Politicians are bound to be vote oriented. It is the duty of the permanent executive (bureaucrats) to advise rightly to the government and do not compromise with the larger national interest. But these days bureaucrats have forgotten the foundational characteristic of bureaucracy
That is, work in anonymity. Neither Macaulay (father of modern education system), nor Sardar Patel wanted Civil services to be a celebrity job. Macaulay said that a civil servant should have "ordinary prudence".
Sardar Patel said that let the politicians be face of the government, civil servants should be at its core. But these days bureaucrats are busy in becoming "Singham" and "firebrand". They do live raids on YouTube, indulge in spat on Twitter and what not.
Those at at the verge of retirement are busy seeking post-retirement political refuge. Basically, be it old or young every bureaucrat wants to please their political leader and want to be a hero. For that they are ready to shun the very basics of the Civil services.
They are not afraid to show their ideological bias in public, but most of the times, are boasting it. They want to be called sensational, want to be on the TV, want to be part of the pandemonious News debates, give controversial statements to get into news headlines.
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शाहरुख़ खान बॉलीवुड एक्टर्स द्वारा चलाये जा रहे सोशल एक्टिविज्म के बारे में कहते हैं कि "हम लोग 'भांड' लोग हैं। हमें केवल भांडगिरी ही करनी चाहिए।"
भांड एक आम भाषा का शब्द है जिसके दो मतलब हैं। पहला मतलब है नाच गा कर लोगों का मनोरंजन करने वाला। इस में एक कला स्वांग या बहरूपिया भी होती है। बहरूपिये का काम होता है भिन्न भिन्न रूप धर के लोगों का मनोरंजन करना।
और एक बहरूपिये की कला-दक्षता का निर्णय इससे होता है कि वो जो भी रूप धरे उसमें पूरी तरह रम जाए। जो भी करे अपने स्वांग के हिसाब से ही करे। अब चाहे स्वांग रानी लक्ष्मीबाई का हो या चाहे किसी वेश्या का। भांड अपने स्वांग (अंग्रेजी में 'रोल') के साथ बेईमानी नहीं कर सकता।
एक बार जब हस्तिनापुर की राज्यसभा में युधिष्ठिर और दुर्योधन में से भावी युवराज के चयन का प्रश्न चल रहा था तब विदुर ने दोनों की न्यायिक क्षमता जांचने का सुझाव दिया। राज्यसभा में चार अपराधी बुलाये गए जिन पर कि हत्या का आरोप सिद्ध हो चुका था।
बारी थी सजा निर्धारित करने की। पहला नंबर दुर्योधन का आया। दुर्योधन ने तुरंत चारों को मृत्युदंड सुना दिया। फिर युधिष्ठिर का नंबर आया। युधिष्ठिर ने पहले चारों का वर्ण पूछा। फिर वर्ण के हिसाब से शूद्र को 4 साल, वैश्य को 8 साल, क्षत्रिय को 16 साल की सजा दी।
और ब्राह्मण को अपनी सजा स्वयं निर्धारित करने के लिए कहा। लोकतंत्र में इस कहानी का काफी महत्व है।
जब मैं UPSC की कोचिंग कर रहा था तो इंटरव्यू गाइडेंस के लिए UPSC के एक रिटायर्ड मेंबर लेक्चर के लिए आये थे।
ये कौनसा देश है जो आगे बढ़ रहा है? कहीं अपनावाला देश तो नहीं? पर हमको तो नहीं दिखाई देता। लेकिन नेता लोग तो कह रहे हैं कि आगे बढ़ रहा है। और लोकतन्त्र कहता है नेता बहुत समझदार होते हैं। फिर तो सही ही बोल रहे होंगे। मतलब देश तो आगे बढ़ रहा है।
बस हमको पता नहीं चल रहा।कहीं ऐसा तो नहीं तो देश चुपचाप आगे बढ़ रहा हो, किसी को बिना बताये। हो सकता हैकि जब रात को हम सो रहे हों तब देश चुपके से आगे बढ़ जाता हो और सुबह हम लोगों के मजे लेनेके लिए रुक जाता हो।नेताओं को पता लग ही जाता होगा। क्यूंकि वे तो बेचारे रात दिन काम करते हैं।
पब्लिक ही है जो आलसियों की तरह रात को सो जाती है। पब्लिक सोती है तभी तो देश आगे बढ़ता है। मतलब पब्लिक ही देश के आगे बढ़ने में बाधक है। या फिर ये भी हो सकता है कि देश हमको बिना साथ लिए ही आगे बढ़ रहा है। नेता भी आगे बढ़ रहे हैं, इसीलिए उनको पता है।
सारे मंत्री भ्रष्ट थे, और आपस में लड़ रहे थे। जनता लुट रही थी। भ्रष्टाचार के कारण राज्य के व्यापारी भी दुखी थे। राजकीय घाटे को पूरा करने के लिए राजा ने व्यापारियों पर दुगुने-चौगुने कर लगा रखे थे। ऊपर से मंत्री भी बेचारे व्यापारियों के पास रंगदारी वसूलने पहुँच जाते।
व्यापारी बेचारे क्या करते, वे अपना घाटा जनता से पूरा करते। जनता भी त्रस्त थी। व्यापारियों के ऊपर जनता का विश्वास टूटने लगा। यहां राजा और मंत्रियों की पैसे की भूख खत्म ही नहीं हो रही थी।
2011 में सुनील कुमार नाम के एक श्रीमान ने कौन बनेगा करोड़पति में 5 करोड़ जीत कर इतिहास रचा था। पहली बार कोई इतनी बड़ी रकम जीता था। करोड़पति बनकर सुनील जी बड़े खुश थे। वे लोकल सेलिब्रिटी बन चुके थे।
लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, धन के साथ अहंकार आ गया, और जैसे ही अहंकार आया, बुद्धि चली गयी। उन्हें अय्याशी की, घूमने फिरने की, नशे की आदत लग गयी। उनके चारों ओर चापलूसों का जमघट लग गया। चापलूसों की बातों में आकर उन्होंने अपने पैसे को उलटी सीढ़ी जगह निवेश कर दिया।
दानवीर होने का भी चस्का लग गया, क्यूंकि इससे तारीफें मिलती थी, मीडिया में नाम होता था। उनके पुराने साथियों ने, जो कि उनके बुरे दिनों में उनके साथ थे, जिन्होनें उनको KBC जीतने लायक बनाया था, जिनमें कि उनकी पत्नी भी शामिल थीं, उनको खूब समझाने की कोशिश की।
वैसे तो पिछले 30 साल में लगभग हर सरकार ने बैंकरों को कोल्हू के बैल की तरह जोता है। परन्तु इस सरकार ने तो बैंकरों को गरीब की जोरू ही बना के रख दिया है।
मतलब सड़क छाप गुंडे से लेकर ऐरे-गैर DM तक कोई भी बैंकरों की औकात नाप के चला जाता है। प्रधानसेवकजी के दौरे से लेकर पंचायत के चुनाव तक के लिए छुट्टी के दिन बैंक खुलवा दिए जा रहे हैं। टारगेट पूरे करने के चक्कर में संडे की छुट्टी ईद का चाँद हो गयी है।
ऐसा लगता है कि इस सरकार में बैठे लोगों की बैंकरों से कोई पुरानी खुन्नस थी जो कि अब धीरे धीरे निकल रही है। पहले जीरो बैलेंस वाले जन-धन खाते खुलवाए। लोगों को लगा कि शायद खाते में 15 लाख आने वाले हैं इसलिए बैंकों के बाहर भीड़ लगा के एक-एक आदमी ने छह-छह जीरो बैलेंस खाते खुलवा लिए।