“धर्मसम्राट् करपात्री जी महाराज का #कायाकल्प प्रयोग”

यौगिक क्रिया और रसायन के प्रयोग से शारीरिकशोधन पूर्वक देहस्थ तत्वों का परिष्कृत होकर देह में जो अद्भुत् क्रान्ति,स्फूर्ति,अजरता,दिव्यता तथा लुप्त वैदिक विद्याओं का स्मृति में स्फुरण हो जाता है,
२) आयुर्वेद के इस प्रयोग को 'कायाकल्प' प्रयोग कहते हैं। कल्प प्रयोग मे मुख्यतः दो कार्य किए जाते हैं कुटीरप्रवेश व औषधिपान।
कल्पकुटी यथेष्ट लम्बी,चौड़ी,ऊंची व त्रिगर्भा चाहिऐ।द्वार की दिशा पूर्व होनी चाहिऐ।और शुभ मुहूर्त व लग्न में देवपूजन व पंचकर्म कर कल्पकुटी प्रवेश करना चाहिऐ।
३) चरकसंहिता,रसेन्द्रचिन्तामणि,औषधिकल्पलता,रसरत्नसमुच्चय,राजमार्तण्ड,भावप्रकाश,अष्टाङ्गहृदय आदि आयुर्वेद के ग्रन्थों में कल्प का वर्णन मिलता है।
करपात्र महाभाग को एक महात्मा ने 'ज्योतिष्मतीकल्प' विधि की एक पाण्डुलिपि दिखलाई और कहा कि हिमालय के एक सिद्ध से यह मुझे प्राप्त हुई है।
४) इस कल्प की फलश्रुति अत्यन्त आध्यात्मिक व रहस्यमयी थी।जो इस कल्प करेगा वह त्रिकालदर्शी,सर्वद्रष्टा योगी,सर्वज्ञ,लुप्त विद्याओं का प्रकाश तथा विष्णुस्वरूप हो जाऐगा। धर्मसम्राट् ने कहा कि शास्त्रों में इसका वर्णन मिलने पर ही इस कल्प को यथाविधि करने हेतु मैं उपस्थित हूँ।
५) शास्त्रों में इस दुर्लभ प्रयोग को खोजा।वैद्यों की गोष्ठी बुलाई।कुछ वैद्यों ने परामर्श दिया कि इस कल्प को करने से घोर मूर्च्छा आ सकती है और यदि स्वामी जी की चेतना वापस न आयी तो आयुर्वेद पर बड़ा-भारी कलंक लग जाऐगा।किन्तु स्वामी जी ने स्वयं यह शास्त्रीय कल्प करना स्वीकार किया।
६) स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज को ज्योतिष्मती औषधि को खोजने हेतु भेजा गया।दतिया स्वामी इस औषधि को नेत्र ज्योति और स्मरणशक्ति को सुरक्षित रखने के लिए देते थे।दतिया स्वामी ने बताया कि मध्यप्रदेश बालाघाट जिला के पास बैहर के वनों में यह प्राप्त होती है और इसका नाम 'मालकाँगनी' है।
७) स्वामी स्वरूपानंद जी शीत ऋतु में औषधि खोजने हेतु बैहर के वनों में गये।औषधि मिल गयी और रक्ताक्षत और मौली से औषधि को आमन्त्रित किया गया। १५ दिनों तक औषधि तोड़ने का क्रम चला। करपात्र स्वामी ने स्वयं आकर ज्योतिष्मती औषधि का विधिवत् पूजन किया गया।
८) वाराणसी के नारदघाट पर उक्त औषधि का रामनाथ जी वैदिक द्वारा विधिवत् संस्कार हुआ।इधर औषधि का संस्कार हो रहा था तथा उधर मीरघाट में गङ्गातट पर त्रिगर्भा कुटी का निर्माण हो रहा था।
फिर औषधि को गोदुग्ध,गोघृत और मधु में क्षीरपाक विधि द्वारा धीमी अग्नि पर पकाकर धान्यराशि के अन्दर -
९) -मिट्टी के बर्तन में २१ दिनों तक रखा गया। करपात्र महाभाग ने नेति,धौति बस्ति आदि पंचकर्म द्वारा देहशोधन व नाड़ीशोधन किया। जामनगर आयुर्वेदसंस्थान के तत्कालीन निर्देशक एवं वाराणसेय संस्कृतविश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभागाध्यक्ष विश्वनाथ द्विवेदी की देखरेख में सब कार्य हो रहे थे।
१०) साधारण व्यक्ति होता तो पंचकर्म में ही प्राणान्त हो जाता किन्तु वह धर्मसम्राट् करपात्र महाभाग थे।

मुहूर्त के विद्वानों से उत्तमोत्तम मुहूर्त सुझा कर भगवान् विश्वनाथ के दर्शन कर करपात्र स्वामी ने 'कुटीर प्रवेश' किया और यथाविधि औषध लेना प्रारम्भ किया।
११) कुटीर के अन्दर अखण्ड घृतदीपक दीपक जला रहता था।कुटीर के अन्दर स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती,आचार्य विश्वनाथ एवं एक ब्रह्मचारी परिचर्या हेतु आ सकते थे।
कुटीर के अन्दर औषधि और दूध स्वामी जी ले रहे थे।औषधि के साथ भाजन में साठी,चावल,मधु का विधान था।यथाविधि क्रम चलता रहा।
१२) कल्प समय में धर्मसम्राट् केवल संस्कृत में यथावश्यक सम्भाषण करते थे। इस कल्प के मध्य उन्होंने अनेकों आध्यात्मिक ग्रन्थों का परिशीलन किया।

'रसरत्नसमुच्चय' में कल्प के विषय में लिखा है-

ज्योतिष्मती नाम लता पीता पीत फलोज्जवला।
आषाढ़े पूर्वपक्षे स्याद् गृहीत्वा बीजमुत्तमम्।।
१३) आहारेतिलवत्तैलं मुष्टिना वापि तत्पचेत्।
क्षीरतुल्यं चतुर्थांश माक्षिकं तेलशेषितम्।।

ततस्तत्कोल कर्पूर त्वग्जातीफल मिश्रितम्।
स्निग्धभाण्डगतं धान्येष्वनुगुप्तं निधापयेत्।।

पिबेत्सूर्योदये तैलात्पलं याति विसंज्ञनाम्।
ततः संज्ञां शनैर्लब्ध्वा ततः क्रन्दति रोदिति।।
१४) एवं मासे श्रुतधरः परस्मिन्सूर्य सन्निभः।
तृतीये पूज्यते देवैश्चतुर्थे नैव दृश्यते।।

खेचरः पञ्चमे षष्ठे सिद्धैर्मिलति सप्तमे।
विष्णोःसम दिनं जीवेज्जीवन्मुक्तोष्टमे भवेत्।।

अर्थात् ज्योतिष्मती नामक लता पीता और पीतफला होती है।आषाढ़ के पूर्वपक्ष में उसके उत्तम बीजों का ग्रहण-
१५) - कर तेल निकालें और औषधि के समान भाग दूध मिलाकर चतुर्थांश मधु डालें।उसे मिट्टी के बर्तन में मन्दाग्नि पर पकावें जब तेल मात्र शेष रह जाऐ तो उतार लें और शीतल कर उसमे कंकोल,जायफल,कर्पूर,तज डालकर चिकने मिट्टी के बर्तन में रखें और कपड़ मिट्टी करके धान्यराशि में २९ दिनों तक पकाऐं।
१६) फिर पंचकर्म करके त्रिगर्भा कुटी में मौन धारणकर बैठें।सूर्योदय के समय 'चार तोला' औषधि का पान करें।औषधि का पान करने से मूर्च्छा आ जाती है धीरे-धीरे चेतना आती है तो अधीरता(बैचेनी) होने पर वह रोता-चिल्लाता है।भूख लगने पर साठी चावल और दुग्ध मधु के साथ देना चाहिऐ।
१७) इस विधि से कल्प करने पर एक मास मे 'श्रुतधर' हो जाता है।द्वितीय मास मे सूर्य के सदृश तेजस्वी हो जाता है।तृतीय मास में देवपूज्य हो जाता है।चतुर्थ मास में अदृश्य हो जाता है।पांचवे मास में आकाश मे विचरण करने वाला हो जाता है।षष्ठ मास में सिद्ध हो जाता है।
१८) सप्तम मास मे विष्णुतुल्य हो जाता है और अष्टम मास में जीवन्मुक्त हो जाता है।

स्वामी करपात्रीजी ने औषधि का सेवन किया किन्तु एक दिन में एक ही तोला ग्रहण कर पाऐ।अधिक पीने से अधीरता होती थी।यह क्रम ४० दिनों तक चला किन्तु चालीस दिनों के इस कल्प से ही देह में बहुत परिवर्तन हुआ-
१९) नेत्रज्योति व स्मरणशक्ति बहुत बढ़ गयी और वह अपनी वास्तविक आयु से २५ वर्ष कम के दिखाई देने लगे।वेदशास्त्रों में अखण्ड-अविचल श्रद्धा रखने वाले धर्मसम्राट् करपात्र स्वामी ने कभी भी आयुर्वेदिक औषधि को छोड़कर अन्य अंग्रेजी आदि की औषधि अपनी रुग्णता में ग्रहण नहीं की।
२०) भारतीय सभ्यता और संस्कृति तथा वैदिक विद्याओं के इतने गहन-सुदृढ़ समुपासक अब कहाँ मिलेंगे।

आज जो योग और आयुर्वेद के नाम पर विश्वभर में व्यापारीकरण कर रहे हैं स्वयं को योग ऋषि,महर्षि श्री-श्री आदि ख्यापित कर रहे हैं वह ऐसा कोई लुप्तप्रायः शास्त्रीय कल्प कर वैदिक विद्या का -
२१) लौहा मनवाऐं तो बात बनें, सड़को,मञ्चों-मैदानों में पेट हिलाने और चाटुकारिता करने से कोई योगी नही हो जाता।

#kaya_kalp #karpatriji #yog #Ayurveda

जय शङ्कर 🌹🙏

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