कुतुब मीनार मुगलों में बनाया था, ये नाम भी उनके ही बाप दादाओं के लिखे हैं...
गुप्त सम्राट चंदगुप्त विक्रमादित्य द्वारा स्थापित महरौली का लौह स्तंभ
विष्णु स्तम्भ (कुतुब मीनार टॉवर) के पास, शुद्ध लोहे से बना यह लौह स्तंभ है। इसमें 99.72% लोहा, शेष 0.28% अशुद्धियाँ हैं। (1/8)
यह स्तंभ महान गुप्त सम्राट चंदगुप्त विक्रमादित्य दितीय ने अपनी शकों पर विजय के उपलक्ष्य में स्थापित किया था। इस लौह स्तंभ में आज 1600 वर्ष बीत जाने के बाद भी जंग नहीं लगी है यह लौह स्तंभ गुप्तकाल में हुए वैज्ञानिक अनुसंधान और प्रगति का घोतक है।
इस कोलोसस का वजन 6.8 टन (2/8)
है। निचला व्यास 41.6 सेमी है, शीर्ष पर यह 30 सेमी तक बढ़ता है। स्तंभ की ऊंचाई 7.5 मीटर है।
आश्चर्यजनक बात यह है कि वर्तमान में धातु विज्ञान में शुद्ध लोहे का निर्माण एक बहुत ही जटिल विधि और कम मात्रा में होता है, लेकिन लोहा इतनी शुद्धता का होना आज के युग में असम्भव है।
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इस लौह स्तंभ में जंग क्यों नहीं लगता इसका कारण जानने के लिए IIT कानपुर के प्रोफेसर ने 1998 में एक प्रयोग किया। IIT के प्रोफेसर डॉ. बालासुब्रमण्यम ने स्तम्भ के लोहे की मटेरियल एनालिसिस की। इस विश्लेषण में पता चला कि स्तम्भ के लोहे को बनाते समय पिघले हुए कच्चा लोहा (4/8)
(Pig iron) में फ़ास्फ़रोस तत्व (Phosphorous) मिलाया गया था। इससे आयरन के अणु बांड नहीं बन पाए, जिसकी वजह से जंग लगने की गति हजारों गुना धीमी हो गयी।
आश्चर्य की बात यह है कि हमारे पूर्वजों को फ़ास्फ़रोस के जंगरोधी गुण के बारे में कैसे पता चला, फ़ास्फ़रोस के जंग रोधी (5/8)
गुणों का पता तो आधुनिक काल में चला है। दुनिया भर में यह माना जाता है कि फ़ास्फ़रोस की खोज सन 1669 में हेन्निंग ब्रांड ने की। मगर यह स्तंभ तो 1600 वर्ष से अधिक पुराना है।
मतलब यही हुआ कि पुरातन काल में भारत में धातु-विज्ञान (Metallurgy) का ज्ञान उच्चकोटि का था, सिर्फ (6/8)
दिल्ली ही नहीं धार, मांडू, माउंट आबू, कोदाचादरी पहाड़ी पर पाए गये लौह स्तम्भ, पुरानी तोपों में भी यह जंग-प्रतिरोधक (Anti-rust) क्षमता पाई गयी है। दिल्ली का यह लौह स्तम्भ (Iron Pillar) हमारे लिए गौरव का प्रतीक है और हमारे महान इतिहास का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
इस अद्भुत (7/8)
स्तंभ की तकनीकी को आधुनिक युग में प्राप्त करना असंभव है।
इस श्लोक की भूमिका के लिए इस पोस्ट में एक छोटा सा प्रसङग सुनिए...
एक बार की बात है, गोपियों ने भगवान श्रीकृष्ण की बंशी चुरा ली। बाँसुरी को चुराकर गोपियाँ बहुत दूर (1/7)
एक वन में ले गईं और पूछीं कि तुम्हारे अन्दर ऐसी कौन सी विशेषता है की तू सदैव भगवान के होंठों से चिपकी रहती है? तूने ऐसा क्या कर दिया है की भगवान सदैव तूझे अपने पास रखते हैं? तू भगवान के होंठों का अमृत चूसती रहती है और भगवान जब मधुर संगीत भी निकालते हैं तो वह तुम्हारा ही (2/7)
सहारा लेते हैं?
बाँसुरी बोली, हे गोपियों, आप लोग क्रोधित न हों। मैं संकेत देती हूँ कि मैं एक घास के कठोर वंश की हूँ और चूँकि मेरे घास का वंश कोमल भी नहीं है अर्थात कठोर (क्षुद्र) वंश का है और मैं उसी क्षुद्र वंश की बंशी हूँ।
बंशी इसके बाद बोली की मैं तो पूरी भरी हुई भी (3/7)
मेगस्थनीज़ एक यूनानी यात्री था जो चन्द्रगुप्त मौर्य और सेक्युकस के समय भारत आया था। मेगस्थनीज़ पहला पश्चिमी यात्री था जिसने भारत की यात्रा की, इंडिका नामक पुस्तक लिखी।
कई यूनानी दार्शनिको ने मेगस्थनीज़ की काफी भर्त्सना की है क्यूँकि उसने अपनी किताब में भारत का अनुपम (1/21)
विवरण दिया है। कई भारतीय क्रिटिक भी मेगस्थनीज़ को हवाबाज़ बताते हैं क्यूँकि उसके कई किस्से अविश्वसनीय हैं। मेगस्थनीज़ की किताब इंडिका के आज गिने चुने हिस्से ही उपलब्ध हैं। उन्ही हिस्सो के हवाले से कुछ जानने का उद्देश्य रहेगा।
मेगस्थनीज़ अपनी किताब में लिखता है, भारत में (2/21)
सिलस नामक एक नदी है जिस में कुछ भी डालो, डूब जाता है। इस नदी का उल्लेख किसी और जगह नहीं मिलता। चूँकि मेगस्थनीज़ यूनानी नाम आदि का प्रयोग करता था, सिलस नदी कौन सी थी, कभी पता ही नहीं चल पाया।
मेगस्थनीज़ ने अपनी पुस्तक में सात भारतीय जातियों का उल्लेख किया है:
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रेड लाइट पर रुकते ही गाड़ी के स्टीरियो की आवाज़ कम की और सिगरेट पीने के लिए शीशा नीचे किया ही था कि आवाज़ आई...
बाबू जी एक रुपया दे दो! खाना खाऊंगा! बहुत भूख लगी है!
लगभग पंद्रह रुपये की सिगरेट हाथ में पकड़े हुए, बहुत उम्दा और तलब के मूड में, मैं उसे जलाने ही वाला था (1/11)
कि इस आवाज़ से भंग हुई अपनी नशेपूर्ती की तन्द्रा के टूटने से कुछ चिड़चिड़ा सा गया अचानक और एक बार को तो उसे झिड़क ही दिया!
चल बे, आगे चल..!!!
फिर ध्यान आया कि भूखा होगा बेचारा, चलो कुछ दे ही देता हूँ!
इधर आ बे, सुन तो...
जी बाबू जी...
रुक, ले लेता जा...!
गाड़ी में (2/11)
इधर उधर पड़े पैसे ढूंढने लगा मैं... नोटों पर नज़र गई... सबसे छोटा नोट बीस का दिखाई पड़ा... सोचा कि इतने पैसे इस कंगाल के हाथ में देना... नहीं, नहीं... फिर मैंने सिक्कों में हाथ डाला... अचानक दस रुपये का सिक्का हाथ लगा... उसे भी छोड़ मैं एक रुपये का सिक्का ढूंढने लगा... (3/11)
जब भी कर्णाटक जाता हूँ, मन में एक अज्ञात उल्लास होता है। सम्भवतः पूर्व जन्म का सम्बन्ध है, जिसके कारण अचेतन मन में उन जन्मों की शिक्षा के कुछ अंश का दैवी प्रेरणा से स्मरण होता है। या पिछले ५१०० वर्षों से भागवत माहात्म्य में कहा जा रहा है कि भक्ति तथा (1/14)
उसकी सन्तानोॅ-ज्ञान, वैराग्य का जन्म द्रविड में हुआ, वृद्धि कर्णाटक में हुई, महाराष्ट्र तक प्रसार हुआ तथा गुर्जर आते आते समाप्त हो गया।
भगवान श्रीकृष्ण के अवतरण के बाद उनका वृन्दावन में पुनर्जन्म हुआ। श्रुति आदि ५ ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से निसर्ग का ज्ञान होता है। अतः (2/14)
ज्ञान की प्रतिष्ठा वेद को निगम (निसर्ग से आगत) या श्रुति कहते हैं।
श्रुति का ग्रहण कर्ण से होता है। अतः जहाँ उसकी वृद्धि हुई, वह स्थान कर्णाटक है।
वृद्धि का अर्थ है शब्द के मूल आधिभौतिक अर्थ का आकाश, शरीर के भीतर तथा विज्ञान और शिल्प आदि में अर्थ का विस्तार है। प्रसार (3/14)
हमारा मस्तिष्क दु:खों को दूर भगाना चाहता है। नहीं??
लेकिन रहस्य यहीं तो है। हाँ यह सच है कि हमारा मस्तिष्क सुख की अनुभूति चाहता है लेकिन आपको आश्चर्य होगा कि मानवीय मस्तिष्क दुःखी भी होना चाहता है बीच बीच में।
मस्तिष्क में मौजूद छोटे से हिस्से (1/20)
हिप्पोकैम्पस और एमिग्डेला में हमारी यादें, सुखद और दुःखद अनुभूतियाँ लगातार एकत्र होती रहती हैं। दुःख और सुख का अहसास मस्तिष्क की कुछ कोशिकाओं के मस्तिष्क में स्रावित होने वाले कुछ रसायन जैसे डोपामिन, सेरोटोनिन, गाबा इत्यादि के प्रति प्रतिक्रिया देने से होता है। प्रकृति (2/20)
जो कुछ भी बनाती है उसका सम्पूर्ण उपयोग हो जीवन में, सुनिश्चित करती है। और बस इसलिए मस्तिष्क को दुःख न होने पर भी दुःख रच लेने को मज़बूर करती है। इन कोशिकाओं और रसायनों की ज़रूरत है कुछ काम करते रहना। काम दुःख का मिला है तो ये दुःख रचने को मजबूर कर देंगी।
अपनी महुआ बन गयी spirit of the forest ब्रिटेन और फ्रांस में...
ये एकदम सही है हमें अपनी चीजों को मार्केटाइज करना आता ही नहीं है। बिल्कुल भी नहीं।
अभी फ्रांस और ब्रिटेन में महुआ से बनी इस शराब की डिमांड बड़े-बड़े बार में काफी सुर्खियां बटोर रही है।
ब्रांड नेम (1/4)
'माह - स्प्रिट ऑफ द फॉरेस्ट' के नाम से ये बिक रही है। कुछ-कुछ अन्य चीजें ब्लेंड 'इंडो-फ्रेंच' करके इनको नया रूप दिया गया है,जैसा पहले ही कुछ करना चाहिए था।
अभी 50CL याने 500ML याने कि आधा लीटर इस वाइन की कीमत 40 यूरो है मतलब इंडियन करेंसी में 3,500/- रुपया से ऊपर। अभी (2/4)
इंडिया में ग्रामीण अंचल में कीमत चल रही है 750 ML (बीयर वाली बोतल) 50-70 रुपये। ट्रेडिशनल वे ऑफ मेकिंग है।
अब इंडो-फ्रेंच ब्लेंड के साथ 'एनसीएन्ट ट्रेडिशनल ड्रिंक ओरिजिनेटेड इन इंडियन फॉरेस्ट!' टैग के साथ फुल टशन के साथ बिक रही है।