थ्रेड: #परदे_के_पीछे_क्या_है
अमेरिका में IPR के कानून बहुत स्ट्रिक्ट हैं। छोटी छोटी चीज का भी पेटेंट आसानी से हो जाता है। अगर आप खुद उस पेटेंट का इस्तेमाल नहीं करते तो भी उस पेटेंट के जरिये आसानी से तगड़ी रॉयल्टी कमा सकती है।
एक उदाहरण लेते हैं। मोटोरोला दुनिया में सबसे पुरानी कंपनियों में से एक है। उसके पास लगभग साढ़े बारह हजार पेटेंट हैं जो कि मोबाइल टेक्नोलॉजी से रिलेटेड हैं। गूगल मोबाइल सॉफ्टवेयर बिज़नेस में काफी बाद में आई।
ऐसे में गूगल को अपना एंड्राइड चलाने के लिए काफी ज्यादा रॉयल्टी मोटोरोला को देनी पड़ती थी क्योंकि बिना उसके पेटेंट इस्तेमाल किये एंड्राइड चलाना संभव नहीं था। 2011 में गूगल ने मोटोरोला को ही खरीदने कि पेशकश कर डाली। कारण सिर्फ उसके पेटेंट।
एप्पल ने भी ऐसी कई कंपनियां सिर्फ पेटेंट की रॉयल्टी बचाने के लिए ही खरीदी हैं। एक अनुमान के अनुसार एक आईफ़ोन में लगभग 30000 पेटेंट्स का इस्तेमाल होता है। आप जानते हैं कि 4G टेक्नोलॉजी के लिए अस्सी हजार पेटेंट इस्तेमाल किये जाते हैं? #StrikeAgainstSellerPm
यही कारण है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कंपनियों को टेकओवर करना कॉर्पोरेट में काफी आम है। कुछ कुछ ऐसा ही इस समय भारत में किया जा रहा है। #StrikeAgainstSellerPm #StrikeAgainstSellerPm
भारत में सरकारी बैंकों के पास बहुत से ऐसे अधिकार हैं जो कि निजी बैंकों के लिए दुर्लभ हैं जैसे पेंशन एकाउंट्स, गवर्नमेंट बिज़नेस, लोक ऋण, PSUs का बिज़नेस, कृषि ऋण माफ़ी इत्यादि। #StrikeAgainstSellerPm #StrikeAgainstSellerPm
यहाँ तक कि सरकार जिन PSUs का निजीकरण कर रही है, तो निजीकरण का ट्रांसक्शन भी सरकारी बैंकों के जरिये ही होता है। 2008 तक सरकारी बैंकों के अलावा किसी के पास विरले ही करेंसी चेस्ट मिलती थी।
अगर सरकार को एफिशिएंसी, घाटा-मुनाफा इत्यादि से मतलब होता तो बैंक बेच नहीं रहे होते। बेच रहे हैं मतलब कुछ ऐसा तो सरकारी बैंकों के पास है जो कि कॉर्पोरेट को चाहिए। और ये सिर्फ डिपॉजिट तो नहीं है।
द्रौपदी, द्रुपद की पुत्री, पांचाल की राजकुमारी, हस्तिनापुर की पुत्रवधू, पांच पांडवों की पत्नी, कृष्ण की बहन। महाभारत में द्रौपदी से महत्वपूर्ण पात्र कोई नहीं था। कृष्ण भी नहीं। कृष्ण भी जुए में हारते पांडवों को बचाने नहीं आये थे। वे आये द्रौपदी को बचाने।
पांडवों को शक्ति द्रौपदी से ही मिलती थी। युद्ध में भी पांडवों की आधी से अधिक सेना तो द्रौपदी के पिता की ही थी। द्रौपदी का भाई ही महाभारत में पांडवों का सेनापति रहा था। द्रौपदी को मिला क्या? चीरहरण, वनवास, फिर अज्ञातवास।
युद्ध के बाद द्रौपदी के पांचों पुत्र मारे गए। इतना कष्ट द्रौपदी ने झेला कि आज भी कोई अपनी बच्ची का नाम द्रौपदी नहीं रखता। बैंकों में भी एक द्रौपदी होती है। कौन है बैंक में सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी? चेयरमैन? CGM? GM? RM? जी नहीं। बैंक में सबसे महत्वपूर्ण होता है ब्रांच मैनेजर।
यहाँ मैं देख रहा हूँ क़ि कई लोगों को सरकारी कर्मचारियों की 'जॉब सिक्योरिटी' से बहुत प्रॉब्लम है। सरकारी कर्मचारियों के पास जॉब सिक्योरिटी है इसलिए आलसी है, कामचोर हैं, भ्रष्ट हैं फलाना ढिमका इत्यादि।
आइये थोड़ा इस 'जॉब सिक्योरिटी' वाले पहलू को समझते हैं। देश के सरकारी तंत्र में दो तरफ के एग्जीक्यूटिव होते हैं। एक पॉलिटिकल एग्जीक्यूटिव और दूसरे परमानेंट एग्जीक्यूटिव। पॉलिटिकल एग्जीक्यूटिव हर पांच साल मैं चुन के आते हैं।
इनको जनता और देश को जवाब देना होता है। परमानेंट वाले एक बार ज्वाइन करते हैं और रिटायर होके ही बाहर आते हैं। सवाल ये है क़ि उनको ये 'जॉब सिक्योरिटी' क्यों दी गई है। इसका एक लाइन मैं जवाब ये है क़ि ताकि वे लोग किसी बॉस के लिए नहीं बल्कि जनता/देश/आर्गेनाइजेशन के लिए काम करें।
Thank you for your composed reply against my rant.
Few things I want to say in response. 1. The comparison is inevitable in this environment. Especially when the PSBs are being sold on the pretext of bad behavior and worse service quality than the Pvt Banks.
2. Many of the PSB bankers too are culprit for the mess but the entire cadre should not be blamed for this since the real reason is the mala fide intentions of the agents of corporate that are in power.
3. If we could do (or better say allowed to do) our jobs properly, there would be no question of any such rant/agitation/'bad service quality'. Our primary demand is that 'let us do our job'.
मेरी ब्रांच शहर के एक व्यस्त इलाके में है। 2 किलोमीटर की रेडियस में लगभग 12 सरकारी बैंकें हैं और 4 निजी बैंक हैं। आज किसी काम से उन्हीं में से एक निजी बैंक जाने का मौका मिला। निजी और सरकारी का फर्क एक झटके में साफ हो गया।
लगभग 15 का स्टाफ, इन्क्वायरी के लिए अलग काउंटर, हर काम के लिए अलग काउंटर, ब्रांच मैनेजर का अलग केबिन, जिसका दरवाजा बंद रहता है। आप BM के केबिन में मुंह उठा के नहीं घुस सकते। BM केवल महत्वपूर्ण लोगों से ही मिलता है। किसी भी सामान्य काम के लिए BM के पास जाने की जरूरत नहीं।
स्टाफ भी किसी को BM के पास नहीं भेजता। हर सेक्शन को अपने कस्टमर को खुद ही डील करना है। वहां देखकर समझ आया ब्रांच मैनेजर का असली मतलब। इलाके में 12 सरकारी बैंकें हैं जिनमें से 8 ब्रांच तो एक ही बैंक की हैं।
लोग पूछते हैं कि बैंकर किसानों जैसे एकजुट होकर राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन हड़ताल क्यों नहीं कर सकते। जवाब मानसिकता में छुपा हुआ है। एक बार अमेरिकन एंथ्रोपोलॉजिस्ट्स आदिवासी बच्चों के बीच गए। 30-40 बच्चों को इकठ्ठा किया और कुछ सवाल पूछने लगे।
जैसा कि हमारे स्कूलों में होता है कि जिसको जवाब आता है वो हाथ उठाकर जवाब दे देता है। सवाल आसान थे इसलिए शोधकर्ताओं को उम्मीद थी कि यहाँ भी वैसा ही होगा। मगर किसी भी बच्चे ने कोई जवाब नहीं दिया।
विशेषज्ञों ने निष्कर्ष निकाला कि आदिवासी बच्चे आम अमरीकी बच्चों कि तुलना में दिमागी रूप से कमजोर होते हैं। बाद में इस विषय पर दोबारा स्टडी की गई। इस बार एक एक बच्चे को अलग अलग बुला के अकेले में वैसे ही सवाल पूछे गए। इस बार लगभग सबने जवाब दिए।
बेरोजगारी ऐसे ही नहीं बढ़ती। बेरोजगारी हमेशा ही कृत्रिम होती है। यह वर्कफोर्स के खिलाफ किसी भी सरकार का सबसे बड़ा हथियार होती है। वर्कफोर्स के दिमाग में हमेशा ये डर बना रहना चाहिए कि वो रिप्लेसेबल है और उसकी जगह लेने के लिए बहुत लोग तैयार बैठे हैं। #NoVoteToSellerGovt
बस यही डर दिखाकर आप उनसे नैतिक अनैतिक कोई भी काम करवा सकते हैं, काम के बोझ के नीचे दबा कर मार सकते हैं। वर्कफोर्स कोई भी मांग करे, अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश करे आप तुरंत बोल सकते हैं कि नौकरी छोड़ दो बहुत बैठे हैं तुम्हारी जगह लेने के लिए। #NoVoteToSellerGovt
ये चीज आपको आज के दौर में प्रत्यक्ष रूप से देखने को मिल जाएगी। बैंकों में जरूरत से आधा स्टाफ दिया हुआ है और काम का बोझ कई गुना बढ़ाया जा चुका है। भर्तियां भी पहले से कम कर दी हैं और ऊपर से VRS भी ला रहे हैं। #NoVoteToSellerGovt