सतीत्वमूलं तत् ॥ ४४ ॥
सतीत्व उसका मूल है ॥ ४४ ॥
वर्णाश्रम-शृङ्खलाकी भित्ति और उसका विज्ञान हृदयङ्गम करानेके अभिप्रायसे सबसे प्रथम पूज्यपाद महर्षि सूत्रकार कह रहे हैं कि, यदि विचारके देखा जाय, तो यही सिद्ध होगा कि,
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वर्णाश्रम शृङ्खलाका मूल नारीजातिका सतीत्व है। आश्रमधर्मका मूल वर्णधर्म है और वर्णधर्मका मूल रजोवीर्यकी शुद्धि है, रजोवीर्य शुद्धिका मूल नारीजातिमें त्रिलोकपवित्रकारी सतीत्वधर्म है। गृहस्थगण चाहे कितना ही सदाचारसे रहें, पुरुषगण चाहे कितने ही संयमी हों,
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यदि नारीजाति अपने तपोधर्मकी रक्षा न करे तो वर्णकी शुद्धि और आश्रमकी शुद्धि दोनों नष्ट हो जायगी और दोनोंकी शृङ्खला बिगड़ जायगी। दूसरी ओर विचारनेयोग्य विषय यह है कि, पुरुषका कदाचार उसके व्यक्तित्व तक ही पहुँचता है और स्त्रीका कदाचार उसके व्यक्तित्व, उसकी सन्तति, उसका कुल,
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उसकी जाति और यावत् वर्णाश्रम-शृङ्खलाको भ्रष्ट कर देता है। जातिकी शुद्धिकेलिये तो क्षेत्रकी शुद्धि ही प्रधान है और सन्ततिकी संस्कार-शुद्धि माताकी संस्कारशुद्धि पर ही निर्भर करती है। इस कारण यह सिद्ध है कि, वर्णाश्रमका मूल नारीजातिका सतीत्व है ॥ ४४ ।।"
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और भी कह रहे हैं---
शुद्धिः स्कन्धः ॥४५॥
शुद्धि इसका स्कन्ध है ॥ ४५ ॥
यदि वर्णाश्रम-व्यवस्थाको एक वृक्ष के रूपकमें सजाया जाय, तो यह मानना पड़ेगा कि, नारीजातिका सतीत्व जैसे उसका मूल है, वैसे ही रजोवीर्यकी शुद्धि उसका स्कन्धरूप है।
वृक्षका स्कन्ध जिसप्रकार उसको थाम्हे रहता है, उसीप्रकार पितरोंसे प्राप्त शुद्ध वंशपरम्परागत जो वीर्यकी शुद्धि है और पवित्र क्षेत्ररूपसे माताके द्वारा प्राप्त जो रजको शुद्धि है, ये हो दोनों वर्णाश्रमरूपी कल्पवृक्ष के स्कन्धरूप हैं।
संस्कारपादमें यह भलीभाँति सिद्ध हो चुका है कि, रज और वीर्यके द्वारा उभयविध संस्कारका आकर्षण होता है। इसप्रकारसे उभयविध शुद्ध संस्कारोंको परम्परासे क्रमप्राप्त आकर्षण सृष्टिकालके आदिसे होते रहनेसे वर्णाश्रमशृङ्खलामयी आर्य जाति इस नाशवान् संसारमें चिरजीवी बनी रहती है,
इसी कारण शुद्धि उसका स्कन्ध है ॥४५॥
और भी कहते हैं
शृङ्खला शाखा ॥ ४६॥
शृङ्खला उसकी शाखा है ॥ ४६॥
वर्णधर्म और आश्रमधर्म निभानेके लिये पूज्यपाद महर्षियोंने जो नाना दार्शनिक युक्तियोंसे दृढ़ शृङ्खला बाँधी है, वही इस वृक्षकी शाखायें हैं।
वृक्षका विस्तार और उस विस्तारका अस्तित्व जिसप्रकार शाखाओंके द्वारा सुरक्षित होता है, उसी प्रकार नाना प्रकारकी वर्णाश्रम-शृङ्खलाओंके द्वारा वर्णाश्रमका महत्त्व सुरक्षित होता है ।
समाज-दण्ड, राजदण्ड, शास्त्रविचार, धर्माधर्मविचार नष्ट-भ्रष्ट हो जाने पर भी यही शृङ्खला वर्णाश्रम की रक्षा करती है ॥ ४६ ॥
और भी कहते हैं
सदाचारः पत्रम् ॥४७॥
सदाचार पत्ते हैं ॥४७॥
उस कल्पद्रुमके पत्रसमूह सदाचार हैं ।
जैसे पत्तोंके द्वारा वृक्ष का परिचय मिलता है, जैसे वृक्षके पत्तोंके द्वारा वृक्षका वृक्षत्व पूर्णताको प्राप्त होता है, उसीप्रकार वर्णोचित और आश्रमोचित सदाचार पालनके द्वारा ब्राह्मण-क्षत्रियादि वर्ण और गार्हस्थ्यादि आश्रम पहचाने जाते हैं और उनकी मर्यादा अक्षुण्ण रहती है ॥४७॥
और भी कहते हैं---
पुष्पमभ्युदयः ॥४८॥
अभ्युदय पुष्प है ॥४८॥
वृक्षोंका पुष्प जिसप्रकार फलोत्पत्तिका कारण होता है, उसी प्रकार निःश्रेयसरूपी मुक्तिफल की प्राप्ति कराने के लिये वर्णाश्रमधर्म जीवको नियमितरूपसे अभ्युदय देकर मुक्तिपदमें पहुँचा देता है।
अभ्युदय दो प्रकारका होता है, एक लौकिक अभ्युदय, दूसरा पारलौकिक अभ्युदय । वर्णाश्रमधर्मके आचरणद्वारा वे दोनों अभ्यदय जीवको स्वतः प्राप्त होते जाते हैं।
वर्णाश्रमशृङ्खला और वर्णाश्रम सदाचार ऐसे सुकौशलपूर्ण रीतिपर बनें है कि, जिनके यथाक्रम पालन करनेसे क्रमाभ्युदयका प्राप्त करना निश्चित है। दूसरी ओर पुष्पकी शोभा और सुगन्धद्वारा जैसे सर्वजनको प्रसन्नता और पुष्पनिःसृत मधुद्वारा मनुष्यलोकसे लेकर देवलोकतककी तृप्ति होती है,
उसी प्रकार वर्णाश्रमकी व्यवस्थाद्वारा ऋषि, देवता और पितरोंकी किस प्रकार प्रसन्नता होती है, सो पहले कहा गया है । इस कारण पुष्प और अभ्युदयका दृष्टान्त युक्तियुक्त है ॥ ४८ ॥
और भी कह रहे हैं---
कैवल्यं फलम् ॥ ४९ ॥
कैवल्य फल है ॥ ४९ ॥
वर्णाश्रमधर्मके पालनसे कैवल्य रूपी फलकी प्राप्ति स्वतः ही होती है।
जिसप्रकार वृक्षके पुष्पसे ही फलोत्पत्ति होती है,उसीप्रकार वर्णाश्रमधर्मके पालनद्वारा अपने आपही जीवको अभ्युदय प्राप्त होते-होते अन्तमें कैवल्यकी प्राप्ति हो जाती है । जन्म-जन्मान्तरमें वर्णाश्रमधर्मके द्वारा क्रमाभ्युदय होना निश्चय है।
चारों वर्णमें क्रमशः काम, अर्थ, धर्म और मोक्षकी चरितार्थता करनेकी सुकौशलपूर्ण क्रिया रक्खी गयी है। उसी प्रकार चारों आश्रमों में से प्रथम दो में प्रवृत्ति और अंतिम दो में निवृत्तिकी चरितार्थताकी शृङ्खला बाँधी गयी है।
इसप्रकारसे जीव वर्णाश्रमधर्मका पालन करता हुआ अपने आपही अन्तमें अवश्य ही कैवल्यभूमिमें पहुँच जाता है । मुक्तिके लिये उसको स्वतन्त्र उद्योग करनेकी आवश्यकता नहीं होती है ॥ ४९ ॥
अब वर्णाश्रम-शृङ्खलाका दिग्दर्शन करा रहे हैं
अधिभूतशुद्धिनाशकोऽसवर्णोद्वाहः ॥५०॥
असवर्ण विवाह अधिभूतशुद्धिका नाशक है ॥५०॥
वर्णाश्रम श्रृंखलाकी भित्ति का विस्तारित स्वरूप वर्णन करके अब उसकी शृङ्खलाका स्वरूप दिखा रहे हैं।
वर्णाश्रमशृङ्खलामें स्ववर्णमें विवाह करना ही उसकी रक्षाका कारण होता है और असवर्ण विवाह करनेसे उसकी शुद्धि नष्ट हो जाती है। वर्णाश्रम-शृङ्खलाका प्रथम सिद्धान्त यह है कि, असवर्णविवाह न किया जाय और स्ववर्ण विवाह किया जाय । इस संसारमें स्त्रीजातिका आकर्षण सबसे अधिक है।
उस मोहमय आकर्षणके वशीभूत होकर जातिको शुद्ध रखनेवाली शृङ्खला नष्ट न होने पावे और अशुद्धताका द्वार रुद्ध हो जाय, जिससे आर्यजाति चिरजीवी हो सके। इस कारण इस सूत्रका आविर्भाव किया गया है॥५०॥
और भी कहा जाता है---
गुणपरिपन्थीच ॥५१॥
गुणपरिपन्थी भी है ॥ ५१ ॥
असवर्णविवाह दूसरे वर्णके साथ सङ्करता उत्पन्न करके वर्णकी शुद्धिका तो नाश करता ही है ; परन्तु गुणोंमें भी बाधक है। भगवान श्रीकृष्णने गीतोपनिषद्में कहा है
चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
भगवान् ने जो चारों वर्गों की अलग-अलग सृष्टि की है, उनमें गुणविभाग भी एक कारण है। सत्त्वप्रधान ब्राह्मण, सत्त्वरजःप्रधान क्षत्रिय, रजस्तमःप्रधान वैश्य और तमोगुणप्रधान शूद्र माने गये हैं। इन तीनों गुणोंका आकर्षण रजोवीर्यके द्वारा होता है। शरीर त्रिगुणका आधार है,
इस कारण रजोवीर्यकी शुद्धिके बिना त्रिगुणका तारतम्य ठीक-ठीक आकर्षित होकर स्थापित नहीं हो सकता है ; अतः मानना ही पड़ेगा कि, असवर्ण विवाह गुणसंग्रहका भी बाधक है ॥ ५१ ॥
अब शृङ्खलाका दूसरा सिद्धान्त कह रहे हैं। कौन विवाह वर्णाश्रम शृंखलाका घातक होता है, यह बतलाते हैं---
तत्र वर्णाश्रमशृङ्खलाविघाती विलोमः ॥ ५२ ॥
विलोमविवाह वर्णाश्रम-शृङ्खलाका घातक है ॥ ५२ ॥
वर्णाश्रमशृंखलामें अपने वर्णमें वर-कन्याका विवाह सबसे श्रेष्ठ माना गया है।
यदि कारणवश अनुलोम विवाह हो जाय, अर्थात् उच्चवर्णका पुरुष अपनेसे निम्न वर्णकी कन्यासे विवाह करले, तो वह अनुलोम विवाह कहलाता है । ऐसे विवाहकी सम्मति शास्त्रकार देते हैं ; परन्तु विलोम-विवाह अर्थात निम्नवर्णका पुरुष उच्चवर्ण की कन्यासे विवाह करे, तो वह वर्णाश्रमशृङ्खलाका घातक होगा।
निम्नवर्णकी स्त्रीका रज उच्चवर्णके पुरुषके वीर्यको अपवित्र नहीं कर सकता ; परन्तु यदि उच्च वर्णकी स्त्रीका रज हो और निम्नवर्णके पुरुपका वीर्य हो, तो प्रजातन्तुमें आध्यात्मिक स्थितिका हानि हो जाता है। इस कारण विलोम-सृष्टि पापवृद्धिका कारण हो जाती है।
इससे पवित्र सृष्टि-शृङ्खला विगड़ जाती है ॥ ५२॥
अपने सिद्धान्तकी पुष्टि के लिये और भी कह रहे हैं---
न नानुलोमस्तथा ॥ ५३॥
वैसा अनुलोम विवाह नहीं होता ॥ ५३ ॥
अनुलोम विवाहमें रज निम्नवर्णकी स्त्रीका होनेसे और उच्चवर्णके पुरुषका वीर्य होनेसे पुरुषका वीर्य अपवित्र होनेके कारण वर्णाश्रमशृंखलामें विशेष बाधा नहीं होती॥५३॥
ऐसे विवाहसे जो गौणता हो जाती है वह कहते हैं---
तज्जःसर्गो मातृजातीयः ॥ ५४॥
उनकी सृष्टि माताकी जातिकी होती है ॥ ५४॥
यद्यपि अनुलोम विवाहकी सृष्टि अधर्मज नहीं कही जा है कि, ऐसे विवाहसे उत्पन्न हुई सन्तान माताकी जातिकी मानी जाती है ।
विलोमज सृष्टि पापजनक है। यद्यपि अनुलोमज सृष्टि पापजनक नहीं है, क्योंकि उसमें वर्णाश्रमशृंखला नहीं बिगड़ती, ऐसी सृष्टि रजोवीर्यको घातक न होनेसे वह वर्णाश्रमशृङ्खलाका नाशकारी नहीं है, तथापि रजोवीर्यकी समानता न होनेके कारण वह सृष्टि माताकी जातिकी हो जाती है ॥ ५४॥
अब शृंखलाका दूसरा सिद्धान्त कह रहे हैं
कुलोच्छेदी स्वगोत्रायाः ॥ ५५॥
स्वगोत्रविवाह कुलका नाशक है ॥ ५५ ॥
जिस प्रकार वर्णाश्रमशृंखलाका प्रथम सिद्धान्त असवर्णविवाह न करना है, वैसे ही दूसरा सिद्धान्त स्वगोत्र विवाह न करना है।
महर्षि सूत्रकार दूसरा सिद्धान्त कह रहे हैं कि, स्वगोत्रविवाह करनेसे कुलका नाश होता है । जिस मनुष्यजाति अथवा जिस वंशमें स्वगोत्र विवाह प्रचलित है, न वह मनुष्यजाति चिरजीवी हो सकती है और न वह वंश चिरजीवी रह सकता है ।
स्वगोत्र में विवाहके द्वारा कुल नष्ट हो जाता है और ऐसा शुद्धकुल नष्ट हो जानेसे शुद्ध जाति नष्ट हो जाती है। लौकिक इतिहास इसका साक्षी देता है कि, जिस मनुष्यजातिमें वर्णाश्रमशृंखला नहीं है, पृथिवीमें ऐसी कोई भी मनुष्य जाति चिरजीवी नहीं है।
इस नाशवान् संसारमें अनेक मनुष्यजातियाँ कराल कालके गालमें पतित हो लुप्त हो गयी हैं ; एकमात्र वर्णाश्रमधर्मी आर्यजाति ही चिरजीवी है। एकही गोत्र के रज और एकही गोत्रके वीर्यका संमिश्रण होना वीर्यके दुर्बलताका कारण है।
ऐसे ही होते-होते वीर्य अपनी मौलिकता खो देगी इसी कारण स्मृतिशास्त्रमें कहा गया है कि, स्वगोत्रागमन मातृगमनके समान है ॥ ५५ ॥
और भी कह रहे हैं -
पितृकोपकरश्च ॥५६॥
पितृकोपकर भी है ॥ ५६ ॥
स्वगोत्र विवाह केवल कुलनाशक ही नहीं है, पितरोंके कोपका भी कारण है। अर्यमा, अग्निष्वात्ता आदि जो नित्यपितृगण हैं, जिनका सृष्टिकार्यकी रक्षामें बड़ा भारी अधिकार है, ऐसे पितृगणका भी कोप स्वगोत्र विवाह करनेसे होता है।
नित्यपितृगण एक श्रेणीके देवता हैं और वे आधिभौतिक जगत् की सुरक्षामें नियुक्त रहते हैं। स्थूलशरीरनिर्माण, स्थूलशरीरकी रक्षा उनका कार्य है। पितृगणके कार्यके भी स्वतन्त्र-स्वतन्त्र नियम हैं। उन नियमोंमें बाधा होनेसे स्वगोत्र विवाहद्वारा पितृकोपकी प्राप्ति होती है ॥ ५६ ॥
अब शृंखलाका अन्य सिद्धांत कहा जाता है---
शत्तिःक्षयो वयोऽधिकायाः ॥ ५७ ॥
वयोधिकासे शक्तिक्षय होता है ॥ ५७ ॥
वरसे यदि कन्याकी आयु अधिक हो, तो ऐसे विवाहके द्वारा पुरुषकी शक्तिका क्षय होता है। इस कारण शास्त्रमें वयोधिका कन्यासे विवाह करना निषिद्ध है।
यह पहले ही कहा गया है, कि पुरुष बीजरूप है और स्त्री भूमिरूपा है। जिस प्रकार कीटादिसम्पर्कसे खेतमें बोये जानेवाले बीजकी शक्ति नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार वयोधिका कन्यासे विवाह होनेसे पुरुषकी शक्तिका नाश हो जाता है।
सृष्टिके उत्पन्नकारक बीजमें त्रिविध शक्ति रहती है,यथा-अधिभूतशक्ति,अधिदैवशक्ति और अध्यात्मशक्ति।यद्यपि तीनों शक्तिका नाश होना एकदम प्रतीत नहीं होता,परन्तु त्रिकालदर्शी महर्षियोंने यह सिद्धान्त किया है कि,इन तीनों शक्तियोंमें न्यूनता समय पाकर अवश्यही देश-काल-पात्रके अनुसार होती है।
जिस कुलमें इस प्रकारका विवाह होगा, उस कुलमें अथवा उस व्यक्तिमें क्रमशः यथादेश काल-पात्र शरीर-सम्पत्ति, संकल्प बल और आत्मबल घट जायगा॥ ५७॥
अब अन्य कहा जाता है---
त्रिविधशुद्धिहन्ता रजस्वलायाः ॥५८॥
रजस्वलासे त्रिविध शुद्धिको हानि होती है ॥ ५८ ॥
कन्यामें रजोदर्शन होते ही उसकी कन्यकावस्थाका नाश होकर स्त्री अवस्था प्राप्त होती है। यह प्रकृतिका स्वभाव है कि, युवकको स्त्रीकी और युवतीको पुरुषकी इच्छा होती है।
यह भी प्रकृति-जन्य स्वभावसिद्ध है कि, ऋतुके समय वह इच्छा स्त्रीमें प्रबल होती है। पशु-पक्षी तकमें यह नियम देखा जाता है। सुतरां रजोदर्शन होते ही कन्यावस्थाका नाश होकर स्त्रीको युवती अवस्था प्राप्त होती है, तो स्त्री चाहे कितनी ही संयमी हो, उसके शरीर, उसके मन और
उसकी बुद्धिमें कुछ-न-कुछ परिणाम होना अवश्य सम्भव है। परिणाम चाहे थोड़ा ही हो, पर होना निश्चित है। इस कारण उस परिणामके साथ-ही-साथ त्रिविधशुद्धिकी यथायोग्य हानि होना भी सम्भव है। जब क्षेत्रमें त्रिविधशुद्धिकी हानि होगी तो, सृष्टिमेंभी उसका प्रभाव पड़ना निश्चित है ॥ ५८ ॥
और भी कहा जाता है
प्रातिभाव्यात सुरक्षादेशः ॥ ५९ ॥
प्रातिभाव्यके कारण सर्वत्र सुरक्षाका आदेश है ॥ ५९ ॥
सृष्टिक्रियामें नारीजातिकी जिम्मेवरी सबसे अधिक होनेके कारण सर्वत्र और सब देशकाल में उसकी सुरक्षा करनेका आदेश है ।
वर्णधर्मके सम्बन्धमें रजोवीर्य्यकी शुद्धिकी रक्षा करना एकमात्र नारीजातिके ऊपर ही निर्भर है। आश्रमधर्मके सम्बन्धमें अन्य तीन आश्रमोंका आश्रय एकमात्र गृहस्थाश्रमको माना गया है, इस कारण गृहस्थाश्रम सबका ज्येष्ठाश्रम कहलाता है। ऐसे गृहस्थाश्रमका एकमात्र आश्रय नारीजाति है।
उसी प्रकार प्रवृत्तिधर्मके लिये साक्षातरूपसे और निवृत्तिधर्मके लिये परोक्षरूपसे नारीजाति आश्रयरूपा है । दूसरी ओर बिना अभ्युदयके निःश्रेयस नहीं हो सकता और बिना नारीजातिकी सहायताके अभ्युदयका मार्ग सरल होना असम्भव है।
इन्हीं सब कारणोंसे मानना ही पड़ेगा कि, सृष्टिके सामञ्जस्यमें और अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की चरितार्थतामें नारी-जातिका प्रातिभाव्य सबसे अधिक है।
यही कारण है कि, वर्णाश्रमशृंखलामें सब देश, काल और पात्रमें नारीजातिकी रक्षाका आदेश है, यथा शास्त्रमें
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।
पुत्रश्च स्थविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥ ५९ ॥
end/
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Today I read a very interesting thing about Arundhati, the wife of Sage Vashishtha and its symbolism as a star of Saptarshi Mandal. I didn't know this symbolism of Arundhati to such a detail. 1/
" The image of Arundhati is of iconic proportions such that her name is found invoked across the country irrespective of the languages spoken and the background of the people. Not many know that the true persona of Arundhati can be known from old Tamil texts!
2/
Arundhati is held as an epitome of pativratatva — a virtue that has no equivalent word in English, except the term ‘chastity’. Interestingly this virtue has a word in Tamil as “karpu” with two ancient Tamil texts giving elaborate description of what this virtue stands for.
3/
I was reading a book critiquing Nilesh Oak's work on the dating of MBH. I guess this criticism is true about his work. 1/ "Analogies as astronomy positions
The Voyager- Simulation Nyaya is capable of proving even analogous statements.
A verse in Mahabharata compares seven Kaurava brothers attacking Bhima with seven planets attacking the Moon.
An enthusiastic Oak armed with this Nyaya runs the simulator and finds seven planets –
2/
that include Uranus, Neptune and Pluto – lined up in the sky from east to west in his Mahabharata date, corroborating this analogy![34]
Analogies have a special place in Nilesh Nilkanth Oak’s claims on ‘logical reasoning’.
3/
काँग्रेस (सेकुलर-सवर्ण)-अशरफ की प्रेम कहानी का एक और प्रमाण बेंगलुरु से। यह हमेशा याद रखें कि यह कोई नयी चीज नही है जो हाल के वर्षों में हुई है। इस प्रेम-कहानी की शुरुआत महात्मा गाँधी द्वारा १९२१ में हुई थी। 1/
जबतक आप इस बात पर विचार नही करेंगे कि भारत पर इस्लामिक शासन के दौरान अस्तित्व में आया आक्रमणकारी विदेशी मुसलमानों (अशरफ वर्ग जो भारतीय मुसलमानों को बहुत ही हेय दृष्टि से देखता था और उनसे बिल्कुल अलग-थलग रहता था) का वर्ग और इन अशरफों की(और बाद में अंगरेज की) स्वामिभक्ति करने1+
2/
वाला हिंदूओं का रायबहादुरी वर्ग २०वीं सदी की शुरुआत में एकाएक कहाँ गायब हो गया, तबतक आप १९२० से २०१४ तक की भारत की राजनीति को आप समझ नही पायेंगे।
3/
As a Hindu what do you make of a description this in your Scriptures?
उभय बीच श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी॥
सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानि देहिं बर बाटा॥2॥
1/
भावार्थ : दोनों के बीच में श्री जानकीजी कैसी सुशोभित हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच माया हो। नदी, वन, पर्वत और दुर्गम घाटियाँ, सभी अपने स्वामी को पहचानकर सुंदर रास्ता दे देते हैं॥
2/
"यद्यपि पूज्यपाद भगवान्महषि जैमिनिकृत एक कर्ममीमांसादर्शन उपलब्ध होता है, परन्तु वह उत्तरार्द्ध है, सम्पूर्ण नहीं है ; क्योंकि उसमें केवल वैदिक यज्ञोंकी मीमांसा है, जिसकी इस समय समयकी प्रतिकूलता और साधन-सामग्रीके अभावसे विशेष उपयोगिता नहीं रही है।
1/2
इस समय कर्मके गम्भीर रहस्योंका उद्घाटन करनेवाला कर्ममीमांसाके इस पूर्वाद्ध दर्शनकी, जिसके प्रणेता भगवान् महर्षि भरद्वाज हैं, जो दर्शनसिद्धान्त बहुकाल से लुप्त था, बड़ी आवश्यक्ता और उपयोगिता है ।"
2/2
"भगवत् पूज्यपाद गुरुदेवप्रभुका अनुभव था कि, मन्त्रशक्ति, तपःशक्ति, और योगशक्ति, जिनका वर्णन शास्त्रों में आया है, सब सत्य हैं। अब भी मनुष्य सदाचार और उपासनाद्वारा नित्यपितरोंकी कृपा सुगमतासे प्राप्त कर सकता है।
1/
As per Karmakanda of Vedas there are certain Yagnas and rituals where sacrifice of an animals is prescribed. But all such rituals are banned in Kaliyuga.