जबाला जिस ग्राम में रहती थी उसके निकट महर्षि गौतम का आश्रम था। माता ने बालक को महर्षि के आश्रम का पता बताया और अकेले ही वहां प्रवेश लेने के लिए भेज दिया।
सत्यकाम के सम्मुख आज तक कभी पिता आए ही नहीं थे और न उसने कभी उनका नाम ही सुना था। उसने कभी अपने पिता के विषय मेें कुछ जाना ही नहीं था। सहसा महर्षि के मुख से पिता का नाम सुन कर वह विस्मित हुआ। किन्तु तुरन्त ही स्थित हो कर उसने उत्तर दिया, ‘‘ पिता का
महर्षि ने उसको समझातेे हुए कहा, ‘‘पुत्र, यद्यपि तुम्हारे उत्तर से मैं सन्तुष्ट हूं फिर भी तुम अपनी माता के पास जाकर अपने पिता का नाम और कुल-गोत्र आदि पूछ कर आओ।’’
उस की माता बड़ी ही सत्य बोलने वाली थी। उसको अपनी सत्यता पर बड़ा भरोसा भी था। अतः उसने बालक को समझाते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम महर्षि के पास एक बार फिर जाओ और
सत्यकाम लगन का पक्का था। उसने महर्षि के चरणों में प्रणाम करते हुए कहा, ‘‘महाराज आपकी कृपा और आशीवाद से में अपने कार्य को ठीक समय पर सम्पन्न कर लूंगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
गुरुकूल के पूर्व की ओर जो वन था वह सत्यकाम को दे दिया गया। उसको शिक्षा देने के लिए विभिन्न विषयों के चार विद्वानों की नियुक्ति भी कर दी गई। बल्कि सत्यकाम ने स्वयं अपने लिए वहां कुटिया बनाई और फिर गौयों के पालन-पोषण के साथ-साथ अपनी पढ़ाई में भी
गुरुकुल वासियों ने अनुभव किया कि ज्यों-ज्यों सत्यकाम का ज्ञान बढ़ता जा रहा है त्यों-त्यों गौओं की वंशवेलि बढ़ने के साथ साथ वे हृष्ट-पुष्ट भी होती जा रही हैं। महर्षि गौतम यह सब देख कर प्रसन्न होते थे।
’’सत्यकाम की विनम्रता, कार्यकुशलता, सत्य निष्ठा और विद्या के प्रति अनुराग देख कर महर्षि गौतम बहुत ही प्रसन्न हुए, उसे आशीर्वाद देकर विद्याओं में पारंगत कर दिया।
सत्यकाम ने अपनी विद्वता से सारे संसार में अपनी तथा अपने गुरु महषि गौतम की ख्याति फैला दी।
* कोणार्क मंदिर का निर्माण रथ के आकार में किया गया है जिसके कुल 24 पहिये है।
रथ के एक पहिये का डायमीटर 10 फ़ीट का है और रथ पर 7 घोड़े भी है।
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12 जोड़ी पहिए दिन के चौबीस घंटे दर्शाते हैं, वहीं इनमें लगी 8 ताड़ियाँ दिन के आठों प्रहर की प्रतीक स्वरूप है।
चीरहरण और द्यूत की बेईमानी की घटनाओं से द्रौपदी आगबबूला हो गई और समस्त कुरूकुल को श्राप देने के लिए उद्यत हुई।
परन्तु गांधारी और धृतराष्ट्र ने द्रौपदी को शांत करते हुए कहा - “ बहू ! तुम मेरी पुत्रवधूओं में सबसे श्रेष्ठ हो।
तुम्हारी जो इच्छा हो वह मुझसे वर माँग लो। ”
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धृतराष्ट्र ने कहा- “ऐसा ही होगा।”
तब महाराज युधिष्ठिर हाथ जोड़े हुए महाराज धृतराष्ट्र के पास गये और विनम्र शब्दों में उनसे कहा- “महाराज ! आप हमारे स्वामी हैं। आज्ञा दीजिए कि
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धृतराष्ट्र ने कहा- “पुत्र ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी आज्ञा से हारे हुए धन के साथ बिना किसी विघ्न बाधा के कुशलपूर्वक अपनी राजधानी को जाओ और अपने राज्य का शासन करो। यहाँ जो कुछ हुआ, उसे भूल जाओ। साधु पुरुष दूसरों के
द्रौपदी के जीवन में कुछ भी सामान्य नहीं था तो विवाह कैसे सामान्य हो सकता था।
महाराज द्रुपद अपनी बेटी का विवाह अर्जुन से करना चाहते थे। लेकिन द्रौपदी के स्वयंवर से पहले ही लाक्षागृह की घटना हो चुकी थी और सभी को लगता था कि 5 पांडव और कुंती उस लाक्षागृह
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जबकि पांचों पांडव सकुशल उस गृह से बाहर निकलकर ब्राह्मण वेष में उन्हें के राज्य की एकचक्रा नगरी में रहने लगे थे।
स्वयंवर घोषणा के बाद श्रीकृष्ण और वेदव्यास जी एकचक्रा नगरी में पांडवों के पास पहँचे और वेदव्यास जी ने कहा:-
अपने आप को दुनिया से छुपाने
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🔴श्रीकृष्ण ने कहा कि जो व्यक्ति अपने पुरूषार्थ का उचित समय पर प्रदर्शन ना करे वह धरती पर भार है।
" वह कन्या तुम लोगों के सर्वथा योग्य है , वह देवी स्वरूपा कन्या सब भाँति से
🔴 ऋषि दुर्वासा द्वारा कुंती को वशीकरण मंत्र का आशीर्वाद दिया गया :-
जब कुंती 14 वर्ष की कन्या थी , तो उसे दुर्वासा ऋषि और उनकी पत्नी कंदली की सहायता करने के लिए नियुक्त किया गया था - दुर्वासा एक महान ऋषि थे जो भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करते थे ,
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कुन्ती ने कुन्तिभोज के राज्य में प्रवास के 3 वर्षों के दौरान ऋषि दुर्वासा की सेवा की और
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वह उसकी प्रतिबद्धता, कर्तव्यपरायणता और समर्पण से प्रसन्न थे।
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🔸युद्ध के बाद अगले एक साल तक #महाराणा_प्रताप ने #हल्दीघाटी के आस-पास के गांवों के भूमि के पट्टों को #ताम्रपत्र जारी किए थे जिससे यह साबित होता है कि किसी भी आक्रान्ता का महाराण प्रताप के किसी भी विशाल भू-भाग पर कोई नियंत्रण नहीं हुआ था।
🔸इन ताम्रपत्रों पर #एकलिंगनाथ जी के दीवान महाराणा प्रताप के हस्ताक्षर थे.
उस समय भूमि पट्टे जारी करने का अधिकार केवल Particular Area के राजा के पास ही होता था.
🔸युद्ध के परिणाम से खिन्न अकबर ने मानसिंह और आसफ खाँ की 6 माह के लिये इयोड़ी बंद कर दी थी अर्थात् उनको दरबार में
सम्मिलित होने से वंचित कर दिया था।
🔸हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून,1576 को महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बीच हुआ था।
यह युद्ध पहाड़ी दर्रे से लेकर बनास नदी के तट तक चला था।
युद्ध में महाराणा प्रताप की जीत हुई थी। यह युद्ध 4 घंटे तक ही चला था मगर इसमें दोनों ओर से सैंकडों सैनिक