एक दौर में जो नायक होता है वही बदले दौर का खलयनाक होता है। भारत में इंदिरा हों या पाकिस्तान में ज़िया.. हर कोई लोकप्रियता के दौर के बाद एक वक्त के लिए नायक से खलनायक में तब्दील हुआ ही है। कुछ ऐसा ही भारत से 13 हज़ार किलोमीटर दूर बसे क्यूबा नाम के देश में हुआ। फुलगेन्शियो बतिस्ता
नाम का नायक सालों के शासन के बाद बतौर खलनायक अपने देश से भाग निकला। भागने से पहले उसने जितनी हो सकता था उतनी दौलत अपने DC-4 विमान में भर ली। उसने डोमिनियन रिपब्लिक में जाकर शरण ली जहां उसका तानाशाह दोस्त सत्ता पर काबिज़ था। वो तारीख 1959 की 1 जनवरी थी। इसके बाद क्यूबा के आसमान पर
जो सूरज चमका उसका नाम फिदेल कास्त्रो था। साल 2008 तक कास्त्रो ही क्यूबाई आसमान पर चमक बिखेरते रहे।
कास्त्रो ने क्यूबाई क्रांति की शुरूआत महज़ 82 साथियों के साथ की थी जिनमें सिर्फ 12 ही सरकारी गोलियों का शिकार होने से बच सके थे। इन 12 लोगों ने 25 महीनों के भीतर ही सारे क्यूबा को
अपने उद्देश्य से सहमत करा लिया और 80 हज़ार की सेना के मालिक बतिस्ता को भागने पर मजबूर कर दिया। फिदेल कम्युनिस्ट कम थे, क्यूबाई राष्ट्रवादी ज़्यादा थे। ये अलग बात है कि उनकी अधिकतर नीतियां समाजवादी थीं और खुद भी एक वक्त के बाद वो कम्युनिस्ट हुए ।हां, उनका छोटा भाई राउल और मशहूर
क्रांतिकारी साथी चे ग्वेरा ज़रूर शुरू से कट्टर कम्युनिस्ट थे।
फिदेल कास्त्रो से अमेरिका की चिढ़ शीतयुद्ध के ज़माने से थी। क्यूबा का दावा है कि अमेरिका की सीआईए ने 600 से भी ज़्यादा बार उन्हें जान से मारने की कोशिश की। इन कोशिशों में उनके सिगार में ज़हर मिलाने से लेकर उनकी पूर्व
प्रेमिका को ज़हरीला कैप्सूल लेकर उनके पास भेजना तक शामिल रहा। नौ अमेरिकी राष्ट्रपति आए और गए लेकिन कास्त्रो क्यूबा पर जमे रहे। एक बार अर्जेंटीना के मशहूर फुटबॉलर डिएगो माराडोना ने कास्त्रो की तारीफ कर दी। अमेरिका ने चिढ़ में उन्हें वीज़ा देने से मना कर दिया। बाद में उन्हें 8 दिन
का वीज़ा दिया गया लेकिन उनके साथियों को दस साल का वीज़ा मिला था।
फिदेल कास्त्रो का भारत से हमेशा मीठा रिश्ता रहा। नेहरू के गुटरनिपेक्षता के सिद्धांत के वो कायल थे। इंदिरा के साथ भी उनकी मुलाकातें हमेशा गर्मजोशी से भरपूर रहीं। कास्त्रो के मंत्री के तौर पर चे ग्वेरा भी क्रांति के
कुछ ही महीने बाद भारत के दौरे पर आए थे। मैंने कहीं कम्युनिस्ट नेता सीताराम येचुरी का कास्त्रो संग मुलाकात का एक किस्सा पढ़ा था। यहां साझा करता हूं। येचुरी ने ज्योति बसु के साथ 1993 में क्यूबा का दौरा किया था। डिनर करने के बाद दोनों सोने जा रहे थे कि फिदेल कास्त्रो ने उन्हें
मुलाकात का बुलावा भेजा। आधी रात को बैठ कर कास्त्रो ने दोनों नेताओं से डेढ़ घंटे की मुलाकात की। इस बातचीत में कास्त्रो ने उनसे भारत में पैदा होने वाले कोयले और लोहे को लेकर इतने सवाल किए कि ज्योति बसु ने बगल में बैठे येचुरी से बंगाली में बेचारगी से पूछा- क्या ये हमारा इंटरव्यू ले
रहे हैं...
बसु को आंकड़े याद नहीं थे और कास्त्रो इस बात को समझ रहे थे। उन्होंने येचुरी से कहा कि ज्योति बसु बूढ़े हो चुके हैं लेकिन आपको तो आंकड़े याद होने ही चाहिए। इसके बाद येचुरी जब भी क्यूबा गए अपने साथ भारत से जुड़े तमाम आर्थिक आंकड़ों का हिसाब किताब लेकर ही गए।
इसी तरह जब
बसु और येचुरी भारत लौटने के लिए हवाना के हवाई अड्डे पर बैठे थे तो अचानक कास्त्रो उन्हें विदाई देने के लिए आ गए। कास्त्रो ने कंधे पर बैग लटकाए येचुरी से पूछा कि इसमें क्या है। येचुरी ने उन्हें बताया कि बैग में कुछ किताबें हैं। कास्त्रो ने इसके बाद येचुरी को कहा कि उनके सामने कभी
कोई बैग लेकर नहीं आता क्योंकि उसमें कुछ भी हो सकता है और सीआईए उन्हें मारने की कोशिश करती रहती है। येचुरी ने भी कास्त्रो का ध्यान उनकी पिस्तौल की तरफ दिलाते हुए कहा कि आपके पास पिस्तौल है। अगर कोई आप पर हमला करे तो आप इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। बदले में कास्त्रो मुस्कुराए और बोले
- आज तुम्हें राज़ की बात बताता हूं। ये पिस्तौल मैं अपने दुश्मनों को डराने के लिए पास रखता तो हूं मगर इसमें कभी गोली नहीं रखी।
नोबेल पुरस्कार विजेता पाब्लो नेरूदा ने फिदेल के लिए जो कुछ लिखा है उसकी चार पंक्तियां लिखकर बात खत्म कर रहा हूं।
हम तुम्हारे साथ हैं: क्योंकि तुम प्रतीक
हो
हमारे दुर्धर्ष संघर्षों के, सामूहिक शौर्य के
अगर क्यूबा लड़खड़ाएगा, हम सब गिरेंगे
हम उसे संभालने को आगे बढ़ेंगे। #इतिइतिहास
• • •
Missing some Tweet in this thread? You can try to
force a refresh
‘’मैंने एक दस साल के लड़के को आते देखा। वो एक छोटे बच्चे को पीठ पर लादे हुए था। उन दिनों जापान में अपने छोटे भाई-बहनों को खिलाने के लिए अक्सर बच्चे ऐसा करते ही थे,लेकिन ये लड़का अलग था।वो लड़का यहां एक अहम वजह से आया था।उसने जूते नहीं पहने थे।चेहरा एकदम सख्त था।उसकी पीठ पर लदे
बच्चे का सिर पीछे की तरफ लुढ़का था मानो गहरी नींद में हो।लड़का उस जगह पर पांच से दस मिनट तक खड़ा रहा।इसके बाद सफेद मास्क पहने कुछ आदमी उसकी तरफ बढ़े और चुपचाप उस रस्सी को खोल दिया जिसके सहारे बच्चा लड़के की पीठ से टिका था।मैंने तभी ध्यान दिया कि बच्चा पहले से ही मरा हुआ था।उन
आदमियों ने निर्जीव शरीर को आग के हवाले कर दिया।लड़का बिना हिले सीधा खड़ा होकर लपटें देखता रहा।वो अपने निचले होंठ को इतनी बुरी तरह काट रहा था कि खून दिखाई देने लगा। लपटें ऐसे धीमी पड़ने लगी जैसे छिपता सूरज मद्धम पड़ने लगता है।लड़का मुड़ा और चुपचाप धीरे धीरे चला गया।‘’
जो तस्वीर
अपने बेटे को बुरी तरह डांटने के बाद गहरी आत्मग्लानि से भरे हुए डबल्यू लिविंगस्टन लारनेड यह पत्र हर पिता को पढ़ना चाहिए-
सुनो बेटे ! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं। तुम गहरी नींद में सो रहे हो। तुम्हारा नन्हा सा हाथ तुम्हारे नाजुक गाल के नीचे दबा है और तुम्हारे पसीना-पसीना ललाट
पर घुंघराले बाल बिखरे हुए हैं। मैं तुम्हारे कमरे में चुपके से दाखिल हुआ हूं, अकेला। अभी कुछ मिनट पहले जब मैं लाइब्रेरी में अखबार पढ़ रहा था, तो मुझे बहुत पश्चाताप हुआ। इसीलिए तो आधी रात को मैं तुम्हारे पास खड़ा हूं किसी अपराधी की तरह।
जिन बातों के बारे में मैं सोच रहा था, वे ये
है बेटे ।
मैं आज तुम पर बहुत नाराज हुआ। जब तुम स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे थे, तब मैंने तुम्हें खूब डांटा ...तुमने तौलिये के बजाए पर्दे से हाथ पोंछ लिए थे। तुम्हारे जूते गंदे थे इस बात पर भी मैंने तुम्हें कोसा। तुमने फर्श पर इधर-उधर चीजें फेंक रखी थी.. इस पर मैंने तुम्हें भला
आज भारतीय राजनीति के दो विपरीत ध्रुवों की उस मुख़्तसर सी मुलाकात पर बात करने का सही मौका है जो 124 साल पहले हुई थी।मुलाकात की जगह उसी मुल्क की राजधानी थी जिसके साम्राज्य में सूरज ना छिपने की कहावत चर्चा पाई थी।
एक था 37 साल का वो वकील जिसे लोग एमके गांधी के नाम से जानते थे।उसने
दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों के बीच नेतृत्व जमा लिया था।सरकार से बातें मनवाने का वो तरीका भी खोज लिया था जिसे पूरा भारत महज़ एक दशक बाद अपनाने वाला था।
दूसरा था 23 साल का नौजवान जिसका नाम वीडी सावरकर था। तीन महीने पहले उसने गांधी की ही तरह वकालत के लिए लंदन में दाखिला लिया था। गांधी
के शांतिपूर्ण और दिन के उजाले में संपन्न होने वाले अहिंसक आंदोलनों के ठीक उलट वो गुप्त संगठन और हथियारों के बल पर दमनकारी सत्ता को उखाड़ फेंकने का सपना देखता था।यही वजह थी कि जहां उसके गुरू का नाम बालगंगाधर तिलक था वहीं भविष्य में गांधी ने राजनीतिक गुरू के तौर पर गोपालकृष्ण गोखले