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रात, चांद और तुम मेरे सबसे करीबी हैं। मुझे लगता है मैं ही वो रात हूं जिसके फ़लक पर चांद हर साल आज की रात अपने सबसे वृहत रूप में खिलता है। आज का चांद हमेशा से मुझे तुम सा लगता रहा है। तुम्हारी ही तरह गर्मी और शीत ऋतु की उहापोह में उलझा हुआ सा!
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न मुझसे अपने मन की उष्मा बांट पाता है और न ही पूरी तरह सर्द होकर मुझसे दूर हो पाता है! तुम्हारा यश इसी चांद की रोशनी की तरह हर तरफ फैला तो है मगर इन्हीं किरणों के घेरे में तुम तन्हा भी हो। यह एक अभेद्य किले सा है तुम्हारे इर्द-गिर्द जिसके अंदर कोई जा नहीं सकता।
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अपनी ही मर्जी से ख़ुद को इसमें क़ैद कर भी तुम अपनी उन्मुक्तता नहीं पा सके हो। ज्यों ज्यों रात गहराती है, रोशनी का घेरा बढ़ता है, चांद ऊंचाइयों पर अकेला होता जाता है और फिर सोलह कलाओं के बाद उसका तिल-तिल घटना कचोटता है मुझे। बस यही होते नहीं देखना चाहती मैं।
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तुम्हारी इस शीतलता को हमेशा इसी रूप में देखना चाहती हूं। तुम्हें शरद पूर्णिमा का चांद तो बनते देखना चाहती हूं पर तुम्हें एकाकी देखना मंज़ूर नहीं। मत भूलो कि ये रात है तुम्हारे नेपथ्य में, हर पल , हर घड़ी, हर उस रात जब सब तुम्हारी ओर देख अपने दर्द तुमसे बांट रहे हों और..
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तुम उन्हें सहते थक जाओ; जब भी आंसू बहने से न रोक पाओ और एक कंधा चाहिए हो सर टिकाने को; जब सदियों की यात्रा से थककर झपकी लेना ज़रूरी हो जाए; जब अपने घटते-बढ़ते आकार से परेशान होकर आओ;
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जब बादलों की ओट से निकलने को उनसे लड़कर थक जाओ और जब कभी कई पहर आंखों में काटने की नौबत आ जाए, तुम्हारी रात होगी तुम्हारे पास, तुम्हें ख़ुद में समेट लेने को!
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~तूलिका
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कभी कभी सोचती हूं कि मुझसे ख़ुद के बारे में लिखने को कह दिया किसी ने तो मैं क्या लिखूंगी। मैं क्या ही लिख पाऊंगी, कुछ भी तो नहीं जानती अपने बारे में। कभी ख़ुद को यथार्थ की तरह जिया नहीं है, प्रत्यक्ष रूप से देखा ही नहीं अबतक। मेरा कोई ठोस प्रतिरूप नहीं बना कभी। 1/n
कब से यूं निराकार भटकती आ रही हूं?मेरे रास्ते किसने तय कर रखे हैं? किसी ने मेरी पदचाप,मेरी आहटें, मेरी कराहना नहीं सुनी कभी? यह यात्रा कब तक मुझे अपने अस्तित्व तक नहीं पहुंचने देगा?इस भावनात्मक यात्रा से भी कठिन है भौतिक यात्रा।एक शहर छोड़कर दूसरे शहर में आना उतना ही कठिन है..2/n
जितना अपनी पहचान भूलकर नयी पहचान बनाने की कोशिश।
एक जगह को अपना बसेरा बनाओ, उसे घर का दर्जा दे दो, फिर एक दिन सारा सामान समेटकर अचानक से उसे छोड़कर निकल जाओ। उस खाली घर को वह सूनापन कैसा लगता होगा जो केवल यादों से भरा पड़ा हो! 3/n
पिछले कुछ सालों से हर शरद पूर्णिमा की रात कुछ न कुछ लिखती हूं। पहली बार तुम्हारे कहने पर तुम्हारे ही लिए एक कविता लिखी थी। तुम्हारी सबसे पहली और पुरानी याद वही है मेरे पास। वो कविता हमें करीब भी लायी थी और अब हमारी दूरियों की माप भी है।
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रात,चाँद और तुम मेरे सबसे करीबी हैं।मुझे लगता है मैं ही वो रात हूं जिसके फ़लक पर चाँद हर साल आज की रात अपने सबसे वृहत रूप में होता है।आज का चाँद हमेशा से मुझे तुम सा लगता रहा है,तुम्हारी ही तरह गर्मी और शीत ऋतु की उहापोह में उलझा हुआ सा!न मुझसे अपने मन की उष्मा बांट पाता है..
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..और न ही पूरी तरह सर्द होकर मुझसे दूर हो पाता है! तुम्हारा यश इसी चाँद की रोशनी की तरह हर तरफ फैला तो है मगर इन्हीं किरणों के घेरे में तुम तन्हा भी हो। यह एक अभेद्य किले सा है तुम्हारे इर्द-गिर्द जिसके अंदर कोई जा नहीं सकता। अपनी ही मर्जी से ख़ुद को इसमें क़ैद कर भी..
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