गोत्र क्या है? तथा भारतीय सनातन आर्य परम्परा में इसका क्या सम्बंध है?
भारतीय परम्परा के अनुसार विश्वामित्र, जमदग्रि, वसिष्ठ और कश्यप की सन्तान गोत्र कही गई है-
"इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि किसी परिवार का जो आदि प्रवर्तक था, जिस महापुरुष से परिवार चला उसका नाम परिवार का गोत्र बन गया और उस परिवार के जो स्त्री-पुरुष थे वे आपस में भाई-बहिन माने गये,
क्योंकि भाई बहिन की शादी अनुचित प्रतीत होती है, इसलिए एक गोत्र के लड़के-लड़कियों
का परस्पर विवाह वर्जित माना गया।
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य कुलस्थ के लोगों के लिए गोत्र व्योरा रखना इसी लिए भी आवश्यक है क्योंकि गोत्र ज्ञान होने से उसके अध्ययन की परम्परा में उसकी शाखा-प्रशाखा का ज्ञान होने से तत सम्बन्धी वेद का पठन―पाठन पहले करवाया जाता है पश्चात अन्य शाखाओं
का!
किन्तु आज हिंदुओं में गोत्र को स्मरण रखने की परंपरा का त्याग करने से गोत्र संकरता बढ़ रही है। और सगोत्र विवाह आदि होना आरम्भ हो गया है।
इसी लिए आज सुबह मैंने यह प्रश्न रखा था कि घरवापसी वालो का या अज्ञात गोत्र धारियों का गोत्र निश्चय कैसे होगा?
गोत्र के सम्बन्ध में
#याज्ञवल्क्य और #बौधायन दोनों का मत है कि कालान्तर में गोत्रों की संख्या सात न रहकर हज़ारों में हो गई।
तब एक वंश-परम्परा में खानदान का जो मुख्य व्यक्ति हुआ, चाहे वह आदि काल में हुआ, चाहे बीच के काल में हुआ, उसके नाम से गोत्र चल पड़ा !
यहाँ तक में तो कोई दिक्कते नही है।
'परम्परा प्रसिद्धं गोत्रम्'- याज्ञवल्क्य गोत्र सम्बन्धी परम्परा का निष्कर्ष यह है कि जिन लोगों का आदिपुरुष एक माना गया वे आपस में भाई-बहिन माने जाने से उनके बीच विवाह निषिद्ध माना गया।
आधुनिक विचारकों की दृष्टि से सपिण्डों में विवाह न करने का तो प्रजनिक (Eugenic) आधार है,
गोत्र, प्रवर आदि में विवाह न करने का भावनात्मक आधार तो हो सकता है,
उसका प्रजनिक आधार अत्यन्त शिथिल है।
जहाँ तक व्यवहार का सम्बन्ध है, हिन्दूसमाज में सपिण्ड विवाह पहले भी होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं।
उदाहरणार्थ - अर्जुन ने अपने मामा की लड़की सुभद्रा से विवाह किया जिससे
उसका पुत्र अभिमन्यु पैदा हुआ। यह मुमेरे-फुफेरे भाई-बहिन (Maternal cousins) का विवाह था।
श्रीकृष्ण के लड़के प्रद्युम्न का विवाह भी अपने मामा की लड़की रुक्मावती के साथ हुआ था।
श्रीकृष्ण के पोते अनिरुद्ध ने अपने मामा की लड़की रोचना से और परीक्षित ने अपने मामा की लड़की इन्द्रावती
से विवाह किया था।
सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध) का विवाह अपने मामा की लड़की यशोधरा से हुआ था और पृथ्वीराज चौहान ने अपनी मौसी की लड़की संयुक्ता से विवाह किया था
नोद्वहेत्कपिलां कन्यां नाधिकाङ्क्षीं न रोगिणीम्।
नालोमिकां नातिलोमांन वाचाटां न पिङ्गलाम् ॥ ६ ॥
दक्षिण भारत में मामा
की लड़की से विवाह होना आम बात है। मेरे गुरुकुल के एक दक्षिण पंथी ब्राह्मण मित्र ने भी इसकी पुष्टि मेरे समक्ष की थी।
किसी-किसी जाति (वर्ग) में भांजी और साली―साले की लड़की से भी विवाह करने का रिवाज है।
सम्भव है, दक्षिण में सपिण्ड विवाह होने का कारण वहाँ प्रचलित मातृसत्तात्मक
परिवार (Matriarchal Family) रहा हो।
लेकिन ऐसा विधान स्मृति आदि में कही नही लिखा है।
परन्तु यह सब महाभारत काल से आरम्भ हुआ जो आर्यावर्त (भारतवर्ष) के सांस्कृतिक तथा नैतिक पतन का काल माना जाता है।
शास्त्रसम्मत न होने से उस काल के कृत्यों को आदर्श नहीं माना जा सकता क्योंकि
की ये ऋषियों द्वारा स्थापित परम्परा नहीं है।
वस्तुतः एक रक्त के सम्बन्धियों में विवाह होना हितकर नहीं है- न प्रजनिक (Eugenic) आधार पर और न भावनात्मक ( Emotional) आधार पर।
महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने इसी लिए लिखा है कि जब तक दूरस्थ कुल के साथ सम्बन्ध नहीं होता तब तक शरीर आदि
की पुष्टि पूर्ण नहीं होती।
यहां दुरस्थ कुल से ऐसा आशय भी ग्रहण करना चाहिए कि जिस कुल का स्व कुल से सामीप्य न हो।
उनके इस शास्त्रानुमोदित कथन की आधुनिक प्रजनन विज्ञान (Science of Eugenies) से पुष्टि होती हैं।
यहाँ प्रश्न उठता है कि जैसे पिता का गोत्र छोड़ा जाता है वैसे ही माता
का गोत्र न छोड़कर केवल छह पीढ़ियाँ ही छोड़ना काफ़ी क्यों माना गया है?
माता के समान पिता की भी छह पीढ़ियाँ ही छोड़नी चाहिएँ थीं।
इस विषय में हमारा यह कहना है कि माता-पिता के रक्त का एक-सा प्रभाव नहीं होता।
बीज के तुल्य पृथ्वी की प्रधानता नहीं होती। यदि एक ही भूमि में विभिन्न
प्रकार के बीज बोये जाएँ तो पृथ्वी के एक जैसी होने पर भी विभिन्न प्रकार की उपज होगी।
आयुर्वेद के अनुसार सन्तान उत्पन्न करने में स्त्री का रज मुख्यतः बीज की रक्षा करने का काम करता है।
मुख्यता बीज की होती है। पिता की भाँति माता का भी कुल पूरी तरह छोड़ दिया जाए तो अति उत्तम है,
परन्तु माता की छह पीढ़ियाँ छोड़ देने से भी काम चल सकता है,
क्योंकि इतने से ही रक्त में आनेवाले दोषों से बचा जा सकता है।
वीर्य की प्रधानता होने से पिता के गोत्र को पूरी तरह छोड़ना महर्षि मनुजी ने आवश्यक समझा।
रोग, चरित्र और नामवाली बात लड़के-लड़की दोनों के लिए समान रूप से
आवश्यक है।
इसलिए इसमें जो कुछ कन्या के लिए कहा गया है वह सब वर के लिए भी आ जाता है।
ऋषियों ने ये शर्तें भावी सन्तति को रोग और दोष से मुक्त करने की दृष्टि से लगाई हैं।
किसी असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्ति की सूचना मिलने पर परीक्षोपरान्त ही विवाह होना चाहिए।
माता-पिता को एक-
दूसरे से रोग लगने की अपेक्षा उनकी सन्तान के उस रोग से पीड़ित होने का भय अधिक होता है।
यह भी देखा गया है कि पुत्र को रोग न हो तो पोते को हो सकता है।
इसलिए जहाँ तक हो सके इस विषय में अधिक-से-अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है।
प्रजननशास्त्र के कई आधुनिक लेखक भिन्न-भिन्न रोगवाले
कुलों में विवाह सम्बन्ध की अनुमति देते हैं, परन्तु हमारे शास्त्रकार महर्षि मनु इतनी छूट देना अनुचित ही समझते है।
वे असाध्य रोगों को निर्मूल करना चाहते थे।
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भारत जिसे हम हिंदुस्तान, इंडिया, सोने की चिड़िया, भारतवर्ष ऐसे ही अनेकानेक नामों से जानते हैं। आदिकाल में विदेशी लोग भारत को उसके उत्तर-पश्चिम में बहने वाले महानदी सिंधु के नाम से जानते थे, जिसे ईरानियो ने हिंदू और यूनानियो ने शब्दों
का लोप करके 'इण्डस' कहा। भारतवर्ष को प्राचीन ऋषियों ने 'हिन्दुस्थान' नाम दिया था जिसका अपभ्रंश 'हिन्दुस्तान' है।
(हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।
भारत में रहने वाले जिसे आज लोग हिंदू नाम से ही जानते आए हैं।
भारतीय समाज, संस्कृति, जाति और राष्ट्र की पहचान के लिये हिंदू शब्द लाखों वर्षों से संसार में प्रयोग किया जा रहा है विदेशियों नेअपनी उच्चारण सुविधा के लिये
👉1. आज काफी लड़कियों के माँ- बाप अपनी बेटियों की शादी में बहुत विलंब कर रहे हैं उनको अपने बराबरी के रिश्ते पसंद नहीं आते और जो बड़े घर पसंद आते हैं उनको लड़की पसंद नहीं आती,शादी की सही उम्र 20 से 25 होती है। #Thread
आज माँ-बाप ने और अच्छा करते-करते उम्र 30 से 36 कर दी है,जिससे उनकी बेटियों के चेहरे की चमक भी कम होती जाती है, और अधिक उम्र में शादी होने के उपरांत वो लड़का उस लड़की को वो प्यार नहीं दे पाता जिसकी हकदार वो लड़की है!
किसी भी समाज में 30% डिवोर्स की वजह यही दिखाई
दे रही है,आज जीने की उम्र छोटी हो चुकी है, पहले की तरह 100+ या 80+ नहीं होती। अब तो केवल 65+ तक जीने को मिल पायेगा, इसी वजह से आज लड़के उम्र से पहले ही बूढ़े नजर आते हैं,सर गंजा हो जाता है।
👉2. आज ज्यादातर लड़की वाले लड़के वालों को वापस हाँ /ना का जवाब नहीं दे रहे
श्री हरि के रक्त से उत्पन्न हुई है उज्जैन की शिप्रा (क्षिप्रा) नदी, जहां हर 12 वर्ष बाद सिंहस्थ कुंभ का आयोजन किया जाता है। कुंभ विश्व का सबसे बड़ा मेला है। एक किंवदंती के अनुसार शिप्रा नदी विष्णु जी के रक्त से
उत्पन्न हुई थी।
ब्रह्म पुराण में भी शिप्रा नदी का उल्लेख मिलता है। संस्कृत के महाकवि कालिदास ने अपने काव्य ग्रंथ 'मेघदूत' में शिप्रा का प्रयोग किया है, जिसमें इसे अवंति राज्य की प्रधान नदी कहा गया है।
महाकाल की नगरी उज्जैन, शिप्रा के तट पर बसी है। स्कंद पुराण में शिप्रा नदी
की महिमा लिखी है। पुराण के अनुसार यह नदी अपने उद्गम स्थल बहते हुए चंबल नदी से मिल जाती है। प्राचीन मान्यता है कि प्राचीन समय में इसके तेज बहाव के कारण ही इसका नाम शिप्रा प्रचलित हुआ।
शिप्रा नदी का उद्गम स्थल मध्यप्रदेश के महू छावनी से लगभग 17 किलोमीटर दूर जानापाव की पहाडिय़ों
कहते हैं नर्मदा ने अपने प्रेमी शोणभद्र से धोखा खाने के बाद आजीवन कुंवारी रहने का फैसला किया लेकिन क्या सचमुच वह गुस्से की आग में चिरकुवांरी बनी रही या फिर प्रेमी शोणभद्र को दंडित करने का यही बेहतर उपाय लगा कि आत्मनिर्वासन की पीड़ा को पीते हुए स्वयं पर ही
आघात किया जाए।
नर्मदा की प्रेम-कथा लोकगीतों और लोककथाओं में अलग-अलग मिलती है लेकिन हर कथा का अंत कमोबेश वही कि शोणभद्र के नर्मदा की दासी जुहिला के साथ संबंधों के चलते नर्मदा ने अपना मुंह मोड़ लिया और उलटी दिशा में चल पड़ीं। सत्य और कथ्य का मिलन देखिए कि नर्मदा नदी विपरीत
दिशा में ही बहती दिखाई देती है।
#कथा_1 :- नर्मदा और शोण भद्र की शादी होने वाली थी। विवाह मंडप में बैठने से ठीक एन वक्त पर नर्मदा को पता चला कि शोण भद्र की दिलचस्पी उसकी दासी जुहिला(यह आदिवासी नदी मंडला के पास बहती है) में अधिक है। प्रतिष्ठत कुल की नर्मदा यह अपमान सहन ना कर सकी
💥 #लकड़ी_के_खडाऊं 🚩🚩
हमारे वैज्ञानिक ऋषि मुनि धरती की गूढ़ रासायनिक संक्रियाओं को समझते थे, इसलिए उन्होंने खड़ाऊ का आविष्कार किया
आपको गर्व होगा खड़ाऊ के पीछे का विज्ञान जानकर गुरुत्वाकर्षण का जो सिद्धांत वैज्ञानिकों ने बाद मे प्रतिपादित किया उसे हमारे #Thread @AnkitaBnsl
ऋषि मुनियों ने काफी पहले ही समझ लिया था।
उस सिद्धांत के अनुसार शरीर में प्रवाहित हो रही विधुत तंरगे गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं, यह प्रक्रिया अगर निरंतर चलें तो शरीर की जैविक शक्ति (वाइटल्टी फोर्स) समाप्त हो जाती है।
इसी जैविक शक्ति को बचाने
के लिए हमारे पूर्वजों ने खडाऊं पहनने की प्रथा आरम्भ की ताकि शरीर की विधुत तरंगों का पृथ्वी की अवशोषण शक्ति के साथ सम्पर्क न हो सके,इसी सिद्धांत के आधार पर खडाऊं पहनी जाने लगी।यें चीजें जानकर गर्व होता है अपने पूर्वजों पर, और दुःख होता है कि आज के तथाकथित सभ्य समाज को