पता नहीं, किस रचनाकार की रचना है। लेकिन, है लाजवाब.
*शब्द*
शब्द *रचे* जाते हैं,
शब्द *गढ़े* जाते हैं,
शब्द *मढ़े* जाते हैं,
शब्द *लिखे* जाते हैं,
शब्द *पढ़े* जाते हैं,
शब्द *बोले* जाते हैं,
शब्द *तौले* जाते हैं,
शब्द *टटोले* जाते हैं,
शब्द *खंगाले* जाते हैं,
... इस प्रकार
शब्द *बनते* हैं,
शब्द *संवरते* हैं,
शब्द *सुधरते* हैं,
शब्द *निखरते* हैं,
शब्द *हंसाते* हैं,
शब्द *मनाते* हैं,
शब्द *रुलाते* हैं,
शब्द *मुस्कुराते* हैं,
शब्द *खिलखिलाते* हैं,
शब्द *गुदगुदाते* हैं,
शब्द *मुखर* हो जाते हैं
शब्द *प्रखर* हो जाते हैं
शब्द *मधुर* हो जाते हैं
... इतना होने के बाद भी
शब्द *चुभते* हैं,
शब्द *बिकते* हैं,
शब्द *रूठते* हैं,
शब्द *घाव देते* हैं,
शब्द *ताव देते* हैं,
शब्द *लड़ते* हैं,
शब्द *झगड़ते* हैं,
शब्द *बिगड़ते* हैं,
शब्द *बिखरते* हैं
शब्द *सिहरते* हैं
... परन्तु
शब्द कभी *मरते नहीं*
शब्द कभी *थकते नहीं*
शब्द कभी *रुकते नहीं*
शब्द कभी *चुकते नहीं*
... अतएव
शब्दों से *खेले नहीं*
*बिन सोचे बोले नहीं*
शब्दों को *मान दें*
शब्दों को *सम्मान दें*
शब्दों पर *ध्यान दें*
शब्दों को *पहचान दें*
ऊंची लंबी *उड़ान दें*
शब्दों को *आत्मसात करें*
उनसे उनकी बात करें,
शब्दों का *अविष्कार करें*
गहन सार्थक *विचार करें*
... क्योंकि
शब्द *अनमोल* हैं
ज़ुबाँ से *निकले बोल हैं*
शब्दों में *धार होती है*
शब्दों की *महिमा अपार होती* है
शब्दों का *विशाल भंडार* होता है
मीरा नायर ने दो समलैंगिक महिलाओं पे एक फ़िल्म बनाई थी फायर,
जिसमे एक का नाम राधा और दूसरी का नाम सीता था!!
मकबूल फिदा हुसैन नामक एक पेंटर हुआ करते थे जो हिन्दू देवियों की अश्लील पेंटिंग बनाया करते थे!!
दाऊद इब्राहिम को महिमामंडित करने के लिए कंपनी और डी जैसी फिल्में बनाई
जाती थी!
उस दौर में भी हम सब इनका विरोध करते थे तो कांग्रेस शासन में लाठी डंडों से स्वागत किया जाता था!!
हमारी विचारधारा में एक बात समझाई जाती थी,
अगर किसी देश को खत्म करना है तो उसकी संस्कृति को खत्म कर दो वो देश खुद ब खुद खत्म हो जाएगा!
आज फ़िल्म बन रही है रानी लक्ष्मी बाई पे, उरी की सर्जिकल स्ट्राइक पे, बाला साहेब पे, और ऐसे कई अच्छे विषयो पे जिनमे भारत ने कामयाबी के झंडे गाड़े हैं!!
अब अयोध्या में शानदार आयोजन कर दीवाली मनाई जा रही है जो आज तक तो किसी ने मनवाने की जहमत नही उठायी,
श्री शैलेन्द्र वाजपेयी मौजी लेखक हैं और खिंचाई में माहिर। उनकी यह विशुद्ध हास्य भाव की टिप्पणी पढ़नी चाहिए, बिल्कुल ठंढे मन से।
*
ठंड एक अनोखा व्यंग कृपया अन्यथा न लें।
केवल आनंद लीजिए, छीटाकसी नही है।
देश भर में पड़ रही कंपकपाती ठण्ड पर विभिन्न दलों/नेताओं की
राय इस प्रकार हो सकती हैं।
भाजपा- ये कंपकपाती ठण्ड सबका साथ, सबका विश्वास का अद्भुत उदाहरण है। ये ठण्ड बिना किसी जाति, धर्म के भेदभाव किए बिना सभी पर समान रूप से पड़ रही है। हम इस सद्भावनापूर्ण ठण्ड का स्वागत करते हैं। भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं।
कांग्रेस - ऐसा नही हैं कि ये ठण्ड हमारी सरकार में नहीं पड़ती थी, पड़ती थी किन्तु ऐसी भेदभावपूर्ण, विद्वेषपूर्ण ठण्ड आज से पहले कभी नहीं पड़ी। हम पूछना चाहते हैं इस सरकार से अल्पसंख्यक इलाकों में ही ज्यादा ठण्ड क्यों पड़ रही हैं ❓❓.. लोकतंत्र में इतनी ठण्ड बर्दाश्त नहीं।
कारगिल युद्ध के दौरान भारतीय सेना के चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ रहे जनरल वीपी मलिक अपनी किताब "इंडियाज मिलिट्री कॉन्फ्लिक्टस एंड डिप्लोमेसी" में कहते हैं कि युद्ध के दौरान जब उन्होंने आर्म्स और एम्यूनशन की शॉर्टेज पर सरकार का ध्यान आकर्षित कराया था, तब उस समय के एक सीनियर
ब्यूरोक्रेट ने उनकी इस बात पर आलोचना की थी कि उन्होंने प्रेस में कहा था कि "हमारे पास जो कुछ भी है हम उसके साथ लड़ेंगे।"
जनरल मलिक कहते हैं कि जबकि उस समय शॉर्टेज का कारण बजटरी सपोर्ट में लगातार कमी और एक ऑलमोस्ट नॉन फंक्शनल प्रोक्योरमेंट सिस्टम था।
अब सोंचिये कि ऐसा क्यों था? राव, देवगौड़ा, गुजराल के बाद अटल जी की सरकार थी जो मात्र कुछ ही महीने पुरानी थी। तो यह लगातार कमी जो कि सालों की थी वो किस कारण थी और ऐसा बंद सा पड़ा प्रोक्योरमेंट सिस्टम था, वो किस कारण था?
जनरल मलिक बताते हैं कि रक्षा मंत्री के साथ होने वाली
🙏सन् 1840 में काबुल में युद्ध में 8000 पठान मिलकर भी 1200 राजपूतो का मुकाबला 1 घंटे भी नही कर पाये।
वही इतिहासकारो का कहना था की चित्तोड की तीसरी लड़ाई जो 8000 राजपूतो और 60000 मुगलो के मध्य हुयी थी वहा अगर राजपूत 15000 राजपूत होते तो अकबर भी जिंदा बचकर नहीं जाता।
इस युद्ध में 48000 सैनिक मारे गए थे जिसमे 8000
राजपूत और 40000 मुग़ल थे वही 10000 के करीब
घायल थे।
और दूसरी तरफ गिररी सुमेल की लड़ाई में 15000
राजपूत 80000 तुर्को से लडे थे, इस पर घबराकर शेर
शाह सूरी ने कहा था "मुट्टी भर बाजरे (मारवाड़)
की खातिर हिन्दुस्तान की सल्लनत खो बैठता"
उस युद्ध से पहले जोधपुर महाराजा मालदेव जी नहीं गए
होते तो शेर शाह ये बोलने के लिए जीवित भी नही
रहता।
इस देश के इतिहासकारो ने और स्कूल कॉलेजो की
किताबो मे आजतक सिर्फ वो ही लडाई पढाई
जाती है जिसमे हम कमजोर रहे,
वरना बप्पा रावल और राणा सांगा जैसे योद्धाओ का नाम तक सुनकर
मुझे नहीं पता आपमें से कितनों को मुजफ्फरनगर वाला जाट नरसंहार याद है या नहीं, किंतु मुझे भली प्रकार याद है.....
तब देश में कांग्रेस की सरकार थी चौधरी अजीत सिंह कांग्रेस के सहयोगी थे और सरकार में सम्मिलित भी थे ....
तब शांतिदूतों द्वारा एक जाट लड़की से छेड़खानी का विरोध करने पर
लड़की के दोनों भाइयों को शांतिदूतों की भीड़ द्वारा दौड़ाकर चक्की के पाटों से कुचलकर मारा गया था.
दोनों लड़कों की स्थिति ऐसी थी कि चेहरा तक पहचानना संभव नहीं था.
तब प्रदेश में समाजवादी सरकार थी आजम खान की तूती बोला करती थी.
मुलायम अखिलेश सपने में भी आजम के तलवे में दबे रहते थे.
मीडिया तब पूरी तरह से कांग्रेस के इशारों पर काम करता था, ये न्यूज़ उनके एजेंडे को सूट नहीं करती थी अतः कवरेज भी नहीं मिली,
तब जाटों द्वारा एक महापंचायत का आवाह्न किया गया और उस आह्वान पर महापंचायत में सम्मिलित होने के बाद वहां से लौटते समय शांतिदूतों की भीड़ द्वारा घात लगाकर
हर चीज पर प्रश्न उठाना लोकतंत्र है, चाहे शहीद जवानों की ज्योति क्यों ना हो! लोकतंत्र में प्रश्न को दबाया नहीं जा सकता!
इसलिए राष्ट्र पर जब भी प्रश्न उठेगा एक राष्ट्रभक्त अवश्य डिफेंस में आएगा। विश्व में शायद ही ऐसा कोई देश होगा जिसने अपने संप्रभुता की लड़ाई में शहादत दी हो और
उसके पास अपना वॉर मेमोरियल ना हो। प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटेन लड़ा तो मित्र राष्ट्र की तरफ से सहादत के लिए इंडिया गेट भारत में बना दिया।
लेकिन जब 1971 के युद्ध में हमारे 3,843 सैनिक शहीद हुए तो उसी इंडिया गेट में एड हॉक अरेंजमेंट किया गया और अमर जवान ज्योति जलाई गई। न कि अलग से
कोई छोटा सा स्मारक भी बनाया गया। कितने शर्म की बात है यह?
मोदी जी ने 2019 में स्मारक बनवाया। नाम है नेशनल वॉर मेमोरियल। 26,466 शहीद सैनिकों के सम्मान में। आज उस अमर जवान ज्योति को नेशनल वॉर मेमोरियल में ले जाया जाएगा, दोपहर के 3:30 में।