कोरोना और ब्लैक फ़ंगस ने मृत्यु की वेदना को आंसुओं की क़ीमत से तौल दिया है। रोज़ किसी एक घनिष्ट मित्र का जाना क्रूरता से स्मृति से एक एक कालखंड पोंछता जा रहा है। संवेदना की अभिव्यक्ति अश्रुपूरित ईमोजी, प्रणाम में जुड़े हाथों तक सिमट गई है
ऊँ शांति बेबसी का घोष बन गया है। 1/n
पिछले एक पखवाड़े में अपने दो करीबी मित्रों को खो चुका हूँ। मित्र भी ऐसे, जिन्हें परिवार का सदस्य कहना उनके संबंधों को अपमानित करना प्रतीत होता है।
कल दोपहर गौतम का मेसेज आया कि दद्दू का स्थिति क्रिटिकल है। चार पाँच दिन पहले बताया था कि कोरोना के मकड़जाल से छूटकर..
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दद्दू ब्लैक फ़ंगस की चपेट में आ गये हैं। दद्दू हमारे जीवट से भरे पूरे थे, पचहत्तर की उमर में पच्चीस वाले जोश से भरे हुए। जूझते रहे, जीवन में बड़ी विपदाएँ झेली थीं उन्होंने, कोरोना को पछाड़ चुके थे। कल गौतम बोला दद्दू हार रहे हैं, काल के आगे समर्पित हो रहे हैं।
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हौसला टूट रहा है…फ़ोन पर बोले अब समय आ गया है…
दद्दू के यह शब्द उनके चरित्र के इतने विपरीत थे कि मेरा ढाढ़स भी टूट गया। स्मृतियों पर सवार अश्रुघार बह निकली। वो दिन याद आ गए जब स्टेट बैंक के जनसंपर्क विभाग से वॉलंटरी रिटायरमेंट लेकर एक अधेड़ व्यक्ति ने व्यापार और आर्थिक
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जगत की ख़बरों को रोचक बनाने की बीड़ा उठाया था। दद्दू ने भास्कर के सुधीर अग्रवाल से आग्रह किया कि उनके भास्कर में कॉरपोरेट किंवदंतियों को लिखने का मौका दिया जाए। सुधीर ने स्वीकार किया और दद्दू के लेख छपने लगे।
अगर किसी एक व्यक्ति ने व्यापार-व्यवसाय की लेखनी को आम पाठक के
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लिए रुचिकर बनाया तो मैं उसका समग्र श्रेय मेरे दद्दू, प्रकाश बियाणी को देता हूँ। दस साल में वो हिन्दी आर्थिक पत्रकारिता के सबसे पठित लेखक बन गए। उनके लेख तमाम हिंदी, गुजराती, मराठी अख़बारों में छपने लगे। साथ में उन्होंने अपनी पहली किताब लिखी शून्य से शिखर। सफल उद्योगपतियों की
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यशगाथाएं, सामान्य पाठकों की भाषा में। आर्थिक कथाओं को किसी थ्रिलर की गति और रोचकता देने में उनकी महारथ थी।
शून्य से शिखर इतनी सफल हुई के देश भर के पुस्तक विक्रेताओं के यहाँ देशी युवा उसे पढ़ पढ़ कर अपनी प्रेरणाएँ ढूँढने लगे। देशज पाठकों को अपने सीमित संसाधनों के बीच
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भी व्यापार के क्षेत्र में कुछ कर गुजरने की ऊर्जा प्रकाश बियाणी के लेखन ने भरपूर रूप से दी। मेरा सत्य व स्पष्ट मत है कि देश के एक वर्ग को व्यापार के लिए प्रोत्साहित करने का श्रेय प्रकाश बियाणी की कलम से छीना नहीं जा सकता।
फिर तो बस उन्होंने लेखनी की बाढ़ लगा दी। रात-रात भर
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जाग के अधेड़ावस्था में उन्होंने बीसियों किताबें लिख डाली, असंख्य आलेख लिखे। ऐसा लगता था कि इस उम्र में अंततः दद्दू को अपनी नीयति मिल गई है। अब तक का सारा जीवन इस श्रृंखला की तैयारी मात्र था। अनेकों उद्योगपति अपने घरानों पर उनसे पुस्तकें लिखवाने की होड़ करने लगे।
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लेखन के प्रारंभिक दौर से उनकी-मेरी एक विशिष्ट आत्मीयता थी। मुझसे बड़े थे पर मैं आत्मीयता के नाते उनसे हर बात कर लिया करता था, डाँट डपट भी कर लेता। उन्होंने मेरे इस अधिकार को कभी अन्यथा नहीं लिया। हमेशा कहते थे कि निशीथ भाई, तुमने मुझे जीवन में बहुत कुछ सिखाया है।
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मैं कभी संकोच में उन्हें बता नहीं पाया कि मैंने उनसे क्या क्या सीखा था।
एक पीढ़ी को पुरुषार्थ से अर्थ उपार्जन में जुटने के लिए प्रेरित करने वाले दद्दू, अपने स्वयं के अर्थिक मामलों के अत्यंत मासूम थे। अक्सर उनसे लिखवाने वाले उनकी सहजता का शोषण कर लेते थे।
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आधे-पौने भुगतान से उन्हें मना लिया करते थे।
दद्दू को भी अपनी लेखनी का समुचित मानदेय माँगने में भी संकोच होता था। आरंभिक दौर में उन्होंने मुझसे इसका ज़िक्र किया। मैंने उन्हें समझाया कि आप अपनी लेखनी की क़ीमत अपने श्रम से जोड़कर माँगते हैं। यह सर्वदा ग़लत है।
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आपको अपनी लेखनी का मूल्य सामने वाले की उपयोगिता के आधार पर तय करना चाहिये। उन्हें बात समझ में आ गई और लेखनी का बेहतर प्रतिसाद मिलने लगा। उन्होंने इस सीख का श्रेय देने में कभी संकोच नहीं किया। हर बैठक में एक बार तो उन्हें यह बोलना ही होता था।
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मेरे हर चुनावी अभियान में उनका होना अनिवार्य होता था। लॉंगफार्म लेखनी के अलावा वो हमारे कैम्प के व्यवस्थापक होते थे। जैसे परिवार का मुखिया सबके खाने पीने से लेकर हर सुविधा का ध्यान रखता है उसी प्रकार उनका कैम्प में होना सारी समस्याओं से मुझे मुक्त कर देता था।
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सब काम व्यवस्थित हो जाते थे और खर्चा आधा।
2013 के बाद से उन्होंने अभियानों में जाने में मुझसे असमर्थता जताई। भाभी साहब का स्वास्थ उन्हें घर से बाहर रहने की स्वतंत्रता नहीं दे रहा था। विवशता थी, मैंने भी उसे स्वीकार किया। पर उसके बाद से किसी भी अभियान में वो निश्चितता
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नहीं रही जो उनके रहने से मिलती थी।
कोरोना और ब्लैक फ़ंगस ने आज प्रातः उन्हें छीन लिया। महामारी की मार ऐसी कि मैं उनके अंतिम दर्शन से भी वंचित हूँ, अंतिम यात्रा में कंधा देने से भी वंचित हूँ। मैं यहां उद्गार संजो रहा हूँ और वो महाप्रयाण पर निकलने को तत्पर होंगे।
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सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त, दद्दू किसी संयम के मोहताज नहीं हैं। वो अभी भी जल्दी में होंगे। छूटने वालों का दुख तो होगा पर संसार के उस पार का रहस्य उन्हें आकर्षित कर रहा होगा।
महादेव, उनको अपने आश्रय में रखना। आपके प्रताप की रोचक गाथाएँ वही लिखेंगे।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏
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When @radhabharadwaj decided to tell the story of women in India’s space programme, she innocently started talking to Bollywood production houses.
Little did she know that Bollywood thrives on thieving ideas and scripts. 1/n #SpaceMoms
Her script was taken, idea stolen and without as much as a nod, a hackneyed version was produced by Bollywood behind her back.
Radha was not going to take it lying down. She proceeded legally against the producers while committing to produce her own script. #SpaceMoms 2/n
The outcome is #SpaceMoms , a wonderfully original take on the ordinary Indian women at ISRO who do extraordinary work.
It is a depiction of characters as they are, NOT as caricatures.
You know that Akshay being a scientist route, dont you? #SpaceMoms
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It is a rather old story.
Few generations back, our affluent ancestral home was attacked by unknown immigrants.
They robbed our home, set fire to the barn, looted what they could, tried to misbehave with the womenfolk and ran away into the night.
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My ancestors fortified their home, made better provisions for security, kept 24 hour guards. A few years later, again one night an attack happened. This time the guards were killed, the cattle stolen, large part of the house burnt down. My ancestors survived but barely so.
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The village came to offer succour, even some financial help to rebuild. But there was no finding the attackers. They just vanished into the dark.
Life gradually began to come to a normal. Hardwork and effort brought the household back to normalcy.
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Since the time of these agri reforms, it has become convenient to blame Adhatia/middlemen/commission agents for every ill of farming.
NOTHING CAN BE FURTHER FROM TRUTH.
Middlemen exist because they serve a purpose. It deep rural communities, they are a single point source of 1/n
loans and advances, guidance and help. Yes, there are people who may exploit, but that doesn't make the entire system malafide. Where does a poor farmer get advance in emergency? The adhatia who knows him, his farm, his crop and his credit reliability.
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The adhatias also are the farm produce aggregators, much like Amazon/Bookings etc. Large buyers place their order with adhatias. They are ones who buy from small farmers, sort pack and make it acceptable quantity for the buyer. How would you imagine a 2.5 acre farmer trying 3/n
If all subsidies and govt support to farmers is removed, agriculture in India will crash in less than one crop season.
It is an artificially sustained system to help 80% people to sustain their work.
Can any country whose 80% people survive on artificial income progress?
We have the lowest land holding per family than most agri nations and it is dwindling with every generation. We have poor yields and mechanisation. Poor crop diversity. Non existent demand intelligence, meagre cold chains.
And agriculture in India is not yet deemed an industry.
But this artificially sustained sytem accounts for 80% votes in most elections, so no govt wishes to touch it.
Time to take stock and dismantle an artificial, rotten system. Agriculture needs to completely reboot.
But it wont because of political considerations.
Let me share this interesting story I heard last night. Tucked around a bonfire on a hill top forest guest house, our Forest Personnel host shared this little episode. The backwaters that you see here, dry up at a lot of places to no more than 3-5 feet depth. 1/n
Most shoreline is Tribal villages where no change can happen. Folks are poor and rear cattle. Across the waters is the Satpura National Park with a healthy tiger population. Even yesterday, there was news of 2 ox attacked by tiger. So here is how the story goes. 2/n
In summers, some cattle cross over and get into the reserves of the tiger. Now the poor owner cant afford to lose his cattle.
There is this young tribal boy, who is an expert of finding lost cattle. His skill is informally acknowledged by the Forest Dept too. The cattle owner
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