अफगानिस्तान प्राचीनकाल में भारत का ही भाग था, जहाँ श्री आदिनाथ के पुत्रों का शासन हुआ करता था, उस समय अखंड भारत के इस क्षेत्र जिसे वर्तमान में (अफगानिस्तान) में सर्वत्र जैन मुनि भ्रमण किया करते थे।चीनी यात्री ह्वेनसांग ६८६-७१२ ईस्वी के यात्रा के विवरण के
अनुसार कपिश देश में १० जैनमंदिर थे । वहाँ जैन मुनि भी धर्म प्रचारार्थ विहार करते हैं।
अफगानिस्तान के सुदूर प्रान्त में प्राप्त 5000 वर्ष प्राचीन 24
तीर्थंकर भगवान की प्रतिमाएं हुई। तीर्थंकर भगवान के समवसरण
को भी बहुत सुंदर तरह से उत्कृष्ट किया हुआ है ।
एक बार भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के भूतपूर्व संयुक्त महानिर्देशक श्री टी. एन. रामचंद्रन अफगानिस्तान गये । उन्होंने एक शिष्टमंडल के नेता के रूप में यह मत व्यक्त किया था, कि यहाँ जैन तीर्थंकरों के अनुयायी बड़ी संख्या में थे। उस समय एलेग्जेन्ड्रा में जैनधर्म का व्यापक प्रचार था।
अफगानिस्तान की राजधानी 'काबुल' में भी जैनधर्म का प्रसार था। वहाँ आज भी जैन - प्रतिमायें उत्खनन में निकलती रहती हैं।
हिन्द्रेशिया, जावा, मलाया, कम्बोडिया आदि देशों में जैनधर्म, इन द्वीपों के सांस्कृतिक इतिहास और विकास में भारतीयों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
इन द्वीपों के प्रारंभिक अप्रवासियों का अधिपति सुप्रसिद्ध महापुरूष 'कौटिल्य' था, जिसका कि जैनधर्म-कथाओं में विस्तार से उल्लेख हुआ है। इन द्वीपों के भारतीय आदिवासी विशुद्ध शाकाहारी थे। इन देशों से प्राप्त मूर्तियाँ तीर्थंकर मूर्तियों से मिलती जुलती है।
यहाँ पर चैत्यालय भी मिलते हैं, जिनका जैन परम्परा में बड़ा महत्व है।
• दक्षिण पूर्व काबुल की चट्टानी तलहटी में मेस अयनक स्थित मेस अयनक में 5,000 साल पुरानी एक बस्ती है जिसमें 100 एकड़ का प्राचीन मन्दिर परिसर शामिल है, जिसमें से 10 प्रतिशत की खुदाई आज तक की जा चुकी है।
अब तक, पुरातत्वविदों ने कई प्रतिमाएं, नक्काशी, पांडुलिपियों, सिक्कों, औजारों और बर्तनों को बरामद किया है और अनुमान है कि खुदाई को पूरा करने में कम से कम 30 साल लगेंगे।
हालाँकि, यह सब तब से खतरे में है जब से खान मंत्रालय ने पुरातात्विक स्थल के नीचे और आसपास स्थित तांबे के भंडार
अधिकार बेच दिए हैं।
स्पष्ट हैं, इस भरत क्षेत्र के आर्य खण्ड में सर्वत्र जैन धर्म व्याप्त रहा है, जिसके साक्ष्य यदाकदा लगभग हर देश में प्राप्त होते ही रहते हैं। पंचम काल के प्रभाव से यह वैभवशाली प्राचीनता कई वर्षो से संकुचित होती आ रही है #jainism#जैन#Afghanisthan#Kashmir
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महावीर जैन मंदिर, राजस्थान
श्री महावीरजी जैन मंदिर राजस्थान के करौली जिले में स्थित है। यहां के मुख्य देवता अंतिम और 24वें जैन तीर्थंकर, महावीर भगवान के हैं। इसकी स्थापना 200 साल से भी पहले हुई थी, इसलिए यह जैन धर्म में दिगंबर परंपरा का पालन करने वालों के लिए विशेष महत्व रखता है।
मंदिर का इतिहास
इस मंदिर में स्थापित भगवान महावीर की मुख्य मूर्ति मूल रूप से एक टीले पर पाई गई थी, जहां वह चमत्कारिक रूप से प्रकट हुई थी। ग्रामीणों ने मूर्ति की खुदाई केवल इसलिए की क्योंकि उन्होंने एक गाय (एक विशेष कामदुधाधेनु) को टीले पर हर दिन अपना दूध डालते देखा था।
जब ग्रामीणों को जिज्ञासा हुई तो उन्होंने टीले की खुदाई की और भगवान महावीर की मूर्ति को देखकर आश्चर्यचकित रह गए। जब इस देवता से प्रार्थना करने वाले लोगों की इच्छाएं पूरी होने लगीं, तो जयपुर के श्री अमर चंद बिलाला मूर्ति के लिए एक मंदिर का निर्माण कराया। बाद में 17वीं और फिर 19वीं
क्या आप जानते हैं कि हिंदू धर्म में जो चाहे कोई भी पूजा हो शादी हो घर का मुहूर्त हो या कोई हवन का आयोजन एक मंत्र आपने जरूर सुना होगा ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
इसमें अरिष्टनेमिः जैन धर्म के बाईसवे तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान हैं इसी तरह कई और अद्भूत बातें हैं जों आप जान कर हैरान हों जाएंगे जों यह सिद्ध कर देगा की हिंदू परंपराएं जैन धर्म से निकली है, जैनों के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान का नाम हिंदू धर्म के मूल ग्रंथ वेदों में हैं
शायद यह ही कारण रहा होगा कि वेदों को आम जनमानस को नहीं सिखाया जाता है ऑक्सफोर्ड में तुलनात्मक धर्मों और दर्शन के प्रोफेसर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार, जो बाद में भारत के दूसरे राष्ट्रपति बने, यह दिखाने के लिए सबूत हैं कि ईसा पूर्व पहली शताब्दी तक ऋषभ की पूजा की जाती थी।
जय जिनेंद्र मित्रो, आज की हमारी भाववन्दना भिंड, मप्र के अंतर्गत गहरी चंबल नदी की घाटी में स्थित अटेर (प्राचीन नाम - विंध्याटवी) में बनाये गए, एक अति प्राचीन भव्य जिनालय की है । यह मंदिर भिंड ज़िले से 35 कि.मी. पश्चिम में स्थित है।👉🏻 यहां मंदिर जी मे तीन
बहुत सुंदर वेदियाँ बनी हुई हैं । मूल वेदी में मूलनायक श्री १००८ महावीर भगवान की अति मनोहर प्रतिमा जी विराजित है । दूसरी वेदी पर श्री नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा विराजित है । व तीसरी वेदी पर देवाधिदेव श्री आदिनाथ भगवान की प्रतिमा जी के साथ भरत भगवान व बाहुबली भगवान जी की प्रतिमा
विराजमान हैं । यहां बहुत प्राचीन जिनबिम्ब भी विराजमान हैं । इस अतिशयकारी जैन मंदिर से लगभग कुछ ही दूर पर लगभग एक 350 से 400 वर्ष पुराना एक किला बना हुआ है । इस किले का नाम मूल देवगिरि दुर्ग है, परंतु कम ही लोग इस दुर्ग को इसके मूल नाम से जानते है,,, इस किले को लगभग 1664 से 1668
मथुरा में जैन धर्म
प्राचीन मूर्तियाँ कई स्थानों से प्राप्त हुईं हैं,लेकिन यहाँ दो स्थान प्रमुख हैं जिन की प्रसिद्धि जैन तीर्थ के रूप में है।पहला है सिद्ध क्षेत्र चौरासी , जिस का संबंध महावीर के पट्ट शिष्य सुधर्माचार्य के उत्तराधिकारी जम्बू स्वामी से है।जैन मान्यताओं के अनुसार
जम्बू स्वामी ने न केवल यहाँ निवास किया अपितु कैवल्य तथा मोक्ष प्राप्त कर इस स्थान को सदा के लिए सिद्ध क्षेत्र बना दिया। दूसरा प्रमुख स्थान है कंकाली टीला जो प्राचीनता की दृष्टि से मथुरा के लिए ही नहीं,वरन् जैन धर्म के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।ब्रिटिश काल तक यह क्षेत्र एक
विस्तृत टीले के रूप में था।कंकाली देवी का एक छोटा मंदिर होने के कारण इसे ' कंकाली टीला ' कहा जाता था। सन् 1871 ईस्वी में प्रसिद्ध पुरातत्वविद् कनिंघम की नज़र इस टीले पर पड़ी ।उसने यहाँ से कई जैन प्रतिमाएं प्राप्त कीं ,लेकिन कंकाली टीले पर व्यवस्थित उत्खनन का अभियान सन् 1888-91
साविरा कम्बदा मंदिर (साविरा कंबाडा बसदी) या त्रिभुवन तिलका कुडामणी), एक बसदी या जैन मंदिर है जो मूडबिद्री, कर्नाटक, भारत में अपने 1000 स्तंभों के लिए विख्यात है। मंदिर को "चंद्रनाथ मंदिर" के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि यह तीर्थंकर चंद्रप्रभा का सम्मान करता है, जिनकी आठ फुट की
मूर्ति की पूजा मंदिर में की जाती है।बसदी का निर्माण 1430 में स्थानीय सरदार, देवराय वोडेयार द्वारा किया गया था और इसे पूरा करने में 31 साल लगे, [5] मंदिरों में 1962 में जोड़ दिए गए। इस मंदिर में 50 फीट लंबा मोनोलिथ मनस्थंभ है।करकला भैरव रानी नगला देवी द्वारा बनवाया गया।
मंदिर को वास्तुशिल्प का चमत्कार माना जाता है। [8] मंदिर विस्तृत मूर्तियों और सजावट से भरा है।मंदिर का द्वार में जटिल नक्काशी है और अलंकृत दीवारों से घिरा हुआ है। मंदिर के विशाल स्तंभों को एक अष्टकोणीय लकड़ी के लट्ठे के समान उकेरा गया है एक बारिंग शिलालेख। [9] [10] [11] अति सुंदर