As per Karmakanda of Vedas there are certain Yagnas and rituals where sacrifice of an animals is prescribed. But all such rituals are banned in Kaliyuga.
This is what Swami Karapatri Ji wrote in his "Vedartha Parijat". Any spelling mistake blame it on Google OCR extractor. Quoting verbatim
"अश्वमेधयज्ञे यद्यप्यश्वस्य प्रत्यक्षस्य प्रयोगो भवति, तथापि विशिष्टैविधानैरोषधैश्च तस्य कायकल्पेन दिव्यत्वमापद्यते। 1/
न च सर्वेऽश्वा अश्वमेधार्हा भवन्ति, किन्तु श्यामकर्णसज्ञकोऽतिदुर्लभ एवाश्वस्तत्रोपयुज्यते। प्रजापत्यभेदबुद्धया तदुपासनमपि बृहदारण्यकादौ विहितम् । "उषा वा मध्यस्य अश्वस्य शिर" इत्यादिना कायाकल्पेन दिव्यभावापन्नस्य तस्य रक्तादयः सर्वेऽपि धातवः शुद्धयन्ति ।
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तद्वपाया होमे वपाधूमगन्धः पापापहो भवति ।
(अश्वमेधयज्ञ मे यद्यपि अश्व का प्रत्यक्ष उपयोग किया जाता है, तथापि विशिष्ट विधानो से तथा औषधियो से उसका कायाकल्प किया जाता है, उस कारण दिव्यता प्राप्त होती है । सभी अश्व, अश्वमेध के योग्य नही होते ।
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केवल श्यामकर्ण अश्व ही उस यज्ञ के योग्य रहता है, जो अत्यन्त दुर्लभ है । बृहदारण्यक में प्रजापति और अश्व दोनों में अभेद बुद्धि करके उसकी उपासना भो बताई है। कायाकल्प होने से दिव्यभावापन्त हए उस अश्व के रक्तादि सभी धातू शुद्ध हो जाते हैं।
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उसकी वपा का होम करने पर निकलनेवाला वयाधूम गन्ध,पापनाशक माना गया है ।)
"तं वपा धूपगन्धं तु धर्मराजः सहानुजैः।
उपाजिघ्रद् यथाशास्त्रं सर्वपापापहं तदा ॥"~(महाभारत आश्वमेधिकपर्व ८९।४ )
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(साधारण अश्व की वसा, मांस आदि अग्नि में जलने पर अत्यन्त दुर्गन्ध फैलती है, किन्तु वेदोक्त वैधानिक प्रक्रिया से उसके रक्तादि धातुओ में दिव्यता आने के कारण ही वपाहोम धूम,आघ्रेय और पापनाशक हो जाता है।)
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( उसके शरीर से दूध की धार प्रवाहित होतो है, उसका शरीर कर्पूरमय हो जाता है, कपूर की सुगन्ध सर्वत्र महकने लगती है । उसके शरीर से निकला तेज भगवान् के मुख मे प्रविष्ट हो जाता है ।)
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तेन शरीरं शुद्ध प्रतिश्यायादिरहितं भवति ।
(जैसे धन्वन्तरी के समान महान् वास्तविक आयुर्वेदवेत्ता वैद्य लोग वृद्ध को भी कायाकल्प के द्वारा युवा बना देने की क्षमता रखते हैं, और वृद्ध को युवा बना देते है, उसी तरह वेद विहित विशिष्ट विधानो से भोजनो से, मन्त्रो के द्वारा ऋषिगण
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अश्व में दिव्यत्व प्राप्त करा देते थे, किन्तु आज कलियुग में यह सब यथाविधि-विधान का होना संभव न देखकर कलियुग में इस यज्ञ के अनुष्ठान का निषेध कर दिया गया है। जैसे योगी लोग नेति, धौती, वस्त्रवस्ति, वज्रोली, प्राणायाम आदि विविध यौगिक प्रक्रियायों से अपने देह का शोधन कर अपने
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शरीर को शुद्ध प्रतिश्यायादिरहित करते हैं।उसी तरह अश्वमेधीय अश्व का शरीर वेदविहित विविधविधियो से मलरहित शुद्ध किया जाता है । )
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अश्वमेधे राजमहिष्या सहवासे अश्लीलसम्बन्धिसमाधानं तु पूर्वमेवोक्तम् ।
(अश्वमेध के विषय में जो अन्यान्य आक्षेप किये गये है, उन सबका समाधान पहले ही किया जा चुका है ।)
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सतीत्वमूलं तत् ॥ ४४ ॥
सतीत्व उसका मूल है ॥ ४४ ॥
वर्णाश्रम-शृङ्खलाकी भित्ति और उसका विज्ञान हृदयङ्गम करानेके अभिप्रायसे सबसे प्रथम पूज्यपाद महर्षि सूत्रकार कह रहे हैं कि, यदि विचारके देखा जाय, तो यही सिद्ध होगा कि,
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वर्णाश्रम शृङ्खलाका मूल नारीजातिका सतीत्व है। आश्रमधर्मका मूल वर्णधर्म है और वर्णधर्मका मूल रजोवीर्यकी शुद्धि है, रजोवीर्य शुद्धिका मूल नारीजातिमें त्रिलोकपवित्रकारी सतीत्वधर्म है। गृहस्थगण चाहे कितना ही सदाचारसे रहें, पुरुषगण चाहे कितने ही संयमी हों,
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यदि नारीजाति अपने तपोधर्मकी रक्षा न करे तो वर्णकी शुद्धि और आश्रमकी शुद्धि दोनों नष्ट हो जायगी और दोनोंकी शृङ्खला बिगड़ जायगी। दूसरी ओर विचारनेयोग्य विषय यह है कि, पुरुषका कदाचार उसके व्यक्तित्व तक ही पहुँचता है और स्त्रीका कदाचार उसके व्यक्तित्व, उसकी सन्तति, उसका कुल,
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As a Hindu what do you make of a description this in your Scriptures?
उभय बीच श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी॥
सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानि देहिं बर बाटा॥2॥
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भावार्थ : दोनों के बीच में श्री जानकीजी कैसी सुशोभित हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच माया हो। नदी, वन, पर्वत और दुर्गम घाटियाँ, सभी अपने स्वामी को पहचानकर सुंदर रास्ता दे देते हैं॥
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"यद्यपि पूज्यपाद भगवान्महषि जैमिनिकृत एक कर्ममीमांसादर्शन उपलब्ध होता है, परन्तु वह उत्तरार्द्ध है, सम्पूर्ण नहीं है ; क्योंकि उसमें केवल वैदिक यज्ञोंकी मीमांसा है, जिसकी इस समय समयकी प्रतिकूलता और साधन-सामग्रीके अभावसे विशेष उपयोगिता नहीं रही है।
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इस समय कर्मके गम्भीर रहस्योंका उद्घाटन करनेवाला कर्ममीमांसाके इस पूर्वाद्ध दर्शनकी, जिसके प्रणेता भगवान् महर्षि भरद्वाज हैं, जो दर्शनसिद्धान्त बहुकाल से लुप्त था, बड़ी आवश्यक्ता और उपयोगिता है ।"
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"भगवत् पूज्यपाद गुरुदेवप्रभुका अनुभव था कि, मन्त्रशक्ति, तपःशक्ति, और योगशक्ति, जिनका वर्णन शास्त्रों में आया है, सब सत्य हैं। अब भी मनुष्य सदाचार और उपासनाद्वारा नित्यपितरोंकी कृपा सुगमतासे प्राप्त कर सकता है।
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"Most Americans simply assumed that the uncivilized Native American was doomed for extinction in the face of civilization—similar to the idea that traditions such as Hinduism are doomed to succumb eventually to what is called ‘progress’."
"The theoretical frame work created by Christian theology and Enlightenment notions of progress and history became the received wisdom about the Natives’ inevitable fate."
Richard Slotkin on the Frontier Myth.
"The Myth of the Frontier is our oldest and most characteristic myth, expressed in a body of literature, folklore, ritual, historiography,and polemics produced over a period of three centuries.1/