मैं सीधी सोच का कंज़्यू-मर,
तुम कोई ऐड-जेहाद प्रिये,
मैं रामायण की चौपाई,
तुम ट्विस्टेड इक संवाद प्रिये,
मेरा विरोध बस शब्दों तक,
पर दोष सदा मेरे माथे,
पर भूल न जाना, मुझसे ही,
बाज़ार सदा आबाद प्रिये,
मैं शरद पवार के सच जैसा,
तुम भारत भर की भ्रांति प्रिये,
मैं हूँ यूएसए की उथल-पथल,
तुम हो ईरान की शांति प्रिये,
मैं नीतिवचन शिवसेना का,
तुम तड़पन जैसे अरनब की,
मैं हूँ राहुल की लीडरशिप,
तुम कम्यूनिस्टों की क्रांति प्रिये!
मैं सहज पुरातन संस्कार,
तुम एक किताबी तर्क प्रिये,
मैं सर्वस्व समेटे द्रोणगिरि,
तुम हो बूटी का अर्क प्रिये,
मैं दर्शन बल वाला मानस,
तुम व्यक्ति-बंध वाला शरीर,
वह, जिसे मापना दुर्लभ हो,
है इतना लंबा फर्क प्रिये!
मैं अंडर फ़ालोड ट्वीटर हूँ,
तुम फ़ॉलोअर प्राइसलेस प्रिये,
तुमसे एफ एफ मिल जाए तो,
कम हो जीवन का क्लेश प्रिये,
मैं सदा तुम्हारा हूँ कृतज्ञ,
तुम पूजनीय हो मेरे लिए,
फ़ॉलो फ़्राइडे देने ख़ातिर,
हो जाए एक संदेश प्रिये😀
मैं आवश्यक एक कृषि सुधार,
तुम जबरन एक प्रोटेस्ट प्रिये,
मैं सकल राष्ट्र में व्याप्त शांति,
तुम दिल्ली का अनरेस्ट प्रिये,
मैं मेहनत पर निर्भर किसान,
तुम काश्तकार एम एस पी पर,
मैं परेशान एक लोकतंत्र,
तुम पोषित कोई पेस्ट प्रिये!
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यह कैसा तर्क है कि; एक भी श्लोक रामायण में दिखा सकते हो जो साबित कर दे कि श्रीराम के अयोध्या लौटने पर पटाखे जलाए गए थे?
कोई यह साबित कर सकता है कि इस पृथ्वी पर पहले शुभ कार्य में नारियल या फूल का प्रयोग किया गया था? पहले पूजन में ही दीपक का प्रयोग किया गया था?
क्या हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता के धार्मिक, सांस्कृतिक अनुष्ठान या पूजा पद्धति के नियम पहले ही दिन तय हो गए होंगे? क्या किसी ने पहले ही दिन लिख कर नियम बना दिए थे कि बस इतना ही करना है और इससे बाहर कुछ नहीं करना है?
जिस संस्कृति का इतिहास सहभागिता का अनुपम उदाहरण रहा हो, उसके विकास में समय समय पर नियम जुड़े न हों, इस बात की गारंटी कोई दे सकता है? यदि पहले दिन किताब लिख कर रख दी गई होती तो क्या हमारे इतने देवता होते? हमारे यहाँ पूजा की इतनी पद्धतियाँ होतीं?
जाट आंदोलन,अर्बन नक्सल,दिल्ली दंगा,तुर्की प्लान,एमपी किसान ‘आंदोलन’, शाहीन बाग, जेएनयू..... हाथरस, ऐसे षड्यंत्र तानाशाही के विरुद्ध किए जाते हैं।
नरेंद्र मोदी को वर्षों तक तानाशाह कहने का सबसे बड़ा परिणाम यह है कि विपक्ष(कांग्रेस) अपने प्रॉपगैंडा में ख़ुद ही विश्वास करने लगा है।
लोकतंत्र में विरोध के तरीक़े षड्यंत्र और मीडिया से नहीं बल्कि परोक्ष रूप से रैली, डिबेट, शासन का विकल्प और नेतृत्व देने में है। समस्या यह है कि इतने षड्यंत्र करने के बाद की बदनामी और लोकतांत्रिक तरीक़े अपनाने पर असफल होने का भय विपक्ष को केवल षड्यंत्र करने तक रोक के रखता है।
विपक्ष पोषित पत्रकार और संपादक हवाट्सऐप यूनिवर्सिटी का चाहे जितना मज़ाक़ बना लें और सच को हँसी में चाहे जितना उड़ा लें, सच यही है कि सोशल मीडिया बहुत मज़बूत है और सूचना प्रसार से देश का राजनीतिक भविष्य तय करने की क्षमता रखता है।
रुरल इकॉनमी में ऐग्रिकल्चरल प्रडूस के लिए कॉंट्रैक्ट फ़ॉर्मिंग में फ़ॉर्मिंग में फ़ॉर्मिंग ही महत्वपूर्ण है, कॉंट्रैक्ट नहीं। वही मॉडल काम करेगा जिसमें कम्पनी २००-३०० किसानों के परिवार अडॉप्ट कर ले और उनके और उनके परिवार के लिए सबकुछ करे।
तमाम केस देखें हैं मैंने जिसमें किसान जी ने कॉंट्रैक्ट फ़ॉर्मिंग के तहत आलू की खेती की और तैयार होने पर एक रात आलू निकाल लिया और सुबह थाने में रपट लिखा दी।
राग दरबारी के थानेदार जी वैद्यजी की ठंडाई पीकर किसान जी के प्रोटेक्शन में उतर जाते हैं।
और जहाँ कॉंट्रैक्ट फ़ॉर्मिंग नहीं है वहाँ एक ही फसल के लिए किसान जी तीन लोगों से एडवांस लेकर चौथे को माल बेंच देते हैं।
मझोले और छोटे किसानों को मज़बूत बनाना और कोर्ट कचहरी को दुरुस्त करना ही लॉंग टर्म सलूशन है।
अनिल मुशर्रत का Indian popular culture यानि बॉलीवुड में वही स्थान है जो ग़ुलाम नबी फ़ाई का Indian Intellectual ‘sector’ में था।
हमने ग़ुलाम नबी फ़ाई और भारतीय बुद्धिजीवियों के मकड़जाल को टूटते हुए देखा। अब बारी है मुशर्रत और बॉलीवुड के बनाए मकड़जाल के टूटने की।
फ़ाई, कांग्रेस और ख़ुद तथाकथित बुद्धिजीवियों ने बुद्धिजीवी उद्योग के साथ-साथ हमारी परंपरागत मीडिया का सत्यानाश कर डाला। आज इनमें से कोई ऐसा नहीं जिसकी विश्वसनीयता रत्ती भर बची हो।
फाई ISI का ऑपरेटिव था। पॉप्युलर कल्चर के वाहकों पर अपनी पकड़ बनाने वाला ये मुशर्रत कौन है ये तो नहीं पता लेकिन मुझे लगता है कि निकट भविष्य में भारतीय राजनीतिक और सामाजिक पॉप्युलर बहसें अधिक भारतीय होने जा रही हैं। मुझे लगता है एक और मकड़जाल छिन्न-भिन्न होने जा रहा है।
ढेरों राजनीतिक विमर्शों की तरह ही यह भी समझ नहीं आता कि सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु की जाँच बिहार चुनावों में लाभ लेने के लिए की जा रही है।
कल से हमारे पश्चिम बंगाल में यह बहस शुरू की गई है।
यदि मुंबई पुलिस द्वारा मृत्यु की जाँच न करना या महाराष्ट्र सरकार द्वारा हर क़ीमत पर जाँच को रोकना राजनीति नहीं थी तो सीबीआई द्वारा जाँच किया जाना भी राजनीति नहीं है।
चुनाव में लाभ लेने के लिए जाँच की जा रही है, ऐसा तर्क है जैसे कोई कहे कि; मोदी सरकार पुरानी समस्याओं को केवल इसलिए हल कर रही है ताकि चुनावों में उसका लाभ लिया जा सके।