Disclaimer: यह पोस्ट पूरी तरह से पॉलिटिकल है। अगर आप BJP या कांग्रेस में से किसी के भक्त हैं तो हो सकता है कि ये पोस्ट पढ़ के आपकी भावनाएं आहत हो जाएँ। ऐसे केस में या तो आगे न पढ़ें, या फिर अपनी भावनाओं को स्थान विशेष में डाल कर रखें।
आजादी के बाद का भारत काफी समय तक एक परिवार विशेष की छत्रछाया में रहा। एक पूरी रणनीति के जरिये देश में ये माहौल बना कर रखा गया कि भारत आज जो भी है उस परिवार विशेष की मेहरबानी से ही है।
ये कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है क्यूंकि 75 में से लगभग 38 साल तो देश के प्रधानमंत्री सीधे सीधे उसी परिवार से रहे। उनमें से भी सबसे ज्यादा (17 साल) नेहरूजी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली। अब सत्ता के साथ सत्ता के चाटुकार भी आते हैं।
तो ज़ाहिर है नेहरूजी के भी चाटुकार रहे हैं। बिपान चंद्रा, रामचंद्र गुहा जैसे कई इतिहासकार और पत्रकार रहे हैं जिन्होंने नेहरू प्रशंसा में नए आयाम स्थापित किये हैं। इन्होंने नेहरू की गलतियों को ढकने का काम भी बखूबी किया है। और बेशक इनको इसका ईनाम भी मिला है।
खैर आज चर्चा इस बात की नहीं है। दरअसल इसी क्रम में 2018 में श्री श्रीकांत सम्भ्राणी का एक लेख Rediff.Com पर प्रकाशित हुआ था जिसका शीर्षक था "Why India needs to thank Nehru".
इस लेख में लेखक ने बताया है कि कैसे देश का लोकतंत्र और अर्थव्यस्था दरअसल नेहरूजी की मेहरबानी है। इस लेख पर लोगों ने कोई ख़ास प्रतिक्रिया नहीं दी। कारण? एक तो श्रीकांत सम्भ्राणी बहुत जाने माने पत्रकार नहीं हैं और दूसरा रेडिफ एक निष्पक्ष पोर्टल है।
इस लेख के लगभग डेढ़ साल बाद यानी 2019 में, मोदीजी के दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के 4 दिन बाद दा प्रिंट नामक ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल में एक और लेख प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था "Before you cheer for Indian cricket team this World Cup, thank Jawaharlal Nehru first".
शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इस लेख में देश में क्रिकेट की लोकप्रियता और सफलता का श्रेय नेहरूजी को दिया गया था। वैसे तो ये लेख भी पिछले वाले की तरह आया-गया हो जाना चाहिए था।
मगर एक तो मोदीजी दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने थे तो माहौल काफी राजनीतिक था और दूसरा क्रिकेट से देश की भावनाएं जुडी हुई हैं। बवाल तो मचना ही था।
तुरंत राइट विंग ने "Thank you Nehru" को ट्रोल करते हुए ताजमहल से लेकर ब्रह्माण्ड निर्माण तक का श्रेय नेहरू जी को दे दिया। इंटरनेट सेंसेशन की तरह ये ट्रेंड भी कुछ दिनों बाद ख़त्म हो गया मगर एक व्यक्ति को शायद ये बात चुभ गई।
बात सही भी है, प्रधानमंत्री वो बने और ट्रेंड "थैंक यू नेहरू" हो, अहम् को चोट तो पहुंचनी ही थी। उस दिन के बाद आते हैं आज के माहौल पर। गली गली, सरकारी ऑफिस, बैंक सब जगह "थैंक यू मोदीजी" पोस्टर लगे हुए हैं।
ओलम्पिक में मैडल कोई ला रहा है, और ट्रेंड थैंक यू मोदीजी हो रहा है। काम कोई भी हो, कहीं भी हो, "थैंक यू मोदी जी"। हो सकता है कि लोगों को ये महज़ एक इत्तेफ़ाक़ लगे मगर मैं यहां ये साबित करूंगा कि ये कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं है।
योजना आयोग, जिसका आईडिया नेहरू रूस से लेकर आये थे, आते ही उसको नीति आयोग किया गया। जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी को बदनाम करने की तमाम कोशिशें हुई (बावजूद इसके कि BJP कि कई बड़े नेता खुद JNU से पढ़े हुए हैं)। नेहरू की विदेश नीति को लगभग पलट दिया गया।
अमेरिका से नजदीकियां बनाई गई और नेहरुवियन काल के परम मित्र रूस को नजरअंदाज किया गया। बार-बार नेहरू की चीन से मित्रता और कश्मीर नीति पर सवाल उठाये गए। PSUs की बेतहशा बिक्री के पीछे भी यही कारण समझ आता है।
चूंकि ज्यादातर सरकारी संस्थान नेहरू के समय में स्थापित किये गए थे, मोदी युग की स्थापना के लिए उनका खात्मा आवश्यक है। बाकी एफिशिएंसी, खर्चा ये सब बेकार की बातें हैं। कुलमिलाकर देश के इतिहास को नेहरू और मोदी नामक दो भागों में बांटने की कोशिश की जा रही है।
जैसे कॉंग्रेसी लोग नेहरू को आधुनिक भारत का निर्माता बताते हैं, वैसे ही मोदी जी भी भारत का निर्माता बनना चाहते हैं। लेकिन जो काम नेहरू कर चुके हैं वही काम करके तो मोदीजी नवभारत निर्माता नहीं कहला सकते।
इसके लिए उन्हें पहले तो नेहरू को उस पदवी से हटाना होगा और फिर खुद को नए भारत का निर्माता घोषित करना होगा। आपने शायद गौर किया हो की आजकल राइट विंग वाले नए भारत की काफी बातें कर रहे हैं। ये सब देखकर मुझे ताजमहल की कहानी याद आती है।
कहा जाता है कि शाहजहां सफ़ेद ताजमहल के साथ साथ वैसा ही एक काला ताजमहल भी बनवाना चाहता था, यमुना के दूसरी पार। शाहजहां ने ताजमहल ठीक वैसा ही बनवाया था जैसा क़ुरान में जन्नत का जिक्र है। काला ताजमहल शायद जहन्नुम का प्रतीक होगा।
अब पैसे की कमी रही या समय की मगर काला ताजमहल बन नहीं पाया। फिर आया औरंगज़ेब। अपने ही बाप का दुश्मन। वो चाहता था कि लोग उसके बाप से ज्यादा उसे याद रखें। सुना है कि पहले वो भी शाहजहां के सफ़ेद ताजमहल के सामने काला ताजमहल बनवाना चाहता था।
मगर न तो उसमें धैर्य था न ही वो कोई कला का पारखी था। वो उत्तर भारत में इतना टिका भी नहीं कि इतने बड़े प्रोजेक्ट पर काम कर सके। लेकिन ताजमहल से भी शानदार ईमारत बनवाने की उसकी इच्छा खत्म नहीं हुई।
फलस्वरूप उसने दक्षिण में ही बीबी का मक़बरा बनवाया, जो की ताजमहल से ही प्रेरित बताया जाता है। शायद इसीलिए इसे गरीबों का ताजमहल भी कहा जाता है। मोदीजी भी शायद औरंगज़ेब सिंड्रोम से ग्रसित हैं। लेकिन इनका सिंड्रोम शायद थोड़ा ज्यादा भयानक है।
क्यूंकि ये काला ताजमहल तो बनाना चाहते हैं मगर सफ़ेद ताजमहल को गिरा कर, उसके ही अवशेषों पर। बस एक बात समझ नहीं आई। जब नेहरू स्टेडियम मौजूद था तो उसका नाम बदलते, सरदार पटेल स्टेडियम का नाम क्यों बदला?
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हिंदुस्तान में हॉकी के साथ सबसे बड़ी ट्रेजेडी ये नहीं है कि इसकी उपेक्षा की गई। सबसे बड़ी ट्रेजेडी ये है कि इसे राष्ट्रीय खेल घोषित किया गया। आजादी के समय भारत हॉकी में विश्व चैंपियन था। हर ओलंपिक में हॉकी में गोल्ड आते थे। लोग मेजर ध्यानचंद के दीवाने थे।
सरकार ने भी जोश जोश में आकर हॉकी को राष्ट्रीय खेल घोषित कर डाला। ये नहीं सोचा कि भारत की हॉकी में विश्वविजेता की पदवी परमानेंट नहीं है। हॉकी कोई भारत में कबड्डी या नौकायन की तरह सदियों से खेला जाने वाला खेल तो है नहीं कि भारत का युवा इस खेल में बचपन से ही पारंगत हो।
तो ऐसे में सिर्फ पिछले कुछ सालों की परफॉर्मेंस को देख कर हॉकी को राष्ट्रीय खेल घोषित कर देना ऐसा ही था जैसे नोकिया के पुराने मोबाइल को देखकर नोकिया को आजीवन मोबाइल सप्लाई करने का ठेका दे दिया जाए।
मेरे यहां एक महोदय 10-10 के एक हजार के लगभग सिक्के लेके आए और बोले कि चेंज करो। RBI सर्कुलर का हवाला देते हुए हमने मना कर दिया। कस्टमर ने पहले तो जम के तमाशा किया, जब फिर भी हमने सिक्के नहीं लिए तो सारे सिक्के ब्रांच में फेंक के चला गया।
थोड़ी देर हमको पुलिस स्टेशन से फोन आया कि साहब सिक्के ले लो (PSI से हमारी अच्छी जानकारी थी). हमने कहा कि हमारे पास इतने सारे सिक्के गिनने के लिए आदमी नहीं है। बेचारे PSI साहब बोले कि भाई आदमी मैं दे देता हूं, आप इसका काम कर दो, इसने पूरे पुलिस स्टेशन में हंगामा मचाया हुआ है।
हमने कहा ठीक है। पुलिस स्टेशन से एक कांस्टेबल सिक्के गिनने आया। गिनने पे पता चला कि 92 सिक्के कम हैं (शायद लोग उठा के ले गए थे). हमको लगा कि ये फिर बवाल मचाएगा, मगर कस्टमर खुश हो के बोला कि चलो फायदा हो गया।
अलाउद्दीन ख़िलजी पद्मावती को पाने के लिए विक्षिप्तता के स्तर पर पहुंच चुका था। वो कुछ भी करने को तैयार था। ताकत का नशा इस कदर हावी था कि जो चीज पसंद आ गई वो तो चाहिए ही थी। न सुनने के आदत नहीं थी। दिल्ली छोड़कर, चित्तौड़ के किले के बाहर आठ महीने तक डेरा डाले पड़ा रहा।
अंततः किले का फाटक खोला गया। भीषण लड़ाई हुई। दोनों तरफ के न जाने कितने ही सैनिक मारे गए। मगर खिलजी के पास ताकत ज्यादा थी। वो जीत गया। चितौड़ के अभेद्य किले पर अब खिलजी का अधिकार था। बड़ी उम्मीद के साथ खिलजी विजेता की तरह चित्तौड़ में घुसा। मगर भीतर का माहौल देखकर दंग रह गया।
नगर में उसे मिला तो धुएं का गुबार, जलती हुई लाशों की गंध, वीरान वीथियां। जीवित मनुष्य का कोई नामोनिशान तक नहीं। ऐसा लग रहा था कि शमशान में खड़ा हो। खिलजी जीतने के बाद भी हारा हुआ महसूस कर रहा था। जिसके लिए इतनी मेहनत की थी, इतनी लाशें बिछाई थी वो भी नहीं मिली।
मार्गरेट थेचर ने ब्रिटेन में 1979 में निजीकरण का दौर शुरू किया था। उसके पीछे अपने कारण थे। मगर थेचर ने भी रेलवे के महत्व को समझा और ब्रिटिश रेलवे को निजीकरण से दूर रखा।
मार्गरेट थेचर चली गयी और 1991 में यूरोपियन यूनियन के दवाब में ब्रिटेन में रेलवे के निजीकरण का दौर शुरू हुआ। वैसे तो ये टॉपिक बहुत बड़ा है। मगर संक्षेप में समझें तो ब्रिटेन का रेलवे के निजीकरण का कदम फेल साबित हुआ।
कैसे?
- निजीकरण के बाद रेल यात्रियों की संख्या में खूब बढ़ोतरी हुई, मगर उतनी नहीं जितनी खरीददारों ने बोली लगाते समय दावा किया था। सरकारी सम्पत्तियों को हथियाने के चक्कर में ऊंची से ऊँची बोली लगाते गए।
अमरीका वैसे तो आधुनिक शिक्षा का गढ़ माना जाता है मगर वहाँ शिक्षा बेहद महँगी है। वहाँ शिक्षा और विशेषकर उच्च शिक्षा के लिए आपको या तो किसी अमीर घर में पैदा होना होगा, या कहीं से स्कॉलरशिप जुगाड़नी होगी या फिर लोन लेना होगा।
अमेरिका में स्नातकों की कम संख्या के पीछे ये भी एक बहुत बड़ा कारण है। एजुकेशन लोन अमेरिका में एक बहुत बड़ा बिज़नेस है। आज अमरीका में लगभग साढ़े चार करोड़ लोगों पर लगभग 100 लाख करोड़ का एजुकेशन लोन बकाया है यानी पूरी भारतीय GDP का आधा तो वहाँ एजुकेशन लोन चल रहा है।
लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था। 1972 तक अमेरिका में छात्र पढाई के लिए सरकारी सहायता प्राप्त लोन ले सकते थे। लेकिन चूंकि ज्यादातर शिक्षा निजी हाथों में थी और सरकार का बजट सीमित था, ज्यादातर छात्र इसका लाभ नहीं उठा सकते थे। #PrivatizationBigScam
आइये आज आपको क्रॉससेलिंग से जुडी हुई एक कहानी सुनाते हैं। अमेरिका की चार बड़ी बैंकों को बिग फोर कहा जाता है। ये चार बैंक हैं मॉर्गन चेस, बैंक ऑफ़ अमेरिका, सिटी बैंक और वेल्स फारगो।
वेल्स फारगो एक बहुत बड़ी बैंक है जिसके एसेट्स लगभग 2 ट्रिलियन डॉलर्स हैं यानि 150 लाख करोड़ रूपये। हर तीन में से एक अमरीकन का खाता वेल्स फारगो में है। वेल्स फारगो एक बहुत पुरानी बैंक है। 1998 में एक बैंक को नॉर्वेस्ट ग्रुप ने खरीद लिया।
बाद में नॉर्वेस्ट के मालिक John G. Stumpf वेल्स फारगो के हेड बने। नॉर्वेस्ट का फोकस कस्टमर से पर्सनल रिलेशन बनाने पर ज्यादा था। उनका मानना था कि अगर कस्टमर से रिलेशन मजबूत किये जाएँ तो कस्टमर को बैंक के अन्य प्रोडक्ट खरीदने के लिए मनाया जा सकता है।