ऋषियों और महाऋषियों ने वेदों को कैसे सुरक्षित रखा?
जब कोई ये बताने की कोशिश करता हैं की हमारे ज्यादातर ग्रंथों में मिलावट की गई है तो वो वेदों पर भी ऊँगली उठाते हैं की अगर सभी में मिलावट की गई है तो वेदों में भी किसी ने मिलावट की होगी.... मैं उन्हें बताना चाहता हूँ की
ब्राह्मणों ने किस तरह वेदों को सुरखित रखा...
वेदों को सुरक्षित रखने के लिए उनकी अनुपुर्वी, एक-एक शब्द और एक एक अक्षर को अपने मूल रूप में बनाये रखने के लिए जो उपाय किये गए उन्हें आज कल की गणित की भाषा में 'Permutation and combination' कहा जा सकता हैं..
वेद मन्त्र को स्मरण रखने और उनमे एक मात्रा का भी लोप या विपर्यास ना होने पाए इसके लिए उसे 13 प्रकार से याद किया जाता था.... याद करने के इस उपाय को दो भागों में बनाया जा सकता हैं.... प्रकृति-पाठ और विकृति-पाठ.... प्रकृति पाठ का अर्थ हैं मन्त्र को जैसा वह है वैसा ही याद करना....
विकृति- पाठ का अर्थ हैं उसे तोड़ तोड़ कर पदों को आगे पीछे दोहरा-दोहरा कर भिन्न-भिन्न प्रकार से याद करना.... याद करने के इन उपायों के 13 प्रकार निश्चित किये गए थे--- संहिता-पाठ, पद-पाठ, कर्म-पाठ, जटा-पाठ, पुष्पमाला-पाठ, कर्ममाला-पाठ, शिखा-पाठ, रेखा-पाठ, दण्ड-पाठ, रथ-पाठ,
ध्वज-पाठ, धन-पाठ और त्रिपद धन-पाठ.... पाठों के इन नियमों को विकृति वल्ली नमक ग्रन्थ में विस्तार से दिया गया हैं.... परिमाणत:श्रोत्रिय ब्राह्मणों (जिन्हें मैक्समूलर ने जीवित पुस्तकालय नाम से अभिहित किया हैं) के मुख से वेद आज भी उसी रूप में सुरक्षित हैं जिस रूप में कभी आदि
ऋषिओं ने उनका उच्चारण किया था... विश्व के इस अदभुत आश्चर्य को देख कर एक पाश्चात्य विद्वान् ने आत्मविभोर होकर कहा था की यदि वेद की सभी मुद्रित प्रतियाँ नष्ट हो जाएँ तो भी इन ब्राह्मणों के मुख से वेद को पुनः प्राप्त किया जा सकता हैं....
मैक्समूलर ने 'India-What can it teach us' (प्रष्ठ 195) में लिखा हैं ---- आज भी यदि वेद की रचना को कम से कम पाच हजार वर्ष (मैक्समूलर के अनुसार) हो गए हैं... भारत में ऐसे श्रोत्रिय मिल सकते हैं जिन्हें समूचा वैदिक साहित्य कंठस्थ हैं .... स्वयं अपने ही निवास पर मुझे ऐसे छात्रों से
मिलने का सोभाग्य मिला हैं जो न केवल समूचे वेद को मौखिक पाठ कर सकते हैं वरन उनका पाठ सन्निहित सभी आरोहावरोह से पूर्ण होता हैं.... उन लोगो ने जब भी मेरे द्वारा सम्पादित संस्करणों को देखा और जहाँ कही भी उन्हें अशुद्धि मिली उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के उन अशुद्धियों की और मेरा
ध्यान आकर्षित किया....
मुझे आश्चर्य होता है उनके इस आत्मविश्वास पर जिसके बल पर वे सहज ही उन असुधियों को ध्यान में ला देते थे जो हमारे संस्करणों में जहाँ-तहाँ रह जाती थी.... वेदों की रक्षा के लिए किये गए इन प्रयत्नों की सराहना करते हुए मैक्समूलर ने अपने ग्रन्थ '
Origin of Religion' के प्रष्ठ 131 पर लिखा हैं --- "The text of the Vedas has been handed down to us with such accuracy that there is hardly a various reading in the proper sense of the work or even an uncertain aspect in the whole of the Rigveda". Regeda Vol. I part XXV
में मैक्समूलर ने पुनः लिखा ---- :As far as we are able to judge we can hardly speak of various readings in the Vedic hymns in the usual sense of the word. Various readings to be gathered from a collection manuscripts, now accessible to us there are none."
वेदों को शुद्धरूप में सुरक्षा का इतना प्रबंध आरम्भ से ही कर लिया गया था की उनमे प्रक्षेप करना संभव नही था....
इन उपायों के उद्देश्य के सम्बंध में सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता डॉ.भंडारकर ने अपने 'India Antiquary' के सन् 1874 के अंक में लिखा था---
The object of there different arrangements is simply he most accurate preservation of the sacred text of the Vedas.
वेदों के पाठ को ज्यों का त्यों सुरक्षित रखने के लिए जो दूसरा उपाय किया गया था वह यह था की वेदों की छंद- संख्या, पद-संख्या, तथा मंत्रानुक्र्म से छंद, ऋषि, देवता को
बताने के लिए उनके अनुक्रमणियां तैयार की गई जो अब भी शौनकानुक्रमणी, अनुवाकानुक्रमणी, सुक्तानुक्रमणी, आर्षानुक्रमणी, छंदोंनुक्रमणी, देवतानुक्रमणी, कात्यायनीयानुक्रमणी, सर्वानुक्रमणी, ऋग्विधान, ब्रहद्देवता, मंत्रार्षार्ध्याय, कात्यायनीय, सर्वानुक्रमणी, प्रातिशाख्यसूत्रादि, के नामों
से पाई जाती हैं
....इन अनुक्रमणीयों पर विचार करते हुए मैक्समूलर ने `Ancient Sanskrit Literature' के प्रष्ठ 117 पर लिखा है की ऋग्वेद की अनुक्रमणी से हम उनके सूक्तों और पदों की पड़ताल करके निर्भीकता से कह सकते हैं की अब भी ऋग्वेद के मन्त्रों शब्दों और पदों की वही संख्या हैं जो कभी
कात्यायन के समय में थी....
इस विषय में प्रो. मैकडानल ने भी स्पष्ट लिखा हैं की आर्यों ने अति प्राचीन कल से वैदिक पाठ की शुद्धता रखने और उसे परिवर्तन अथवा नाश से बचाने के लिए असाधारण सावधानता का उपयोग किया हैं....
इसका परिणाम यह हुआ की इसे ऐसी शुद्धता के साथ रक्खा गया है जो साहित्य के इतिहास में अनुपम
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भावार्थ:आप अपने बल से लोगों को विचलित करते हैं। आप पर्वतों को भी विचलित करने में सक्षम हैं।
गूढार्थ: इसमें बताया गया है कि सबका उपकार और दुख निवृति मरूदगण या प्राण द्वारा होती है। प्राण से ही शरीर के सब अवयव चलते हैं। इनमें एक भी निष्प्राण होता है तो वह अवयव काम करना बंद कर
देता है। जीवत्व होने तक ही हम बलवान बनकर उपकृत कर सकते हैं। प्राण परमात्म स्वरूप है अन्यथा हम डाली से निकली टहनी के समान हो जायेंगे। पहाड पर ही नदी और वृक्ष हैं
हमारा शरीर 5 तत्वों (पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु)से बना होता है,जबकि देवताओं का शरीर पांच तत्वों से नहीं बना होता, उनमे पृथ्वी और जल तत्व नहीं होते। मध्यम स्तर के देवताओं का शरीर ३ तत्वों (आकाश, अग्नि और वायु) से तथा उत्तम स्तर के देवता का शरीर दो तत्व तेज (अग्नि)
और आकाश से बना हुआ होता है इसलिए देव शरीर तेजोमय और आनंदमय होते हैं।
चूंकि हमारा शरीर पांच तत्वों से बना होता है इसलिए अन्न, जल, वायु, प्रकाश (अग्नि) और आकाश तत्व की हमें जरुरत होती है, जो हम अन्न और जल आदि के द्वारा प्राप्त करते हैं।
लेकिन देवता वायु के रूप में गंध, तेज के रूप
में प्रकाश और आकाश के रूप में शब्द को ग्रहण करते हैं।
यानी देवता गंध, प्रकाश और शब्द के द्वारा भोग ग्रहण करते हैं। जिसका विधान पूजा पद्धति में होता है। जैसे जो हम अन्न का भोग लगाते हैं, देवता उस अन्न की सुगंध को ग्रहण करते हैं
उसी से तृप्ति हो जाती है, जो पुष्प और धूप लगाते है,
आँवला एक आश्चर्यजनक फल है। इसके स्वास्थ्य लाभ कई गुना हैं। लेकिन लोगों को यह जानकर हैरानी होगी कि आदिकाल से पूजा की जा रही थी।
प्रलय के दौरान जब पूरी दुनिया पानी में डूब गई, उस समय ब्रह्मा जी परब्रह्म के बारे में चिंतन के लिए बैठे। ध्यान करते समय उन्होंने एक लंबी सांस ली और उसी समय उनकी आंख से एक आंसू निकल आया, जब उन्हें परब्रह्म के प्रति प्रेम की तीव्र अनुभूति हुई।
जब यह आंसू सतह पर गिरा, तो उसमें से एक आंवला का पेड़ निकला। चूँकि यह वनस्पति का पहला संकेत था इसलिए इसे अद्रोह कहा गया। यह इसके बाद था कि इस पृथ्वी पर अन्य जीवन उभरे। जब निर्माण पूरा हो गया तो आंवले के पेड़ के पास इकट्ठे देवता आ गए।
6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान, सुश्रुत नाम के एक भारतीय चिकित्सक - को व्यापक रूप से 'फादर ऑफ इंडियन मेडिसिन' और 'फादर ऑफ प्लास्टिक सर्जरी' के रूप में माना जाता है - ने चिकित्सा और सर्जरी पर दुनिया के शुरुआती कार्यों में से एक लिखा
सुश्रुत भारत के उत्तरी भाग में प्राचीन शहर काशी में रहते थे।
सुश्रुत संहिता-
सुश्रुत को उनके अग्रणी संचालन और तकनीकों के लिए और उनके प्रभावशाली ग्रंथ 'सुश्रुत संहिता' के लिए जाना जाता है, जो प्राचीन भारत में सर्जरी के बारे में ज्ञान का मुख्य स्रोत है।
संस्कृत में लिखा गया है, सुश्रुत संहिता चिकित्सा के क्षेत्र में सबसे पुराने कामों में से एक है। यह आयुर्वेद के रूप में जाने जाने वाली प्राचीन हिंदू औषधि की नींव रखता है और इसे 'आयुर्वेदिक चिकित्सा के महान त्रयी' के रूप में माना जाता है।
ब्रह्मांड में गतिविधियों और हमारे शरीर के कामकाज के बीच एक निश्चित समानता है। हम क्या खाते हैं और हम क्या बनते हैं, के बीच एक कड़ी है। लेकिन एक बात सबसे निश्चित है और वह है मृत्यु। सभी मरने के लिए पैदा हुए हैं।
यहां हम मृत्यु के तुरंत बाद के जीवन पर चर्चा करते हैं। जैसे ही हम मरते हैं हमारे भौतिक शरीर कार्य करना बंद कर देते हैं। आप जितने अच्छे कर्म करते हैं, उतना ही बेहतर तरीके से मरते हैं।
यदि आपने सकारात्मक कर्म किए हैं, तो आपके शरीर के ऊपरी हिस्से में सात छिद्रों के माध्यम से आपके शरीर को छोड़ दिया जाता है।