As a Hindu what do you make of a description this in your Scriptures?
उभय बीच श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी॥
सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानि देहिं बर बाटा॥2॥
1/
भावार्थ : दोनों के बीच में श्री जानकीजी कैसी सुशोभित हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच माया हो। नदी, वन, पर्वत और दुर्गम घाटियाँ, सभी अपने स्वामी को पहचानकर सुंदर रास्ता दे देते हैं॥
2/
भावार्थ : जहाँ-जहाँ देव श्री रघुनाथजी जाते हैं, वहाँ-वहाँ बादल आकाश में छाया करते जाते हैं।
3/
or this one
सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा॥
भावार्थ :श्री रघुवीर सेना सहित समुद्र के पार हो गए। वानरों और उनके सेनापतियों की भीड़ कही नहीं जा सकती॥
4/
सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा॥
खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालू कपि जहँ तहँ धाए॥2॥
भावार्थ : प्रभु ने समुद्र के पार डेरा डाला और सब वानरों को आज्ञा दी कि तुम जाकर सुंदर फल-मूल खाओ। यह सुनते ही रीछ-वानर जहाँ-तहाँ दौड़ पड़े॥
5/
सब तरु फरे राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी॥
खाहिं मधुर फल बिटप हलावहिं। लंका सन्मुख सिखर चलावहिं॥3॥
भावार्थ : श्री रामजी के हित (सेवा) के लिए सब वृक्ष ऋतु-कुऋतु- समय की गति को छोड़कर फल उठे।
6/
वानर-भालू मीठे फल खा रहे हैं, वृक्षों को हिला रहे हैं और पर्वतों के शिखरों को लंका की ओर फेंक रहे हैं॥
Is there some deeper meaning or is it just the hyper imagination of Goswami Tulsidas as a poet?
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सतीत्वमूलं तत् ॥ ४४ ॥
सतीत्व उसका मूल है ॥ ४४ ॥
वर्णाश्रम-शृङ्खलाकी भित्ति और उसका विज्ञान हृदयङ्गम करानेके अभिप्रायसे सबसे प्रथम पूज्यपाद महर्षि सूत्रकार कह रहे हैं कि, यदि विचारके देखा जाय, तो यही सिद्ध होगा कि,
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वर्णाश्रम शृङ्खलाका मूल नारीजातिका सतीत्व है। आश्रमधर्मका मूल वर्णधर्म है और वर्णधर्मका मूल रजोवीर्यकी शुद्धि है, रजोवीर्य शुद्धिका मूल नारीजातिमें त्रिलोकपवित्रकारी सतीत्वधर्म है। गृहस्थगण चाहे कितना ही सदाचारसे रहें, पुरुषगण चाहे कितने ही संयमी हों,
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यदि नारीजाति अपने तपोधर्मकी रक्षा न करे तो वर्णकी शुद्धि और आश्रमकी शुद्धि दोनों नष्ट हो जायगी और दोनोंकी शृङ्खला बिगड़ जायगी। दूसरी ओर विचारनेयोग्य विषय यह है कि, पुरुषका कदाचार उसके व्यक्तित्व तक ही पहुँचता है और स्त्रीका कदाचार उसके व्यक्तित्व, उसकी सन्तति, उसका कुल,
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"यद्यपि पूज्यपाद भगवान्महषि जैमिनिकृत एक कर्ममीमांसादर्शन उपलब्ध होता है, परन्तु वह उत्तरार्द्ध है, सम्पूर्ण नहीं है ; क्योंकि उसमें केवल वैदिक यज्ञोंकी मीमांसा है, जिसकी इस समय समयकी प्रतिकूलता और साधन-सामग्रीके अभावसे विशेष उपयोगिता नहीं रही है।
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इस समय कर्मके गम्भीर रहस्योंका उद्घाटन करनेवाला कर्ममीमांसाके इस पूर्वाद्ध दर्शनकी, जिसके प्रणेता भगवान् महर्षि भरद्वाज हैं, जो दर्शनसिद्धान्त बहुकाल से लुप्त था, बड़ी आवश्यक्ता और उपयोगिता है ।"
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"भगवत् पूज्यपाद गुरुदेवप्रभुका अनुभव था कि, मन्त्रशक्ति, तपःशक्ति, और योगशक्ति, जिनका वर्णन शास्त्रों में आया है, सब सत्य हैं। अब भी मनुष्य सदाचार और उपासनाद्वारा नित्यपितरोंकी कृपा सुगमतासे प्राप्त कर सकता है।
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As per Karmakanda of Vedas there are certain Yagnas and rituals where sacrifice of an animals is prescribed. But all such rituals are banned in Kaliyuga.
"Most Americans simply assumed that the uncivilized Native American was doomed for extinction in the face of civilization—similar to the idea that traditions such as Hinduism are doomed to succumb eventually to what is called ‘progress’."
"The theoretical frame work created by Christian theology and Enlightenment notions of progress and history became the received wisdom about the Natives’ inevitable fate."
Richard Slotkin on the Frontier Myth.
"The Myth of the Frontier is our oldest and most characteristic myth, expressed in a body of literature, folklore, ritual, historiography,and polemics produced over a period of three centuries.1/