It is interesting to note that in words such as पिहितम् , पिपीलकः , पिनद्धम् and पिप्लुः , the उपसर्गः is अपि.
Eg. पिहित = अपि + √धा + क्त
Both अपिहितम् and पिहितम् are correct forms and mean the same. We are seeing अकारलोपः in पिहितम् ।
How's that? Read and find out.
It seems there does not exist a sutra in Ashtadhyayi regarding this अकारलोपः ।
However, this rule is indicated in न्यासः and पदमञ्जरी of काशिका-वृत्तिः । It seems आचार्य भागुरि (before Maharshi Panini), who does not find mention even in महाभाष्यम्, has laid down this rule.
You can read न्यासः and पदमञ्जरी for the sutra 6.2.37 to find out more about it.
जयमङ्गल has mentioned the below shloka in commentary for भट्टिकाव्य.
"१. पाणिनि से पूर्व शौनकि आचार्य का मत - पाणिनि से पूर्ववर्ती किन्तु भागुरि से परवर्ती आचार्य शौनकि का निम्नलिखित श्लोकात्मक सूत्र (सन्दर्भ ११, पृष्ठ २१७)"
"प्राप्त होता है-
'धाञ् कृञोस्तनिनह्योश्च बहुलत्वेन शौनकिः ।'
अर्थात - धाञ् कृञ्५ तन् नह् धातु के परे रहने पर 'अपि' और 'अव' उपसर्ग के अकार का लोप बहुल करके होता है, शौनकि आचार्य के मत में ।"