॉलीवुड एक्टर्स द्वारा चलाये जा रहे सोशल एक्टिविज्म के बारे में कहते हैं कि "हम लोग 'भांड' लोग हैं। हमें केवल भांडगिरी ही करनी चाहिए।"
भांड एक आम भाषा का शब्द है जिसके दो मतलब हैं। पहला मतलब है नाच गा कर लोगों का मनोरंजन करने वाला। इस में एक कला स्वांग या बहरूपिया भी होती है। बहरूपिये का काम होता है भिन्न भिन्न रूप धर के लोगों का मनोरंजन करना।
और एक बहरूपिये की कला-दक्षता का निर्णय इससे होता है कि वो जो भी रूप धरे उसमें पूरी तरह रम जाए। जो भी करे अपने स्वांग के हिसाब से ही करे। अब चाहे स्वांग रानी लक्ष्मीबाई का हो या चाहे किसी वेश्या का। भांड अपने स्वांग (अंग्रेजी में 'रोल') के साथ बेईमानी नहीं कर सकता।
Politicians are bound to be vote oriented. It is the duty of the permanent executive (bureaucrats) to advise rightly to the government and do not compromise with the larger national interest. But these days bureaucrats have forgotten the foundational characteristic of bureaucracy
That is, work in anonymity. Neither Macaulay (father of modern education system), nor Sardar Patel wanted Civil services to be a celebrity job. Macaulay said that a civil servant should have "ordinary prudence".
Sardar Patel said that let the politicians be face of the government, civil servants should be at its core. But these days bureaucrats are busy in becoming "Singham" and "firebrand". They do live raids on YouTube, indulge in spat on Twitter and what not.