शाहरुख़ खान बॉलीवुड एक्टर्स द्वारा चलाये जा रहे सोशल एक्टिविज्म के बारे में कहते हैं कि "हम लोग 'भांड' लोग हैं। हमें केवल भांडगिरी ही करनी चाहिए।"
भांड एक आम भाषा का शब्द है जिसके दो मतलब हैं। पहला मतलब है नाच गा कर लोगों का मनोरंजन करने वाला। इस में एक कला स्वांग या बहरूपिया भी होती है। बहरूपिये का काम होता है भिन्न भिन्न रूप धर के लोगों का मनोरंजन करना।
और एक बहरूपिये की कला-दक्षता का निर्णय इससे होता है कि वो जो भी रूप धरे उसमें पूरी तरह रम जाए। जो भी करे अपने स्वांग के हिसाब से ही करे। अब चाहे स्वांग रानी लक्ष्मीबाई का हो या चाहे किसी वेश्या का। भांड अपने स्वांग (अंग्रेजी में 'रोल') के साथ बेईमानी नहीं कर सकता।
इस हिसाब से एक भांड के विचार, राय, वक्तव्य, व्यवहार, हाव-भाव रोल के हिसाब से समय समय पर बदलते रहने चाहिए और बदलते भी हैं। "धरम" फिल्म में शुद्ध ब्राह्मण का किरदार निभाने वाले पंकज कपूर 'मक़बूल' फिल्म में कट्टर मुस्लिम नेता बन जाते हैं।
'रब ने बना दी जोड़ी' में पिता की पसंद के युवक से शादी कर लेने वाली अनुष्का शर्मा 'मटरू की बिजली' में अलग रूप में नजर आती हैं। एक ही मनोज वाजपेयी 'तेवर' फिल्म में ब्राह्मण 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' में कट्टर मुस्लिम, 'सत्या' में गैंगस्टर और 'शूल' में ईमानदार पुलिस अफसर बन जाते हैं।
भांड का दूसरा मतलब है बर्तन। बर्तन में एक गुण ये भी होता है कि वो बजता बहुत है। ये गुण बॉलीवुड के भांडों में भी पाया जाता है। ये लोग भी बहुत बजते हैं। इनको हर मुद्दे पे जनता को ज्ञान देना है। दिया मिर्जा पर्यावरण पर, प्रियंका चोपड़ा मानवाधिकारों पर, दीपिका पादुकोण डिप्रेशन पर,
आमिर खान असहिष्णुता पर, फरहान अख्तर नागरिकता कानून पर, सलमान खान मानवता पर, नसीरुद्दीन शाह माइनॉरिटी राइट्स पर, कंगना रनौत और अक्षय कुमार देशभक्ति पर, संजय दत्त नशा मुक्ति पर, वरुण धवन नेपोटिस्म पर, अनन्या पाण्डे स्ट्रगल पर,
सोनम कपूर और स्वरा भास्कर हर चीज पर, जिसको देखो वही बज रहा है। और खूब बज रहा है। लेकिन भांड अंदर से खाली भी होता है। भरा भांड नहीं बजता। खाली भांड खूब जोर से बजता है। जब फरहान साहब से पूछा गया कि नागरिकता कानून में क्या गलत है
और वे उसका विरोध क्यों कर रहे हैं तो साहब खींसें निपोरते हुए बोले कि इतने लोग विरोध कर रहे हैं तो कुछ तो गलत होगा ही। स्वरा मैडम से जब बीच इंटरव्यू में लियाकत जी ने NRC-CAA के बारे में पूछा तो नागरिकता कानून पर PhD कर लेने का दावा करने वाली मैडम सकपका गयीं।
ये समस्या इसलिए पैदा हुई क्यूंकि लोग भांडों को जरूरत से ज्यादा महत्व देने लगे हैं। भांडों से कर्कश आवाज की बजाय संगीत की उम्मीद करने लगे हैं। और तो और इन भांडों की देखा देख संगीत वाद्य भी इनकी नक़ल करने लगे हैं।
जिन पत्रकारों को जमीनी मुद्दों पर चर्चा करनी चाहिए वे भांडों की तरह बज रहे हैं। जिन सरकारी अधिकारियों को देश चलाना चाहिए वो भी सोशल मीडिया पर बज रहे हैं। लोग इन भांडों की सच्चाई भूल गए हैं। भांडों का काम होता है लोगों का ध्यान अपनी और खींचना। इससे ही उनकी रोजी रोटी चलती है।
कोरोना में जब इनके पास कोई काम नहीं था तब कुछ न कुछ उल्टा सीधा बोल कर ये लोग सुर्ख़ियों में बने रहने की कोशिश कर रहे थे। आजकल किसानो का मुद्दा चल रहा है। और कुछ दिनों पहले उस मुद्दे को लेकर दो भांड आपस में बज उठे।
लोग भी असली मुद्दे छोड़ कर उन भांडों की आवाज सुनने पहुँच गए। अब किसानों की मांगों का फैसला इस बात से हो रहा है किस भांड के फैंस ज्यादा हैं। विशेषज्ञ अभी भी ये निर्णय कर रहे हैं कि किसानों की कितनी मांगें वास्तविक हैं और कितनी राजनीतिक।
और जनता अपने पसंदीदा भांड की राजनीतिक विचारधारा के अनुसार अपना निर्णय सुना भी चुके हैं और आने अपने हिसाब से किसान आंदोलन को क्रांतिकारी या फ़र्ज़ी साबित कर चुके हैं। लेकिन जब ये ही भांड अपने अगले स्वांग के लिए कोई अन्य रूप धरेंगे तब इनके फैंस का क्या होगा?
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Politicians are bound to be vote oriented. It is the duty of the permanent executive (bureaucrats) to advise rightly to the government and do not compromise with the larger national interest. But these days bureaucrats have forgotten the foundational characteristic of bureaucracy
That is, work in anonymity. Neither Macaulay (father of modern education system), nor Sardar Patel wanted Civil services to be a celebrity job. Macaulay said that a civil servant should have "ordinary prudence".
Sardar Patel said that let the politicians be face of the government, civil servants should be at its core. But these days bureaucrats are busy in becoming "Singham" and "firebrand". They do live raids on YouTube, indulge in spat on Twitter and what not.
एक बार जब हस्तिनापुर की राज्यसभा में युधिष्ठिर और दुर्योधन में से भावी युवराज के चयन का प्रश्न चल रहा था तब विदुर ने दोनों की न्यायिक क्षमता जांचने का सुझाव दिया। राज्यसभा में चार अपराधी बुलाये गए जिन पर कि हत्या का आरोप सिद्ध हो चुका था।
बारी थी सजा निर्धारित करने की। पहला नंबर दुर्योधन का आया। दुर्योधन ने तुरंत चारों को मृत्युदंड सुना दिया। फिर युधिष्ठिर का नंबर आया। युधिष्ठिर ने पहले चारों का वर्ण पूछा। फिर वर्ण के हिसाब से शूद्र को 4 साल, वैश्य को 8 साल, क्षत्रिय को 16 साल की सजा दी।
और ब्राह्मण को अपनी सजा स्वयं निर्धारित करने के लिए कहा। लोकतंत्र में इस कहानी का काफी महत्व है।
जब मैं UPSC की कोचिंग कर रहा था तो इंटरव्यू गाइडेंस के लिए UPSC के एक रिटायर्ड मेंबर लेक्चर के लिए आये थे।
ये कौनसा देश है जो आगे बढ़ रहा है? कहीं अपनावाला देश तो नहीं? पर हमको तो नहीं दिखाई देता। लेकिन नेता लोग तो कह रहे हैं कि आगे बढ़ रहा है। और लोकतन्त्र कहता है नेता बहुत समझदार होते हैं। फिर तो सही ही बोल रहे होंगे। मतलब देश तो आगे बढ़ रहा है।
बस हमको पता नहीं चल रहा।कहीं ऐसा तो नहीं तो देश चुपचाप आगे बढ़ रहा हो, किसी को बिना बताये। हो सकता हैकि जब रात को हम सो रहे हों तब देश चुपके से आगे बढ़ जाता हो और सुबह हम लोगों के मजे लेनेके लिए रुक जाता हो।नेताओं को पता लग ही जाता होगा। क्यूंकि वे तो बेचारे रात दिन काम करते हैं।
पब्लिक ही है जो आलसियों की तरह रात को सो जाती है। पब्लिक सोती है तभी तो देश आगे बढ़ता है। मतलब पब्लिक ही देश के आगे बढ़ने में बाधक है। या फिर ये भी हो सकता है कि देश हमको बिना साथ लिए ही आगे बढ़ रहा है। नेता भी आगे बढ़ रहे हैं, इसीलिए उनको पता है।
सारे मंत्री भ्रष्ट थे, और आपस में लड़ रहे थे। जनता लुट रही थी। भ्रष्टाचार के कारण राज्य के व्यापारी भी दुखी थे। राजकीय घाटे को पूरा करने के लिए राजा ने व्यापारियों पर दुगुने-चौगुने कर लगा रखे थे। ऊपर से मंत्री भी बेचारे व्यापारियों के पास रंगदारी वसूलने पहुँच जाते।
व्यापारी बेचारे क्या करते, वे अपना घाटा जनता से पूरा करते। जनता भी त्रस्त थी। व्यापारियों के ऊपर जनता का विश्वास टूटने लगा। यहां राजा और मंत्रियों की पैसे की भूख खत्म ही नहीं हो रही थी।
2011 में सुनील कुमार नाम के एक श्रीमान ने कौन बनेगा करोड़पति में 5 करोड़ जीत कर इतिहास रचा था। पहली बार कोई इतनी बड़ी रकम जीता था। करोड़पति बनकर सुनील जी बड़े खुश थे। वे लोकल सेलिब्रिटी बन चुके थे।
लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, धन के साथ अहंकार आ गया, और जैसे ही अहंकार आया, बुद्धि चली गयी। उन्हें अय्याशी की, घूमने फिरने की, नशे की आदत लग गयी। उनके चारों ओर चापलूसों का जमघट लग गया। चापलूसों की बातों में आकर उन्होंने अपने पैसे को उलटी सीढ़ी जगह निवेश कर दिया।
दानवीर होने का भी चस्का लग गया, क्यूंकि इससे तारीफें मिलती थी, मीडिया में नाम होता था। उनके पुराने साथियों ने, जो कि उनके बुरे दिनों में उनके साथ थे, जिन्होनें उनको KBC जीतने लायक बनाया था, जिनमें कि उनकी पत्नी भी शामिल थीं, उनको खूब समझाने की कोशिश की।
वैसे तो पिछले 30 साल में लगभग हर सरकार ने बैंकरों को कोल्हू के बैल की तरह जोता है। परन्तु इस सरकार ने तो बैंकरों को गरीब की जोरू ही बना के रख दिया है।
मतलब सड़क छाप गुंडे से लेकर ऐरे-गैर DM तक कोई भी बैंकरों की औकात नाप के चला जाता है। प्रधानसेवकजी के दौरे से लेकर पंचायत के चुनाव तक के लिए छुट्टी के दिन बैंक खुलवा दिए जा रहे हैं। टारगेट पूरे करने के चक्कर में संडे की छुट्टी ईद का चाँद हो गयी है।
ऐसा लगता है कि इस सरकार में बैठे लोगों की बैंकरों से कोई पुरानी खुन्नस थी जो कि अब धीरे धीरे निकल रही है। पहले जीरो बैलेंस वाले जन-धन खाते खुलवाए। लोगों को लगा कि शायद खाते में 15 लाख आने वाले हैं इसलिए बैंकों के बाहर भीड़ लगा के एक-एक आदमी ने छह-छह जीरो बैलेंस खाते खुलवा लिए।