अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और भगवान परशुराम ये सात महामानव चिरंजीवी हैं। यदि इन सात महामानवों और आठवे ऋषि मार्कण्डेय का नित्य स्मरण किया जाए तो शरीर के सारे रोग समाप्त हो जाते है और 100 वर्ष की आयु प्राप्त होती है।
जितने भी शकुन होते हैं,
वे किसी अच्छी या बुरी घटनाके होनेमें निमित्त नहीं होते
अर्थात् वे किसी घटनाके निर्माता नहीं होते,
प्रत्युत भावी घटनाकी सूचना देनेवाले होते हैं।
शकुन बतानेवाले प्राणी भी वास्तवमें शकुनोंको बताते नहीं हैं;
किन्तु उनकी स्वाभाविक चेष्टासे शकुन सूचित होते हैं।
जहाँ मोह होता है,
वहाँ मनुष्य का विवेक दब जाता है।
विवेक दबने से मोह की प्रबलता हो जाती है।
मोह के प्रबल होने से अपने कर्तव्य का स्पष्ट भान नहीं होता।
ये मृताः सहसा हत्या जायन्ते सहसा पुनः।
तेषां पौराणिकोऽभ्यासः कञ्चित् कालं हि तिष्ठति ॥
तस्माज्जातिस्मरा लोके जायन्ते बोधसंयुताः।
तेषां विवर्धतां संज्ञा स्वप्नवत् सा प्रणश्यति ॥
सम्बन्ध केवल अस्वीकृति से अर्थात् अपने में न मानने से ही मिटता है।अपने सत्स्वरूप में सम्बन्ध हैं नहीं,हुआ नहीं और हो सकता भी नहीं;
परन्तु माने हुए सम्बन्ध की अस्वीकृति के बिना माना हुआ सम्बन्ध मिटता नहीं,प्रत्युत ज्यों-का-त्यों ही बना रहता है। #श्रीमदभगवद्गीता #जय_श्री_राधे_कृष्ण
व्यथारहित होने का तात्पर्य है- प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित न होना और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न होना
सुख का सदुपयोग है-दूसरों को सुख पहुँचाना, उनकी सेवा करना
और दुःख का सदुपयोग हैं-सुख को इच्छा का त्याग करना।
यही भाव रखना वास्तविक पुरुषार्थ है।
आयु प्रतिक्षण समाप्त हो रही है अर्थात् शरीर प्रतिक्षण जीर्ण हो रहा है,प्रतिक्षण मर रहा है।यह एक क्षण भी स्थिर नहीं है।
जैसे,जवान होनेसे बालकपन मर जाता है,तो वास्तवमें वह बालकपन निरन्तर मरता है।
पर उधर दृष्टि न होनेसे प्रतिक्षण मौत के तरफ खयाल नहीं जाता।
यही वास्तव में बेहोशी है।
अपनी जानकारीका अनादर करनेका तात्पर्य है कि हम जितना जानते हैं, उसके अनुसार कार्य न करना।
जैसे, सत्य बोलना ठीक है,झूठ बोलना ठीक नहीं- ऐसा जानते हुए भी स्वार्थके लिये झूठ बोल देते हैं।
यही अपनी जानकारीका अनादर है। #श्रीमदभगवद्गीता 🚩🙏 #जय_श्री_राधे_कृष्ण 🤗🙏
स्वार्थ,अभिमान और फलेच्छाका त्याग करके
दूसरे के हित के लिये कर्म करना स्वधर्म है।
स्वधर्म का पालन ही कर्मयोग है।
मनुष्य को हरहाल में प्राप्त कर्तव्य का त्याग न करके,उत्साह व तत्परतापूर्वक कर्तव्य का पालन करना चाहिये।
कर्तव्य का पालन ही मनुष्य की मनुष्यता है।
धर्मका पालन करने से लोक-परलोक सुधर जाते हैं।
मतलब कर्तव्य का पालन व अकर्तव्य का त्याग से लोक-परलोक की सिद्धि होती है। #जय_श्री_कृष्ण
समता थोड़ी हो तो भी पूरी है और भय महान् हो तो भी अधूरा है। स्वल्प समता भी महान् है; क्योंकि वह सच्ची है और महान् भय भी स्वल्प (सत्ताहीन) है; क्योंकि वह कच्चा हैं।
अपने कल्याण में अगर कोई बाधा है तो वह है- भोग और ऐश्वर्य (संग्रह) -की इच्छा।
जैसे जाल में फँसी हुई मछली आगे नहीं बढ़ सकती, ऐसे ही भोग और संग्रह में फँसे हुए मनुष्य की दृष्टि परमात्मा की तरफ बढ़ ही नहीं सकती।
वास्तव में असली सेवा त्यागी के द्वारा ही होती है अर्थात् भोग और संग्रह की इच्छा सर्वथा मिटने से ही असली सेवा होती है,अन्यथा नकली सेवा होती है।
परन्तु उद्देश्य असली ( सबके हितका) होनेसे नकली सेवा भी असली में बदल जाती है।
कामना पैदा होने से अभाव होता है,
कामना की पूर्ति होने से परतन्त्रता और पूर्ति न होने से दुःख होता है तथा कामना-पूर्ति का सुख लेने से नयी कामना की उत्पत्ति होती है और सकामभावपूर्वक नये नये कर्म करने की रुचि बढ़ती चली जाती है
-ऐसा ठीक ठीक समझ लेने से निष्कामता स्वत: आ जाती है।
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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।
(दुसरा अध्याय 47वां श्लोक)
अर्थात-
कर्तव्यकर्म करने में ही तेरा अधिकार है फलों में कभी नहीं।
अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो।
जैसे,कोई खेती में निष्काम भाव से बीज बोये, तो क्या खेती में अनाज नहीं होगा?
बोया है तो पैदा अवश्य होगा।
ऐसे ही कोई निष्काम भावपूर्वक कर्म करता है, तो उसको कर्म का पल तो मिलेगा ही,पर वह बन्धनकारक नहीं होगा।
जाल दो प्रकारका है-संसारी व शास्त्रीय। संसारके मोहरूपी दलदलमें फँस जाना संसारी जालमें फँसना है व शास्त्रोंके, सम्प्रदायोंके द्वैत-अद्वैत आदि मत-मतान्तरोंमें उलझ जाना शास्त्रीय जालमें फँसना है।संसारी जाल तो उलझे हुए छटाँक सूतके समान है व शास्त्रीय जाल उलझे हुए सौ मन सुतके समान है।
साधक तो बुद्धि को स्थिर बनाता है।
परन्तु कामनाओं का सर्वथा त्याग होने पर बुद्धि को स्थिर बनाना नहीं पड़ता,
वह स्वत:-स्वाभाविक स्थिर हो जाती है।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥५८॥
अर्थात-कछुवा अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से परावृत्त कर लेता है?तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।। #श्रीमदभगवद्गीता
भोगों में आसक्त मनुष्य संसार के लिये पशुओं से अधिक दुःखदायी हो जाते हैं।क्योंकि पशु तो जितने से पेट भरे,उतना ही खाते हैं,संग्रह नहीं करते;परन्तु मनुष्य को कहीं भी जो कुछ पदार्थ आदि मिले,वह उसके काम में आये न आये,फिर भी वह संग्रह कर ही लेता है व अन्य के कामआने में बाधा डालता है।
मेरा कुछ नहीं है- इसको स्वीकार करने से मनुष्य 'निर्मम' हो जाता है, मेरे को कुछ नहीं चाहिये- इसको स्वीकार करने से मनुष्य 'निष्काम' हो जाता है। मेरे को अपने लिये कुछ नहीं करना है- इस को स्वीकार करने से मनुष्य 'निरहंकार' हो जाता है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
-ॐ,तत्,सत् -इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या व योगशास्तवमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णा्जुनसंवादमें 'सांख्ययोग' दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ।
जब इंद्र देवता गोवर्धन वासियों पर क्रोधित हो गए थे और अपना गुस्सा दिखाने के लिए झमझम बरसने लगे थे। इतना बरसे कि कहर बरपा दिया, ना किसी को और, ना किसी को ठौर। पूरा गाँव जैसे डूब ही गया था कि सबने कन्हैया से बिनती की।
अब कन्हैया का तो था ही ऐसा कि किसी ने भी पुकारा और बस चल दिए। उस दिन भी कन्हैया को आना ही पड़ा। सीधे गए और गोवर्धन पर्वत को ही उठा लिया अपनी कनिष्ठा पर और सारे गाँव वालों को खड़ा कर लिया उसके नीचे।
बस सात दिनतक बिना कुछ खाये-पिए कान्हा सबको संभाले रहे जबतक कि इंद्र थक कर हार नहीं मान लिए।अब कान्हा तो बढ़िया जमकर आठों पहर खाना खाया करते थे पर गाँव वालों को बचाने के लिए कुछ ना खाया ना पीया।बाद में गाँव वालों ने मिलकर सात दिन और आठ पहर छप्पन भोग बनाकर कान्हा को अर्पण करते दिए।