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महाराणा प्रताप -:

शायद देश के बहुसंख्यक लोगो को ये पता भी नही व इतिहास में शायद वे पढ़ाया भी नही गया
हल्दीघाटी के बाद अगले १० साल में मेवाड़ में क्या हुआ,कहीं सुनियोजित तरीके से इतिहास से ये पन्ने हटा तो नही दिये,हल्दीघाटी युद्ध के बाद का समय हिन्दुओं के शौर्य के प्रतीक हैं.
इतिहास में शायद ये भी नहीं पढ़ाया गया है कि हल्दीघाटी युद्ध में जब महाराणा प्रताप ने कुंवर मानसिंह के हाथी पर जब प्रहार किया तो शाही फ़ौज डर के पांच छह कोस दूर तक भाग गई थी और अकबर के आने की अफवाह से पुनः युद्ध में सम्मिलित हुई
ये वाकया अबुल फज़ल की पुस्तक अकबरनामा में दर्ज है.
महाराणा प्रताप को इतिहास में इतिहासकारों ने सिर्फ हल्दीघाटी तक ही सिमित करके मेवाड़ के गौरवशाली इतिहास के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है.वास्तविकता में हल्दीघाटी का युद्ध
महाराणा प्रताप और मुगलो के बीच हुए कई युद्धों की शुरुआत भर था,
. मुग़ल न तो महाराणा प्रताप को पकड़ सके और न ही मेवाड़ पर अधिपत्य जमा सके.
हल्दीघाटी के बाद के वर्षों में क्या हुआ...महाराणा प्रताप के शौर्य पराक्रम की बानगी..👇
हल्दी घाटी के युद्ध के बाद महाराणा के पास सिर्फ 7000 सैनिक ही बचे थे..और कुछ ही समय में मुगलों का कुम्भलगढ़,गोगुंदा,उदयपुर और आसपास के ठिकानों पर अधिकार हो गया था.
उस स्थिति में महाराणा ने “गुरिल्ला युद्ध” की योजना बनायीं और मुगलों को कभी भी मेवाड़ में स्थापित नहीं होने दिया.
महाराणा प्रताप के शौर्य पराक्रम से विचलित अकबर ने उनको दबाने के लिए 1576 में हुए हल्दीघाटी के बाद भी हर साल 1577 से 1582 के बीच एक एक लाख के सैन्यबल भेजे जो कि महाराणा को झुकाने में हर बार नाकामयाब रहे.
हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात् महाराणा प्रताप के खजांची भामाशाह और उनके भाई ताराचंद मालवा से दंड के पच्चीस लाख रुपये और दो हज़ार अशर्फिया लेकर हाज़िर हुए.इस घटना के बाद महाराणा प्रताप ने भामाशाह का बहुत सम्मान किया और दिवेर किले पर हमले की योजना बनाई,
भामाशाह ने जितना धन महाराणा प्रताप को राज्य की सेवा के लिए दिया उस से 25 हज़ार सैनिकों को 12 साल तक रसद दी जा सकती थी.बस फिर क्या था..महाराणा ने फिर से अपनी सेना संगठित करनी शुरू की और कुछ ही समय में 40000 लडाकों की एक शक्तिशाली सेना तैयार हो गयी.
उसके बाद शुरू हुआ हल्दीघाटी युद्ध का द्वितीय भाग जिसको इतिहास से शायद सुनियोजित तरीके से या तो हटा दिया गया है या एकदम दरकिनार कर दिया गया है.
इसे " बैटल ऑफ़ दिवेर "कहा गया गया है.
सन १५८२ की बात विजयदशमी का दिन और महराणा ने अपनी नयी संगठित सेना के साथ मेवाड़ को वापस स्वतंत्र कराने का प्रण लिया.उसके बाद सेना को दो हिस्सों में विभाजित करके युद्ध का बिगुल फूंक दिया एक टुकड़ी की कमान स्वंय महाराणा के हाथ तो दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व उनके पुत्र अमर सिंह के हाथ
कर्नल टॉड ने भी अपनी किताब में हल्दीघाटी को Thermopylae of Mewar और दिवेर के युद्ध को राजस्थान का सबसे लंबा या मैराथन बताया है.ये वही घटनाक्रम हैं जिनके इर्द गिर्द आप लगभग कई फिल्मे भी देख चुके हैं.
कर्नल टॉड ने भी महाराणा और उनकी सेना के शौर्य, तेज,पराक्रम और देश के प्रति उनके अभिमान को स्पार्टन्स (Spartens)के तुल्य ही बताया है जो युद्ध भूमि में अपने से 4 गुना बड़ी सेना से यूँ ही टकरा जाते थे.
दिवेर का युद्ध बड़ा भीषण था,महाराणा प्रताप की सेना ने महाराजकुमार अमर सिंह के नेतृत्व में दिवेर किले पर हमला किया,हज़ारो की संख्या में मुगल राजपूती तलवारो बरछो भालो और कटारो से बींध दिए गए।
युद्ध में महाराजकुमार अमरसिंह ने सुल्तान खान मुग़ल को बरछा मारा जो सुल्तान खान और उसके घोड़े को काटता हुआ निकल गया.उसी युद्ध में एक अन्य राजपूत की तलवार एक हाथी पर लगी और उसका पैर काट कर निकल गई।
महाराणा प्रताप ने विरोधी सेनापति बहलोल खान मुगल के सर पर वार किया और तलवार से उसे घोड़े समेत काट दिया,शौर्य की ये बानगी इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलती है.उसके बाद यह कहावत बनी की मेवाड़ में सवार को एक ही वार में घोड़े समेत काट दिया जाता है,
ये घटनाये मुगलो को भयभीत करने के लिए बहुत थी,बचे खुचे ३६००० मुग़ल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्म समर्पण किया.
दिवेर के युद्ध ने मुगलो का मनोबल इस तरह तोड़ दिया की जिसके परिणाम स्वरुप मुगलों को मेवाड़ में बनायीं अपनी सारी 36 थानों,ठिकानों को छोड़ के भागना पड़ा,यहाँ तक की मुगल डर के मारे कुम्भलगढ़ का किला तक रातो रात खाली कर भाग गए.
दिवेर के युद्ध के बाद प्रताप ने गोगुन्दा,कुम्भलगढ़ बस्सी,चावंड,जावर,मदारिया,मोही,माण्डलगढ़ जैसे महत्त्वपूर्ण ठिकानो पर कब्ज़ा कर लिया,इसके बाद भी महाराणा और उनकी सेना ने अपना अभियान जारी रखते हुए सिर्फ चित्तौड़ को छोड़ के मेवाड़ के सारे किले/दुर्ग वापस स्वतंत्र करा लिए.
अधिकांश मेवाड़ को पुनः कब्जाने के बाद महाराणा प्रताप ने आदेश निकाला की अगर कोई एक बिस्वा जमीन भी खेती करके मुगलों को हासिल (टैक्स) देगा उसका सर काट दिया जायेगा,इसके बाद मेवाड़ और आस पास के बचे खुचे शाही ठिकानो पर रसद पूरी सुरक्षा के साथ अजमेर से मगाई जाती थी.
दिवेर का युद्ध न सिर्फ राजपूतों बल्कि मुगलो के लिए भी निर्णायक साबित हुआ,राजपूतों ने मुगलो को भयाक्रांत कर दिया,दिवेर के युद्ध ने मेवाड़ में अकबर की विजय के सिलसिले पर न सिर्फ विराम लगा दिया बल्कि मुगलो को भयाक्रांत कर दिया की अकबर के समय में मेवाड़ पर बड़े आक्रमण लगभग बंद हो गए
इस घटना से क्रोधित अकबर ने हर साल लाखों सैनिकों के सैन्य बल अलग अलग सेनापतियों के नेतृत्व में मेवाड़ भेजने जारी रखे लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली.हर बार महाराणा प्रताप ने मुगलों को धूल चटाई,
अकबर खुद 6 महीने मेवाड़ पर चढ़ाई करने के मकसद से मेवाड़ के आस पास डेरा डाले रहा लेकिन महाराणा प्रताप के सामने न आया युद्ध करने महराणा द्वारा सेनापति बहलोल खान को उसके घोड़े समेत आधा चीर देने के ही डर था कि वो सीधे तौर पे कभी मेवाड़ पे चढ़ाई करने नहीं आया.,
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