वीर सावरकर जी की पुस्तक "हिंदुत्व" के पेज न0 86 से पेज न0 91 तक
आधुनिककाल के चंद्रगुप्त का ही उदाहरण देखने के लिये हम अपने पाठकों से कहते हैं। चंद्रगुप्त ने एक ब्राह्मण कन्या से विवाह किया और इनसे अशोक के पिता की उत्पत्ति
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हुई और इस अशोक ने युवराज रहते एक वैश्य कन्या से विवाह किया।
हर्ष वैश्य था और उसने अपनी कन्या एक क्षत्रिय राजपुत्र को ब्याह दी।
व्याधकर्मा एक व्याध का पुत्र था और उसकी माता उस व्याध की सहधर्मिणी एक विप्र कन्या थी और यह व्याधकर्मा विक्रमादित्य का यज्ञाचार्य हुआ था।
कृष्ण भट्ट ब्राह्मण होकर भी एक चांडाल कन्या पर इतना मोहित हुआ कि उसने खुल्लमखुल्ला उससे विवाह किया। इसने फिर "मातंगी पन्थ" नाम का एक धर्म-सम्प्रदाय चलाया।
ये सब लोग हिन्दू ही कहलाते थे और आज भी उन्हें कोई अहिन्दु नहीं कहता। उन्हें हिन्दू कहलाने का अधिकार भी है।
पर बात यहीं खत्म नहीं होती।
यह भी हो सकता है कि कोई स्त्री या पुरुष अपने अच्छे-बुरे कर्म से एक जाति से उन्नत या च्युत होकर दूसरी जाति में मिल सकते हैं।
उपासते ये न पूर्वा द्विजा संध्यां न पश्चिमा ।
सर्वीस्तान् धार्मिको राजा शूद्रकर्मणि योजयेत् ॥”
👉"यह केवल धमकी हो नहीं थी-ऐसा होता भी था। बहुत से क्षत्रिय ऋषिकर्म या अन्य व्यवसाय करने लगे, इससे क्षत्रिय के पद से च्युत हो गये और अन्य जातियों के बने। इसी प्रकार बहुत से वीर पुरुष
और कभी कभी तो समस्त जाति के सब मनुष्य अपने शौर्य और पराक्रम से क्षत्रिय पद को प्राप्त होकर क्षत्रिय कहलाने लगे।"👈
एक जाति से बहिष्कृत होकर दूसरी जाति में मिल जाना,यह बात तो एक मामूली बात हो गयी थी। वैदिक आज्ञा से स्थापित चातुर्वर्ण्य के मानने वालों की ही नहीं, बल्कि हिन्दू-जाति
के अवैदिक संप्रदायों की भी यही बात है।
जैसे बौद्धकाल में यह बात थी कि एक ही घर में पिता यदि बौद्ध हैं तो माता वैदिक हैं और पुत्र जैन हैं; वैसे ही आज भी गुजरात में जैनों और वैष्णवों में परस्पर शादी व्याह होता है, मारवाड़ और राजपूताने में भी होता है और पंजाब और सिन्ध में सिख और
सनातनियों में भी परस्पर ऐसा ही संबंध है।
इसके अतिरिक्त आज जोमानभाव या लिंगायत या सिख या सतनामी हैं वे कल हिन्दू थे और आज के कोई हिन्दू कल ब्राह्मो, लिंगायत या सिख हो सकते हैं।
पर जाति की एकता और अखंडता वैसी ही बनी हुई है।
इस जातीय एकता की पूर्ण अभिव्यक्ति करने वाला कोई ऐसा दूसरा
हम लोगों में से कोई आर्य थे और कोई अनार्य। पर कोई आयर हो या नायर,
थे सब हिन्दू ही और सब में जो रक्त था वह भी था एक हिन्दू-रक्त ही।
हम लोगों में से कुछ ब्राह्मण हैं, कुछ नमःशूद्र हैं। पर कोई ब्राह्मण हो या चांडाल, हैं सब हिन्दू ही है और सबका रक्त
है भी एक हिन्दू-रक्त ही।
हम लोगों में से कोई दाक्षिणात्य हैं, कोई गौड़ हैं; पर गौड़ हों या सारस्वत, हैं सब हिन्दू ही और सबका रक्त भी है एक हिन्दू-रक्त ही।
हम लोगों में से कोई राक्षस थे और कोई यक्ष; पर राक्षस हों या यक्ष, हैं हम सब हिन्दू ही और हमारा रक्त भी है एक हिन्दू-रक्त ही।
हम लोगों में कोई वानर थे और कोई किन्नर, पर वानर हों या नर, हम हैं सब हिन्दू ही और हमारा रक्त भी है एक हिन्दू-रक्त ही।
हम लोगों में कोई जैन हैं और कोई जङ्गम; पर जैन हों या जङ्गम हम सब हैं हिन्दू ही और हमारा रक्त भी है एक हिन्दू-रक्त ही।
हम लोगों में कोई एकेश्वरवादी हैं,
कोई अनेकेश्वरवादी; कोई आस्तिक हैं, कोई नास्तिक,पर ईश्वरवादी हों या नास्तिक, हैं हम सब हिन्दू ही और हमारा रक्त भी है एक हिन्दू-रक्त ही।
हम केवल एक राष्ट्र नहीं हैं, बल्कि एक जाति हैं, जन्म से ही भाई-भाई हैं। और कुछ कोई चीज नहीं; यहां तो हृदय की एकता का प्रश्न है। हम यह अनुभव करते
हैं कि वही रक्त जो राम और कृष्ण, बुद्ध और महावीर, नानक और चैतन्य, वसव और माधव, रोहिदास और तिरुवेल्लवर इनकी नसों में प्रवाहित होता था; वही रक्त समग्र हिन्दू-जाति की नसों में प्रवाहित होता और प्रत्येक हिन्दू के हृदय में स्पन्दन करता है।
हम लोग यह अनुभव करते हैं कि हम सब एक जाति के
हैं और यह जाति रक्त के प्रियतम बन्धनों से बंधी हुई एक अखण्ड जाति है। ऐसा हम अपने अन्तःकरण में अनुभव करते हैं और इसलिये यह ऐसा ही है।
यदि ठीक विचार किया जाय तो सारे संसार की मनुष्य-जाति एक ही है;क्योंकि मनुष्य-रक्त से ही यह उत्पन्न हुई और मनुष्यका रक्त ही इसमें प्रवाहित हो रहा है।
यह पूर्ण सत्य है, बाकी सब बातें अपेक्षाकृत सत्य हैं। जाति-जातिके बीच में मनुष्य जो कृत्रिम दीवारें खड़ी करता है, उसे प्रकृति बराबर से ही नष्ट करती चली आ रही है। रक्त-मिश्रण को रोकने का प्रयत्न बालू की भीत उठाना मात्र है। सब धर्माचार्यों की सब आज्ञाओं की अपेक्षा स्त्री-पुरुष का
परस्पर प्रेमाकर्षण अधिक बलवान प्रमाणित हुआ है।
यही नहीं, बल्कि अन्दमान द्वीप के आदिम निवासियों में भी आर्यरक्त के तुषार परस्पर मिले हुए हैं। मनुष्य अधिक से अधिक जो कुछ दावा कर सकता है और इतिहास भी इस संबंध में जो कुछ बतलाता है वह यही है कि मनुष्य मात्र के शरीर में समग्र मानव-जाति
का रक्त प्रवाहित हो रहा है।
इस ध्रुव से उस ध्रुव तक समग्र मानव-जाति की एकता ही अखंड सत्य है। अन्य बातें अंशतः और सापेक्षतः सत्य हैं।
इस सापेक्ष विचार की दृष्टि से देखें तो संसार में दो ही जातियां ऐसी हैं,
एक हिन्दू और दूसरी यहूदी,जो अधिकार के साथ यह कह सकती हैं कि हम एक जाति हैं।
एक हिन्दू यदि किसी अन्य उपजाति के हिन्दू से विवाह करे तो बहुत होगा अपनी बिरादरी से च्युत होगा पर उससे उसका “हिन्दुत्व” कहीं नहीं जाता।
कोई हिन्दू अपने किसी संप्रदाय के विरुद्ध किसी अच्छे-बुरे नये धर्म-संप्रदायको मान ले,
बशर्ते कि वह संप्रदाय इसी देश का हो, किसी हिन्दू द्वारा ही
प्रवर्तित हुआ हो; तो वह अपने 'पहले संप्रदाय या बिरादरी से निकाल बाहर हो सकता है पर उसका हिन्दुत्व कोई नहीं छीन सकता;
कारण हिन्दुत्व का एक महान और प्रधान लक्षण ही यह है कि जिस मनुष्य में हिन्दू का रक्त है वह हिन्दू ही है। इसलिये जो लोग सिन्धु नदी से सिन्धु (सागर) पर्यन्त इस विशाल
देश को अपनी पितृभूमि मानते हैं
और फलतः यह भी मानते हैं कि हम सप्तसिन्धुओं के वंशजों की -सन्तति हैं, उन्हीं के रक्तसे यह शरीर बना है उनके बारे में यह कह सकते हैं कि वे हिन्दुत्व के सबसे प्रधान लक्षणों से जो दो लक्षण हैं उनसे युक्त हैं।
परन्तु ये दो ही लक्षण हुए। थोड़ा विचार करने
से यह मालूम होगा कि एक ही पितृभूमि और एक ही रक्त का होना, इन दो लक्षणों से ही हिन्दुत्व की पूरी व्याख्या नहीं होती।
हिन्दुस्थान के मुसलमान यदि अपने अज्ञान-जनित कुसंस्कारों को त्याग दें तो वे इस देश को अपनी पितृभूमि मानकर इस पर वैसी श्रद्धा कर सकते हैं। कई देशभक्त और उदात्तचित्त
मुसलमान ऐसे हैं भी जो इस देश को अपनी पितृभूमि मानते हैं।
जिस तरह से उनका धर्मान्तर हुआ, जिस तरह से लाखों करोड़ों हिन्दू जबरजस्ती 'मुसलमान बनाये गये वह बात अभी इतनी ताजी है कि वे चाहें भी तो इस बात को नहीं भूल सकते कि उनके अन्दर भी हिन्दू रक्त ही दौड़ रहा है।
परन्तु हम जो इस बात
की जांच कर रहे हैं कि वस्तुस्थिति क्या है, न कि वस्तुस्थिति क्या होनी चाहिये?
क्या यह कह सकते हैं कि ये मुसलमान हिन्दु हैं?
कश्मीर तथा / हिन्दुस्थान के अन्य अनेक भागों में ऐसे मुसलमान हैं और दक्षिण भारत में ऐसे क्रिस्चिन हैं जो जाति भेद के नियमों को यहां तक मानते हैं कि अपनी
बिरादरी के अन्दर ही शादी/ब्याह करते हैं।
इससे यह स्पष्ट है कि उनका हिन्दू-रक्त ज्यों-का-त्यों बना हुआ है; उनमें विदेशी रक्त का मिश्रण नहीं हुआ है। फिर भी हिन्दू शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में होता है उस अर्थ में उन्हें हिन्दू तो नहीं कह सकते।
कारण, हम हिन्दू जो एक जाति हैं...
उसका कारण केवल यही नहीं है कि हम एक पितृभूमि के उपासक और एक ही रक्त के उत्तराधिकारी हैं;
बल्कि इसके साथ ही एक बात है जो हिन्दू के हिन्दुत्व का वैसा ही महान् लक्षण है जैसे पूर्वकथित ये दो लक्षण।
वह बात यह है कि हम हिन्दू एक संस्कृति के मानने वाले हैं। वह हिन्दू-संस्कृति महान
संस्कृति है जिसका भाव प्रकट करने के लिये संस्कृत शब्द ही पात्यन्त उपयुक्त और सार्थक है।
कारण, इस शब्द से "संस्कृत" भाषा भी सूचित होती है जिस संस्कृत भाषा में वह संस्कृति संरक्षित है, जिसमें हिन्दू जाति के इतिहास में जो जो कुछ संग्राह्य और उत्तम है,उसका प्रकाश हुआ और
जिसमें वह संपूर्ण ज्ञान संचित भी हुआ।
हम हिन्दू एक है, कारण हम लोग एक राष्ट्र हैं, एक जाति हैं और हमारी एक संस्कृति है।
वीर सावरकर जी की पुस्तक "हिंदुत्व" के पेज न0 86 से पेज न0 91 तक✍️✍️✍️
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"नेहरू ने अँग्रेजों से गुप्त संधि की थी" और कहा था कि “मैं भी मुसलमान हूं” (विभाजनकालीन भारत के साक्षी)
"इस शीर्षक को पढ़कर आप अवश्य चौकेंगे,लेकिन सत्ता के लिए जवाहरलाल लहरू के ये कुछ व्यक्तिगत रहस्य भी जानने से यह स्पष्ट होता है
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यह स्पष्ट होता है कि स्वतंत्रता के उपरान्त भी भारत क्यों अपने गौरव को पुन: स्थापित न कर सका"- विनोद कुमार सर्वोदय
श्री नरेन्द्र सिंह जी जो ‘सरीला’ रियासत (टीकमगढ़ के पास,बुंदेलखंड) के प्रिंस थे तथा बाद में गवर्नर जनरल लार्ड वेवल व लार्ड माउण्टबैटन के वे ए.डी.सी. रहे थे।
इस कारण 1942 से 1948 तक की वाइसराय भवन में घटित घटनाओं के वे स्वयं साक्षी थे।
उनसे इस लेख के लेखक (प्रो सुरेश्वर शर्मा) की प्रथम भेंट दिसम्बर 1966 में "इण्डिया इण्टरनेशनल सेंटर, दिल्ली" में हुई थी।प्रिंस आफ़ सरीला श्री नरेंद्र सिंह उस समय काफी वृद्ध थे और इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर
मैं आपको एक किस्सा सुनाता हूँ।
बात 1991 की है। तब चंद्रशेखर देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे। चंद्रशेखर की सरकार मात्र 60 सांसदों की सरकार थी जिसे बाहर से काँग्रेस पार्टी का समर्थन प्राप्त था। चंद्रशेखर ने 10नवम्बर 1990 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी।
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पर जैसा कि कांग्रेस पार्टी हमेशा से करती आई है, चार महीने बाद ही राजीव गाँधी ने चंद्रशेखर की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। चंद्रशेखर के पास पद से त्यागपत्र देने के अलावा और कोई चारा नहीं था।
6 मार्च 1991 को उन्होंने अपने करीबी साथियों के साथ गुड़गांव के भोंडसी आश्रम में बैठक की..
जिसमें यह तय किया गया कि चंद्रशेखर राष्ट्रपति भवन जाकर राष्ट्रपति श्री आर वेंकटरमन को अपना त्यागपत्र सौंप देंगे।
चंद्रशेखर राष्ट्रपति भवन के लिए निकलने ही वाले थे कि उन्हें बताया गया कि डॉ मनमोहन सिंह⌨️ उनसे मिलने के लिये आये हैं। मनमोहन सिंह चंद्रशेखर के चार मास के शासन काल के
राहुल गांधी और कांग्रेस क्यों बार-बार कहते हैं कि "मोदी सरकार" #सीबीआई का दुरुपयोग कर रही है***
क्योंकि सीबीआई के दुरुपयोग की पूरी #हिस्ट्री कांग्रेस के पास है...
और इनके पास इतने "गंदे रिकॉर्ड" हैं जिसे जानकर आप चौक जायेंगे😱😱😱
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1983 में #बिहार में और केंद्र में दोनों जगहों पर कांग्रेस सत्ता में थी बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र थे और केंद्र में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी...
उस वक्त बिहार विधान परिषद की सभापति थी राजेश्वरी सरोज दास उन्होंने एक लड़की गोद ली हुई थी जिसका नाम था श्वेतनिशा त्रिवेदी...
उन्होंने कभी यह खुलासा नहीं किया कि उस लड़की के असली मां बाप कौन थे वह लड़की बेहद खूबसूरत थी राजेश्वरी सरोज दास ने अपने प्रभाव से अपनी गोद ली हुई बेटी को बिहार विधानसभा में टेलीफोन ऑपरेटर बना दिया,
श्वेत निशा त्रिवेदी इतनी खूबसूरत थी के विधानसभा में सभी विधायक लोग उसे बॉबी कहकर
कमाल की बात है....
राहुल गाँधी की सांसदी छिनने के बाद अगर एक नेता या पार्टी सबसे ज्यादा शोर मचा रहे हैं.. तो वह है केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी...
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ऐसा दिखा रहे थे जैसे कि भारतीय लोकतंत्र को बचाने की इस लड़ाई में अब बस वही एक सूरमा बच गए हैं.
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☝️धर्मयुद्ध के युद्धक्षेत्र में "निर्भ्रन्त" इस बात को बखूबी समझता है कि "इसे इस बार भी युद्धक्षेत्र में सम्भालना होगा"
☝️हर पल हर एक क्षण इसे मजबूत बनाना होगा...
☝️ताकि युद्धक्षेत्र के मैदान में "जिम्मेदारियों का बोझ" अथवा एक अयोग्यता* इसका वध न कर सके...
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☝️धर्मयुद्ध के वक़्त जब कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन विषाद और मोह से ग्रस्त होकर अपना गांडीव रख देता है और युद्ध न करने की घोषणा करते हुए अपने रथ पर बैठ जाता है और इसी प्रकार युद्ध के मैदान में एक अयोग्यता* के कारण "अभिमन्यु का वध" भी हो जाता है...
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एक बड़ी प्राचीन, तिब्बत में कहानी है। एक आदमी यात्रा से लौटा है-लंबी यात्रा से। अपने मित्र के घर ठहरा और उसने मित्र से कहा रात, यात्रा की चर्चा करते हुए, कि एक बहुत अनूठी चीज मेरे हाथ लग गई है।
और मैंने सोचा था कि जब मैं लौटूंगा तो अपने मित्र को दे दूंगा,
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लेकिन अब मैं डरता हूं, तुम्हें दूं या न दूं। डरता हूं इसलिए कि जो भी मैंने उसके परिणाम देखे वे बड़े खतरनाक हैं।
मुझे एक ऐसा ताबीज मिल गया है कि तुम उससे तीन आकांक्षायें मांग लो, वे पूरी हो जाती हैं। और मैंने तीन खुद भी मांग कर देख लीं। वे पूरी हो गई हैं और
अब मैं पछताता हूं कि मैंने क्यों मांगीं?
मेरे और मित्रों ने भी मांग कर देख लिए हैं, सब छाती पीट रहे हैं, सिर ठोक रहे हैं। सोचा था तुम्हें दूंगा, लेकिन अब मैं डरता हूं, दूं या न दूं।
मित्र तो दीवाना हो गया। उसने कहा, 'तुम यह क्या कहते हो; न दूं?