लोगों की एक मानसिकता है कि सरकार का विरोध नहीं करना चाहिए। क्यूंकि अगर सरकार का विरोध करोगे तो फिर सरकार के सामने अपनी मांगें कैसे रख पाओगे? लॉजिकली सही बात है।
जिससे लड़ाई लड़ोगे, जिसके खिलाफ आवाज उठाओगे उससे तो ये उम्मीद तो नहीं करोगे न कि वो तुम्हारे भले की सोचे, तुम्हारी जरूरतें पूरी करे। जैसे, अगर बैंकर सरकार की विदेश नीति, कृषि नीति, आर्थिक नीति पर सवाल उठाते हैं तो फिर सरकार को पूरा हक़ है कि वो आपको निजी हाथों में सौंप दे।
कम से कम सरकार में बैठे कुछ लोग और सरकार के समर्थक तो यही मानते हैं। इसके प्रत्युत्तर में मैं दो तर्क दूंगा। जब 1885 में कांग्रेस का गठन हुआ था तो वहां नरम दल का राज था। ये लोग अंग्रेज सरकार का विरोध तो करते थे मगर तरीके से।
इनकी चिट्ठियां "Your Excellency, Hon'ble" जैसे शब्दों से शुरू हुआ करती थी। ये लोग सरकार की असेंबली और एग्जीक्यूटिव कॉउन्सिल में भारतीयों के लिए पद बढ़वाने में कामयाब भी हुए थे। गांधीजी भी अंग्रेजों का विरोध करते थे उनके खिलाफ भाषण देते थे, उनकी नीतियों के खिलाफ लिखते थे,
तब भी अंग्रेज उनसे मिलते थे और कभी कभी कुछ मांगें मानते भी थे। अगर अंग्रेज सरकार अपने खिलाफ विरोध को स्वीकार कर सकती है तो ये तो लोकतान्त्रिक सरकार है। अब दूसरे तर्क पर आता हूँ। जब भी हम किसी सरकारी पोस्ट से इस्तीफ़ा देते हैं तो रेजिग्नेशन लेटर अनकंडीशनल होना जरूरी है।
नहीं तो अक्सर स्वीकार नहीं होता। मतलब आप लेटर में ये नहीं लिख सकते कि चूंकि मेरे मेडिकल बिल पास नहीं होते या मेरा सीनियर खराब है या वर्किंग कल्चर खराब है इसलिए मैं इस्तीफ़ा दे रहा हूँ।
क्यूंकि सरकार का मानना है कि अगर आपको कोई शिकायत है तो उसके निराकरण और शिकायत के लिए आपको पर्याप्त साधन दिए गए हैं (ऐसा है नहीं मगर सिस्टम यही मानता है)। अगर आपको नौकरी छोड़ने है तो ख़ुशी से छोड़िये, मगर आपको सिस्टम से शिकायत है तो उसकी शिकायत कीजिये, जहाँ तक जाना है जाइये।
लेकिन सिस्टम में कमी को आधार बनाकर सिस्टम नहीं छोड़ सकते क्यूंकि आप भी सिस्टम का पार्ट माने जाते हैं और इसको सुधारना आपकी भी जिम्मेदारी है। यही बात सरकार पर लागू होती है। सरकार ने खुद संविधान में विरोध का अधिकार दिया है। और सरकार को सुनना ही पड़ेगा।
सरकार कोई आदमी नहीं है कि अगर आप उसके खिलाफ बोलोगे तो बुरा मान के बैठ जाएगा और आपके खिलाफ हो जाएगा। रूसो अपनी सोशल कॉन्ट्रैक्ट थ्योरी (जिसपर आधुनिक शासन पद्धति आधारित है ) में कहते हैं हैं कि "government attains its right to exist and to govern by “the consent of the governed.”।
अगर आप सरकार का विरोध सिर्फ इसलिए नहीं कर रहे हैं क्यूंकि आप सरकार द्वारा कार्यवाही किये जाने से डरते हैं या फिर आपके विरोध करने पर सरकार आपके खिलाफ कार्यवाही करती है (बशर्ते विरोध का तरीका संवैधानिक होना चाहिए) तो आप कम से कम लोकतांत्रिक शासन में तो नहीं रहते।
और अगर आप सरकार के फेवर लेने के लिए सरकार की गलत नीतियों का विरोध करना बंद कर दोगे तो एक लोकतान्त्रिक सरकार भी तानाशाह बन जायेगी। शासक का अंध-समर्थन शासक को तानाशाह बना देता है।
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अधिकतर बातों से सहमत हूँ। लेकिन "स्वहित" पूरा होने से सरकार का समर्थक बन जाने वाली बात से नहीं। अगर ये बात एक व्यक्ति के लिए कही गई है तो सही है। मगर ऐसा होना नहीं चाहिए। स्वहित पूरा होने से सरकार समर्थक बन जाने वाली समस्या से ही तो हमारे नौकरशाह और यूनियन लीडर ग्रसित हैं।
इनके अपने हित पूरे हो रहे हैं इसलिए देश और बैंकर जाए भाड़ में। सरकार भी यही चाहती है। आपका पेटभरा रहे तो दूसरे के भूखे होने पे सवाल मत उठाओ। इसमें कोई दोराय नहीं कि सोशल मीडिया पर बहुत सारे नैरेटिव चलते हैं। कई देश विरोधी भी हैं।
उदाहरण के तौर पर The Wire के संस्थापक को लेते हैं। इनका न्यूज़ पोर्टल बेहूदगी की हद तक जाकर भारत और भारतीय संस्कृति और की आलोचना करने से नहीं चूकता। कई लोग जानते भी होंगे कि इनके ही भाई एक अलगाववादी हैं और द्रविड़िस्तान बनाने का सपना देखते हैं। और भी ऐसे कई गिना सकता हूँ।
साहब: यहाँ हम किसी को टारगेट नहीं देते। BM खुद अपने टारगेट सेट करते हैं। BM साहब, पिछले महीने किया बीमा किया?
BM: सर, 4 लाख।
साहब: पिछली मीटिंग में आपने कितना प्रॉमिस किया था?
BM: सर, 10 लाख।
साहब: फिर क्यों नहीं कर पाए? टारगेट खुद आपने ही बताया था न। खुद का टारगेट भी अचीव नहीं कर पाए?
BM: सर वो इस महीने एक स्टाफ छुट्टी पे था तो काम का लोड बढ़ गया था। फिर क्वार्टर क्लोजिंग थी इसलिए NPA रिकवरी भी करनी थी। लोक अदालत के नोटिस...
साहब: ये सब मुझे मत सुनाओ। BM तुम हो या कोई और?
BM : मैं ही हूँ सर।
साहब: तो ब्रांच की जिम्मेदारी किसकी है? NPA रिकवरी, लोक अदालत, ये सब मैं देखूँगा? ब्राँच के रेगुलर काम के लिए अलग से आदमी चाहिए तुमको? बैंकिंग का मतलब सिर्फ डेबिट-क्रेडिट नहीं होता।
नए बिज़नेस खुल रहे हैं मगर या किसी न किसी तरीके से बड़े उद्योगपतियों का शिकार बन रहे हैं। यानी मार्किट में कम्पटीशन बढ़ने की बजाय कुछ बड़े उद्योगपतियों की मोनोपोली होती जा रही है। (ठीक वैसे ही जैसे मार्क्स ने कहा था)।
बड़ी कंपनियां बैंकों से लोन लेने की जगह सीधे मार्केट से पैसा उठाना ज्यादा पसंद कर रही हैं। और सरकारी बैंक हैं कि छोटे लोन की जगह बड़ी कंपनियों की तरफ ही भागे जा रहे हैं। और छोटे उद्योगों को PSBs से लोन नहीं मिल पा रहा।
कारण?
- सरकारी बैंकों में आजकल लोन के डिसीजन ब्रांचों के हाथों से छीन कर केंद्रीकृत कर दिए गए हैं। इससे छोटे लोन की प्रक्रिया भी जटिल हो गई है।
1998 में एक फिल्म आई थी "The Truman show". प्लॉट ये था कि माँ बाप अपने होने वाले बच्चे के जीवन भर के टेलीकास्ट राइट्स एक TV निर्देशक को बेच देते हैं।
बच्चे के पैदा होने से वयस्क होने तक उसकी जिंदगी को पांच हजार कैमरों के जरिये रिकॉर्ड करके TV पर लाइव टेलीकास्ट किया जाता है। सिर्फ यही नहीं, TRP की मांग के अनुसार उसकी जिंदगी नियंत्रित भी की जाती है, कहाँ नौकरी करेगा, क्या खायेगा, क्या पढ़ेगा, किससे प्यार करेगा, शादी करेगा इत्याद
उसे नहीं पता मगर दुनिया के लिए वो सुपरस्टार है, निर्देशक के लिए वो सोने के अंडे देने वाली मुर्गी है। मगर इससे उसको क्या जब उसका खुद का जीवन ही उसका नहीं। कभी कभी ऐसा लगता है कि ये मेरे ही जीवन की कहानी है। जिंदगी में कितने निर्णय होंगे जो मैंने स्वतंत्र होकर लिए होंगे?
एक गरुड़ पुराण बैंकों के लिए भी होना चाहिए। जैसे वहां नर्क के लेवल बताए गए हैं, बैंकों के अपने नर्क होते हैं। जैसे गरुड़ पुराण में लिखा है कि फलाना पाप करोगे तो फलाने नर्क में फेंक दिए जाओगे, ऐसा बैंकों में भी है। हर सर्किल के अपने नर्क हैं।
गुजरात में धमकी मिलती है कि सौराष्ट्र में फेंक देंगे, अगर पहले से सौराष्ट्र में हो तो अमरेली में। राजस्थान में यही दर्जा डूंगरपुर बांसवाड़ा बाड़मेर को दिया गया है। (बशर्ते ये आपके होम डिस्ट्रिक्ट न हों, नहीं तो आपके लिए अलग नर्क बताया जाएगा)।
उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल, बिहार में सीमांचल इत्यादि इत्यादि। इन नर्कों का डर दिखाकर आप बैंकर से कोई भी अनैतिक काम करवा सकते हैं। वो FD तोड़ के बीमा करवाएगा, 85 साल के कस्टमर की जमा पूंजी 5 साल की लॉक इन पीरियड वाली स्कीम में लगवा देगा।
द्रौपदी, द्रुपद की पुत्री, पांचाल की राजकुमारी, हस्तिनापुर की पुत्रवधू, पांच पांडवों की पत्नी, कृष्ण की बहन। महाभारत में द्रौपदी से महत्वपूर्ण पात्र कोई नहीं था। कृष्ण भी नहीं। कृष्ण भी जुए में हारते पांडवों को बचाने नहीं आये थे। वे आये द्रौपदी को बचाने।
पांडवों को शक्ति द्रौपदी से ही मिलती थी। युद्ध में भी पांडवों की आधी से अधिक सेना तो द्रौपदी के पिता की ही थी। द्रौपदी का भाई ही महाभारत में पांडवों का सेनापति रहा था। द्रौपदी को मिला क्या? चीरहरण, वनवास, फिर अज्ञातवास।
युद्ध के बाद द्रौपदी के पांचों पुत्र मारे गए। इतना कष्ट द्रौपदी ने झेला कि आज भी कोई अपनी बच्ची का नाम द्रौपदी नहीं रखता। बैंकों में भी एक द्रौपदी होती है। कौन है बैंक में सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी? चेयरमैन? CGM? GM? RM? जी नहीं। बैंक में सबसे महत्वपूर्ण होता है ब्रांच मैनेजर।