आइये आज आपको क्रॉससेलिंग से जुडी हुई एक कहानी सुनाते हैं। अमेरिका की चार बड़ी बैंकों को बिग फोर कहा जाता है। ये चार बैंक हैं मॉर्गन चेस, बैंक ऑफ़ अमेरिका, सिटी बैंक और वेल्स फारगो।
वेल्स फारगो एक बहुत बड़ी बैंक है जिसके एसेट्स लगभग 2 ट्रिलियन डॉलर्स हैं यानि 150 लाख करोड़ रूपये। हर तीन में से एक अमरीकन का खाता वेल्स फारगो में है। वेल्स फारगो एक बहुत पुरानी बैंक है। 1998 में एक बैंक को नॉर्वेस्ट ग्रुप ने खरीद लिया।
बाद में नॉर्वेस्ट के मालिक John G. Stumpf वेल्स फारगो के हेड बने। नॉर्वेस्ट का फोकस कस्टमर से पर्सनल रिलेशन बनाने पर ज्यादा था। उनका मानना था कि अगर कस्टमर से रिलेशन मजबूत किये जाएँ तो कस्टमर को बैंक के अन्य प्रोडक्ट खरीदने के लिए मनाया जा सकता है।
यही पॉलिसी वेल्स फारगो के ऊपर भी लागू की गयी। नए कस्टमर जोड़ने के बजाय सारा ध्यान क्रॉस सेलिंग के जरिये मौजूदा कस्टमर की जेब काटने पर लगाया गया। इसके लिए वेल्स फारगो के स्टाफ पर जबरदस्त प्रेशर बनाया गया।
मोनेटरी इंसेंटिव, बेहूदा और हास्यास्पद टार्गेट्स से लेकर हर घंटे रिपोर्टिंग जैसे हथकंडे अपनाये गए। जो स्टाफ क्रॉस सेलिंग का टारगेट पूरा नहीं कर पाता था उसे लेट सिटिंग, हॉलिडे वर्किंग, और यहां तक कि कंपनी से निकाल भी दिया जाता था।
मतलब अगर टाइम से घर पहुंचना है, नौकरी बचानी है तो क्रॉस सेलिंग करो। 2010 में John G. Stumpf ने बैंक की एनुअल रिपोर्ट में कर्मचारियों को हर कस्टमर को काम से काम आठ प्रोडक्ट बेचने का टारगेट दिया था जिसको बाद में बढाकर 10 कर दिया था।
ऊल-जलूल टार्गेट्स और उनको पूरा करने के प्रेशर से परेशान होकर वेल्स फारगो के कर्मचारियों ने बिज़नेस एथिक्स को ताक पर रख कर फर्जी क्रॉस सेलिंग करना शुरू किया। कस्टमर्स का डाटा तो उनके पास था ही।
जिन कस्टमर्स को प्री-एप्रूव्ड क्रेडिट कार्ड ऑफर किया था उनको बिना पूछे ही क्रेडिट कार्ड इशू कर दिए। इसके लिए फर्जी फॉर्म भरकर फर्जी सिग्नेचर किये गए।
क्रेडिट कार्ड का फॉर्म भरते समय बैंक वाले कस्टमर की जगह अपना फ़ोन नंबर और ईमेल भर देते थे ताकि कस्टमर को खुद के नाम पर जारी हुए इस क्रेडिट कार्ड के बारे में पता ही न चले। अगर किसी कस्टमर को पता चल जाता था तो बैंक वाले कंप्यूटर या सिस्टम इरर का बहाना बना देते थे।
क्रॉस सेलिंग का प्रेशर इतना ज्यादा था कि बैंक वालों ने होमलेस लोगों को भी क्रेडिट कार्ड जारी कर दिए, यहां तक कि सेल्स बढ़ने के लिए उन्होंने अपने खुद के फॅमिली मेंबर्स के भी क्रेडिट कार्ड इशू कर दिए। बैंक का बिज़नेस इससे काफी बढ़ गया था।
वेल्स फारगो के स्टेटमेंट के अनुसार 2002 से 2017 तक करीब 35 लाख फर्जी एकाउंट्स खोले गए थे। जब ये स्कैंडल सामने आया तो खलबली मच गयी। अमेरिका की बैंकिंग सेनेट कमिटी के सामने John G. Stumpf को बुलाया गया जहां वो कोई जवाब नहीं दे पाए।
इस घोटाले के फलस्वरूप लगभग 5000 लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया, वेल्स फारगो को जुर्माने, कंपनसेशन और सेटलमेंट के रूप में करीब 4.4 बिलियन डॉलर्स देने पड़े। गौरतलब है की वेल्स फारगो की सालाना आय लगभग 20 बिलियन डॉलर्स है।
मतलब जितना बड़ा फ्रॉड था उसके बदले जुर्माना नगण्य ही था। John G. Stumpf को जेल तो नहीं हुई मगर उसे बैंकिंग इंडस्ट्री से आजीवन निष्काषित कर दिया गया। US के फेडरल रिज़र्व ने वेल्स फारगो पर 2 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा एसेट्स बनाने पर रोक लगा दी।
लेकिन जो सबसे बड़ा नुक्सान वेल्स फारगो को हुआ वे ये था कि अमेरिका कि चौथी सबसे बड़ी बैंक का नाम हमेशा के लिए बदनाम हो गया। बैंक कस्टमर्स का ट्रस्ट खो चुकी है। आज वेल्स फारगो का स्कैंडल बैंकिंग में एक उदाहरण के तौर पर लिया जाता है।
अब हम इस चीज को भारतीय परिपेक्ष्य में रखकर देखते हैं। वेल्स फारगो में क्रॉस सेलिंग की धांधली 2002 में शुरू हुई थी। और 2002 में ही भारत में IRDA ने नोटिफिकेशन के ज़रिये बैंकों को बीमा कंपनियों का एजेंट बनने की परमिशन दे दी।
धीरे धीरे इन्शुरन्स और बैंकिंग के नियम ढीले किये गए ताकि बैंक बीमा बेच सकें। विदेशी बीमा कंपनियों को भारतीय बैंकों के साथ जॉइंट वेंचर बनाने के लिए आमंत्रित किया गया। एक झटके में भारत के लाखों बैंकर्स को विदेशी सूटकेस बीमा कंपनियों का बीमा एजेंट बना दिया।
बैंक उच्चाधिकारियों को इंसेंटिव (महंगे गिफ्ट, विदेशी यात्रायें, आलीशान लाइफस्टाइल) का लालच दिया गया। उन्होंने आम बैंकर पर बीमा बेचने का दवाब बनाया। बैंकों में प्रमोशन, ट्रांसफर आजकल बीमा कंपनी वाले डिसाइड करते हैं।
बैंकों में बीमा बेचने का प्रेशर इतना ज्यादा है कि बिना कस्टमर की जानकारी के बीमा बेचा जा रहा है, बैंक की बेसिक सुविधाओं जैसे लॉकर, लोन वगैरह के लिए कस्टमर को जबरदस्ती बीमा खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है, बैंक वाले टारगेट पूरा करने के लिए अपने ही परिवार वालों का बीमा कर रहे हैं।
और ये चीज किसी से नहीं छुपी है कि बैंकों में जितनी आत्महत्याएं हो रहीं हैं उनके पीछे क्रॉस सेलिंग का प्रेशर भी एक बहुत बड़ी वजह है। आज की तारीख में भारत कि हर बैंक वेल्स फारगो बनी हुई है। और ये कोई छुपा हुआ सीक्रेट नहीं है। मगर कोई इस बारे में बोलना नहीं चाहता।
सरकार, बैंक प्रबंधन, यूनियन सबका मुँह पैसे से बंद कर दिया गया है।
जब भी यहां क्रॉस सेलिंग नामक कैंसर के खिलाफ लिखता हूँ एक दो लोग आते हैं, क्रॉस सेलिंग के फायदे बताने।
- इससे बैंक की इनकम बढ़ जाती है। एक्स्ट्रा इनकम में नुक्सान ही क्या है?
- बैंक के कोर बिज़नेस में इतना प्रोफिट मार्जिन नहीं रहा।
- कस्टमर की सारी फाइनेंसियल जरूरतें एक ही जगह पूरी हो जाती हैं।
- अगर हम नहीं बेचेंगे तो कोई और बेचेगा, हमारा कस्टमर दूसरी जगह चला जाएगा।
लेकिन जो लोग क्रॉस सेलिंग की सच्चाई जानते हैं वो बता सकते हैं ये सब कोरी बकवास है।
सच्चाई ये है कि क्रॉस सेलिंग ने बैंकिंग को अंदर से खोखला कर दिया है। बैंकर आजकल बैंकिंग से ज्यादा बीमा बेचने में इंटरेस्टेड रहते हैं। अरे अगर बीमा बेचने का, सेल्समेन बनने का इतना ही शौक था तो बैंक छोड़ कर बीमा कंपनी क्यों नहीं ज्वाइन कर लेते?
क्यों लाखों बैंकर्स की छाती पर मूंग दल रहे हो। तुम्हारे बीमा बेचने के शौक की वजह से यहां लोग सुसाइड कर रहे हैं। क्रॉस सेलिंग के पुराधाओं, अगर रत्ती भर भी शर्म बची है तो किसी गन्दी नाली के बदबूदार पानी में डूब मारो। बैंक में हो रही हर आत्महत्या की लिए तुम भी जिम्मेदार हो।
डिस्क्लेमर: जिसको बुरा लगता है लगे। बैंक का काम छोड़ कर क्रॉस सेलिंग करने वालों के लिए मेरे मन में कोई सम्मान और हमदर्दी नहीं है।
बहुत पढ़ लिखकर आते हैं। दस लाख लोगों में से 180 लोग ही IAS बनते हैं। पूरा ठोक बजा के चेक किये जाते हैं। फिर तो बहुत दिमाग होना चाहिए इनके पास। नवंबर 2019 में कोरोना का पहला केस आ गया था और जनवरी 2020 के अंत तक ये पूरे विश्व में फैलना शुरू हो गया था।
फरवरी में भारत में भी केस आने शुरू हो गए थे। मार्च तक ये निश्चित हो गया कि ये रुकने वाला नहीं। क्या किया इन देश के चुने हुए होनहारों ने? अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट पर चेकिंग फरवरी मध्य में शुरू की गई वो भी ढुल-मुल तरीके से। चेकिंग के लिए थर्मल गन्स तक नहीं थी इनके पास।
आनन-फानन में चीन से दोयम दर्जे के चेकिंग उपकरण, टेस्टिंग किट, PPE किट मंगवाई गई। ऐसा नहीं है कि महामारियां पहले नहीं थी। इससे पहले भी स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, MERS, SARS, Nipah, Ebola, सब समय समय पर ऐसी व्यापक महामारी की संभावनाएं दर्शा ही रहे थे।
अरे नहीं, पब्लिक की चिंता थोड़े ही है। पब्लिक तो भरी पड़ी है। डेढ़ सौ साल में 14 करोड़ से 140 करोड़ हो गए हैं। जितने मरेंगे उससे ज्यादा पैदा हो जाएंगे। वैसे भी भारत की जनसँख्या जरूरत से कुछ ज्यादा ही है। चिंता तो कुर्सी की है। कुर्सी सलामत रहनी चाहिए।
जनता जाए भाड़ में। जनता की लाशों पर पैर रख कर ही तो राजा बना जाता है। पहले राजा खुली मनमानी करते थे, क्यूंकि कुर्सी की ज्यादा चिंता नहीं रहती थी। इसीलिए लोकतंत्र लेकर आये। ताकि जनता के हिसाब से राजा चले।
पर जिस देश की आबादी गिनने के लिए एक के पीछे नौ जीरो लगाने पड़ें वहाँ लोकतंत्र नहीं भीड़तंत्र होता है। और भीड़ जितनी ज्यादा हो उसे चूतिया बनाना उतना ही आसान होता है। साहब ने चूतियापे किये, चूतिये आ गए उसका लॉजिक समझाने।
आजकल ईमानदारी से काम करने का चलन नहीं है। पेशे के साथ ईमानदारी पुराने जमाने की बात हो चली है। हमारे तंत्र में हर व्यक्ति के लिया काम निर्धारित रहता है और उस काम के बदले तयशुदा मेहनताना भी दिया ही जाता है। लेकिन व्यक्ति उससे संतुष्ट नहीं होता।
किसी के पास कोई भी करवाने जाओ तो वो पहले आपने फायदा ढूंढता है। सरकारी ऑफिस में जाओ तो रिश्वत मांगते हैं। बैंक में जाओ तो जबरदस्ती बीमा पालिसी पकड़ा देते हैं। ये खेल पत्रकारिता में भी चल रहा है। दो दिन बैंकों की हड़ताल रही।
बैंकों के निजीकरण के मुद्दे को जब कुछ पत्रकारों के सामने रखा गया तो अलग अलग तरह के रुझान आये। एक सत्तापक्ष के पालतू पत्रकार ने "बैंकरों की भारी मांग" पर बैंकों के निजीकरण के मुद्दे को उठाने की कोशिश की मगर आदत से मजबूत होकर वे सरकार का ही पक्ष पेश करने लगे।
2 .अगर सरकार का काम बैंकों का नियमन करना है तो क्यों PMC जैसे बैंक डूब गए? 1994 में 10 बैंकों को लाइसेंस दिया था उनमें से 4 ही बचे हैं? बाकी कहाँ गए? Yes bank को बचाने के लिए SBI का पैसा क्यों लगवाया गया?
3 .सरकार कह रही है कि कर्मचारियों का ध्यान रखा जाएगा तो भरोसा करना चाहिए? सरकार ने ऐसा कौनसा काम किया है जिससे उसपर भरोसा किया जा सके? नोटबंदी से काला धन वापिस आ गया?
पिछले कुछ सालों से एक चीज बहुत स्पष्ट रूप से देखने में आ रही है और वो ये की सरकार के सलाहकार मंडल में केवल एक विशेष मानसिकता वाले लोगों की ही भर्ती हो रही है। शुरू से शुरू करते हैं :
V K Saraswat : नीति आयोग में वैज्ञानिक सलाहकार हैं। वैसे तो ये पद्म भूषन और पद्म श्री जैसे पुरस्कारों से नवाज़े गए हैं मगर साधारण विकिपीडिया सर्च इनके कच्चे चिट्ठे खोलने के लिए काफी है।
मुंबई एक ज़माने में सात द्वीपों का समूह हुआ करता था जो कि आधिकारिक रूप से सुल्तान बहादुर शाह के पास था। उधर हुमायूँ की बढ़ती शक्ति को देख कर सुल्तान ने पुर्तगालियों की मदद लेने की योजना बनाई।
सन 1534 में बसाइन की संधि के तहत सुल्तान ने मुंबई को पूरी तरह से पुर्तगालियों के हवाले कर दिया। बाद में अंग्रेजों ने मुंबई के आर्थिक, सामरिक और कूटनीतिक महत्व को समझा और एक वैवाहिक संधि के तहत पुर्तगालियों से मुंबई को दहेज़ में मांग लिया।
अंग्रेजी राजा ने मात्र दस पौंड प्रति वर्ष में मुंबई ईस्ट इंडिया कंपनी को लीज पर दे दी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुंबई के सातों द्वीपों को मिला कर आधुनिक रूप दिया। आज मुंबई भारत की आर्थिक राजधानी है। बेवकूफ आदमी के लिए हीरे और कांच के टुकड़े में कोई फर्क नहीं होता।