सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः॥
!१/१!

सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णको हम नमस्कार करते हैं, जो जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और विनाशके हेतु तथा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक~ तीनों प्रकारके तापोंका नाश करनेवाले हैं॥१!!#जयश्रीकृष्ण Image
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु-
स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि॥
!१/२!

जिस समय शुकदेवजीका बिना यज्ञोपवीत-संस्कार हुए संन्यासके लिए जाते देखकर पिता व्यासजी पुकारने लगे~बेटा!कहां जारहे हो?उस समय वृक्षोंने उत्तर दिया था॥२!!🙏 ImageImage
नैमिषे सूतमासीनमभिवाद्य महामतिम्।
कथामृतरसास्वादकुशलः शौनकोऽब्रवीत्॥
!१/३!

एक बार भगवत्कथामृतका रसास्वादन करनेमें कुशल मुनिवर शौनकजीने नैमिषारण्य क्षेत्रमें विराजमान महामति सूतजीको नमस्कार करके उनसे पूछा॥३!!

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!शौनक उवाच!

अज्ञानध्वान्तविध्वंसकोटिसूर्यसमप्रभ।
सूताख्याहि कथासारं मम कर्णरसायनम्॥
!१/४!

शौनकजी बोले-- सूतजी! आपका ज्ञान अज्ञानान्धकारको नष्ट करनेके लिये करोड़ों सूर्योंके समान है। आप हमारे कानोंके लिये रसायन--अमृतस्वरूप सारगर्भित कथा कहिये॥४!!

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भक्तिज्ञानविरागाप्तो विवेको वर्धते महान्।
मायामोहनिरासश्च वैष्णवैः क्रियते कथम्॥
!१/५!

भक्ति, ज्ञान और वैराग्यसे प्राप्त होनेवाले महान् विवेककी वृद्धि किस प्रकार होती है तथा वैष्णवलोग किस तरह इस माया-मोहसे अपना पीछा छुड़ाते हैं?॥५!!

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इह घोरे कलौ प्रायो जीवश्चासुरतां गतः।
क्लेशाक्रान्तस्य तस्यैव शोधेने किं परायणम्॥
!१/६!

इस घोर कलिकालमें जीव प्रायः आसुरी स्वभावके हो गये हैं, विविध क्लेशोंसे आक्रांत इन जीवोंको शुद्ध (दैवीशक्ति-सम्पन्न) बनानेका सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है?॥६!!

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श्रेयसां यद्भवेच्छ्रेयः पावनानां च पावनम्।
कृष्णप्राप्तिकरं शश्वत्साधनं तद्वदाधुना॥
!१/७!

सूतजी! आप हमें कोई ऐसा शाश्वत साधन बताइये, जो सबसे अधिक कल्याणकारी तथा पवित्र करनेवालोंमें भी पवित्र हो तथा जो भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करा दे॥७!!

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चिन्तामणिर्लोकसुखं सुरद्रुः स्वर्गसम्पदम्।
प्रयच्छति गुरः प्रीतो वैकुण्ठं योगिदुर्लभम्॥
!१/८!

चिंतामणि केवल लौकिक सुख दे सकती है और कल्पवृक्ष अधिक-से-अधिक स्वर्गीय स्म्पत्ति दे सकता है; परन्तु गुरूदेव प्रसन्न होकर भगवान् का योगिदुर्लभ नित्य वैकुण्ठ धाम दे देते हैं॥८!!#जयश्रीराधे Image
!सूत उवाच!

प्रीति: शौनक चित्ते ते ह्यतो वच्मि विचार्य च।
सर्वसिद्धान्तनिष्पन्नं संसारभयनाशनम्॥
!१/९!

सूतजीने कहा~ शौनकजी! तुम्हारे हृदयमें भगवान् का प्रेम है; इसलिये मैं विचारकर तुम्हें सम्पूर्ण सिद्धान्तोंका निष्कर्ष सुनाता हूं, जो जन्म-मृत्युके भयका नाश कर देता है॥९!#श्रीराधे Image
भक्त्योघवर्धनं यच्च कृष्णसंतोषहेतुकम्।
तदहं तेऽभिधास्यामि सावधानतया श्रृणु॥
!१/१०!

जो भक्तिके प्रवाहको बढ़ाता है और भगवान् श्रीकृष्णकी प्रसन्नताका प्रधान कारण है, मैं तुम्हें वह साधन बतलाता हूं; उसे सावधान होकर सुनो॥१०!!

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कालव्यालमुखग्रासत्रासनिर्णाशहेतवे।
श्रीमद्भागवतं शास्त्रं कलौ कीरेण भाषितम्॥
!१/११!

श्रीशुकदेवजीने कलियुगमें जीवोंके कालरूपी सर्पके मुखका ग्रास होनेके त्रासका आत्यन्तिक नाश करनेके लिए श्रीमद्भागवतशास्त्रका प्रवचन किया है॥११!!

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एतस्मादपरं किञ्चिन्मनःशुद्ध्यै न विद्यते।
जन्मान्तरे भवेत्पुण्यं तदा भागवतं लभेत्॥
!१/१२!

मनकी शुद्धिके लिये इससे बढ़कर कोई साधन नहीं है। जब मनुष्यके जन्म-जन्मान्तरका पुण्य उदय होता है , तभी उसे इस भागवतशास्त्रकी प्राप्ति होती है॥१२!!

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परीक्षिते कथां वक्तुं सभायां संस्थिते शुके।
सुधाकुम्भं गृहीत्वैव देवास्तत्र समागमन्॥
!१/१३!

जब शुकदेवजी राजा परीक्षित् को यह कथा सुनानेके लिये सभामें विराजमान हुए, तब देवतालोग उनके पास अमृतका कलश लेकर आये॥१३!!

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शुकं नत्वावदन् सर्वे स्वकार्यकुशलाः सुराः।
कथासुधां प्रयच्छस्व गृहीत्वैव सुधामिमाम्॥
!१/१४!

देवता अपना काम बनानेमें बड़े कुशल होते हैं; अतः यहाँ भी सबने शुकदेवमुनिको नमस्कार करके कहा; 'आप यह अमृत लेकर बदलेमें हमें कथामृतका दान दीजिये॥१४!!

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एवं विनिमये जाते सुधा राज्ञा प्रपीयताम्।
प्रपास्यामो वयं सर्वे श्रीमद्भागवतामृतम्॥
!१/१५!

इस प्रकार परस्पर विनिमय (अदला-बदली) हो जानेपर राजा परीक्षित् अमृतका पान करें और हम सब श्रीमद्भागवतरूप अमृतका पान करेंगे'॥१५!!

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क्व सुधा क्व कथा लोके क्व काचः क्व मणिर्महान्।
ब्रह्मरातो विचार्यैवं तदा देवाञ्जहास ह॥
!१/१६!

इस संसारमें कहाँ काँच और कहाँ महामूल्य मणि तथा कहाँ सुधा और कहाँ कथा ? श्रीशुकदेवजीने (यह सोचकर) उस समय देवताओंकी हँसी उड़ा दी॥१६!!

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अभक्तांस्तांश्च विज्ञाय न ददौ स कथामृतम्।
श्रीमद्भागवती वार्ता सुराणामपि दुर्लभा॥
!१/१७!

उन्हें भक्तिशून्य (कथाका अनधिकारी) जानकर कथामृतका दान नहीं किया। इस प्रकार यह श्रीमद्भागवतकी कथा देवताओंको भी दुर्लभ है॥१७!!

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राज्ञो मोक्षं तथा वीक्ष्य पुरा धातापि विस्मितः।
सत्यलोके तुलां बद्ध्वातोलयत्साधनान्यजः॥
!१/१८!

पूर्वकालमें श्रीमद्भागवतके श्रवणसे ही राजा परीक्षित्-की मुक्ति देखकर ब्रह्माजीको भी बड़ा आश्चर्य हुआ था। उन्होंने सत्यलोकमें तराजू बाँधकर सब साधनोंको तौला॥१८!!

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लघून्यन्यानि जातानि गौरवेण इदं महत्।
तदा ऋषिगणाः सर्वे विस्मयं परमं ययुः॥
!१/१९!

अन्य सभी साधन तौलमें हलके पड़ गये, अपने महत्त्वके कारण भागवत ही सबसे भारी रहा। यह देखकर सभी ऋषियोंको बड़ा विस्मय हुआ॥१९!!

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मेनिरे भगवद्रूपं शास्त्रं भागवतं कलौ।
पठनाच्छ्रवणात्सद्यो वैकुण्ठफलदायकम्॥
!१/२०!

उन्होंने कलियुगमें इस भगवद्रूप भागवतशास्त्रको ही पढ़ने-सुननेसे तत्काल मोक्ष देनेवाला निश्चय किया॥२०!!

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सप्ताहेन श्रुतं चैतत्सर्वथा मुक्तिदायकम्।
सनकाद्यैः पुरा प्रोक्तं नारदाय दयापरैः॥
!१/२१!

सप्ताह-विधिसे श्रवण करनेपर यह निश्चय भक्ति प्रदान करता है। पूर्वकालमें इसे दयापरायण सनकादिने देवर्षि नारदको सुनाया था॥२१!!

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यद्यपि ब्रह्मसम्बन्धाच्छ्रुतमेतत्सुरर्षिणा।
सप्ताहश्रवणविधिः कुमारैस्तस्य भाषितः॥
!१/२२!

यद्यपि देवर्षिने पहले ब्रह्माजीके मुखसे इसे श्रवण कर लिया था, तथापि सप्ताहश्रवणकी विधि तो उन्हें सनकादिने ही बतायी थी॥२२!!

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!शौनक उवाच!

लोकविग्रहमुक्तस्य नारदस्यास्थिरस्य च।
विधिश्रवे कुतः प्रीतिः संयोगः कुत्र तैः सह॥
!१/२३!

शौनकजीने पूछा~सांसारिक प्रपञ्चसे मुक्त एवं विचरणशील नारदजीका सनकादिके साथ संयोग कहाँ हुआ और विधि-विधानके श्रवणमें उनकी प्रीति कैसे हुई?॥२३!#Shri_Bhagavat_Bhagwat_Seva_Sansthanam Image
!सूत उवाच!

अत्र ते कीर्तयिष्यामि भक्तियुक्तं कथानकम्।
शुकेन मम यत्प्रोक्तं रहः शिष्यं विचार्य च॥
!१/२४!

सूतजीने कहा~ अब मैं तुम्हें वह भक्तिपूर्ण कथानक सुनाता हूँ, जो श्रीशुकदेवजीने मुझे अपना अनन्य शिष्य जानकर एकान्तमें सुनाया था॥२४!!

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एकदा हि विशालायां चत्वार ऋषयोऽमलाः।
सत्सङ्गार्थं समायाता ददृशुस्तत्र नारदम्॥
!१/२५!

एक दिन विशालापुरीमें वे चारों निर्मल ऋषि सत्सङ्गके लिये आये। वहाँ उन्होंने नारदजीको देखा॥२५!!

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!कुमारा ऊचुः!

कथं ब्रह्मन्दीनमुखः कुतश्चिन्तातुरो भवान्।
त्वरितं गम्यते कुत्र कुतश्चागमनं तव॥
!१/२६!

सनकादिने पूछा~ ब्रह्मन्! आपका मुख उदास क्यों हो रहा है? आप चिन्तातुर कैसे हैं? इतनी जल्दी-जल्दी आप कहाँ जा रहे हैं? और आपका आगमन कहाँसे हो रहा है?॥२६!!
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इदानीं शून्यचित्तोऽसि गतवित्तो यथा जनः।
तवेदं मुक्तसङ्गस्य नोचितं वद कारणम्॥
!१/२७!

इस समय तो आप उस पुरुषके समान व्याकुल जान पड़ते हैं जिसका सारा धन लुट गया हो; आप-जैसे आसक्तिरहित पुरुषोंके लिये यह उचित नहीं है। इसका कारण बताइये॥२७!!

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!नारद उवाच!

अहं तु पृथिवीं यातो ज्ञात्वा सर्वोत्तमामिति।
पुष्करं च प्रयागं च काशीं गोदावरीं तथा॥
!१/२८!

नारदजीने कहा-- मैं सर्वोत्तम लोक समझकर पृथ्वीमें आया था। यहाँ पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी (नासिक)...॥२८!!

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हरिक्षेत्रं कुरुक्षेत्रं श्रीरङ्गं सेतुबन्धनम्।
एवमादिषु तीर्थेषु भ्रममाण इतस्ततः॥
!१/२९!

हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरङ्ग और सेतुबन्ध आदि कई तीर्थोमें मैं इधर-उधर विचरता रहा;...॥२९!!

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नापश्यं कुत्रचिच्छर्म मनःसंतोषकारकम्।
कलिनाधर्ममित्रेण धरेयं बाधिताधुना॥
!१/३०!

...किन्तु मुझे कहीं भी मनको संतोष देनेवाली शान्ति नहीं मिली। इस समय अधर्मके सहायक कलियुगने सारी पृथ्वीको पीड़ित कर रखा है॥३०!!

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सत्यं नास्ति तपः शौचं दया दानं न विद्यते।
उदरम्भरिणो जीवा वराकाः कूटभाषिणः॥
!१/३१!

अब यहाँ सत्य,तप,शौच(बाहर-भीतरकी पवित्रता),दया,दान आदि कुछ भी नहीं है। बेचारे जीव केवल अपना पेट पालनेमें लगे हुए हैं;...॥३१!!

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मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुताः।
पाखण्डनिरताः सन्तो विरक्ताः सपरिग्रहाः॥
!१/३२!

वे असत्यभाषी,आलसी,मन्दबुद्धि,भाग्यहीन,उपद्रवग्रस्त हो गये हैं।जो साधु-संत कहे जाते हैं,वे पूरे पाखण्डी हो गये हैं; देखनेमें तो वे विरक्त हैं,किन्तु स्त्री-धन आदि सभीका परिग्रह करते हैं॥३२!! Image
तरुणीप्रभुता गेहे श्यालको बुद्धिदायकः।
कन्याविक्रयिणो लोभाद्दम्पतीनां च कल्कनम्॥
!१/३३!

घरोंमें स्त्रियोंका राज्य है, साले सलाहकार बने हुए हैं, लोभसे लोग कन्याविक्रय करते हैं और स्त्री-पुरुषोंमें कलह मचा रहता है॥३३!!

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आश्रमा यवनै रुद्धास्तीर्थानि सरितस्तथा।
देवतायतनान्यत्र दुष्टैर्नष्टानि भूरिशः॥
!१/३४!

महात्माओंके आश्रम, तीर्थ और नदियोंपर यवनों- (विधर्मियों-) का अधिकार हो गया है; उन दुष्टोंने बहुत-से देवालय भी नष्ट कर दिये हैं॥३४!!

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न योगी नैव सिद्धो वा न ज्ञानी सत्क्रियो नरः।
कलिदावानलेनाद्य साधनं भस्मतां गतम्॥
!१/३५!

इस समय यहाँ न कोई योगी है न सिद्ध है; न ज्ञानी है और न सत्कर्म करनेवाला ही है। सारे साधन इस समय कलिरूप दावानलसे जलकर भस्म हो गये हैं॥३५!!

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अट्टशूला जनपदाः शिवशूला द्विजातयः।
कामिन्यः केशशूलिन्यः सम्भवन्ति कलाविह॥
!१/३६!

इस कलियुगमें सभी देशवासी बाजारोंमें अन्न बेचने लगे हैं, ब्राह्मणलोग पैसा लेकर वेद पढ़ाते हैं और स्त्रियाँ वेश्या-वृत्तिसे निर्वाह करने लगी हैं॥३६!!

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एवं पश्यन् कलेर्दोषान् पर्यटन्नवनीमहम्।
यामुनं तटमापन्नो यत्र लीला हरेरभूत्॥
!१/३७!

इस तरह कलियुगके दोष देखता और पृथ्वीपर विचरता हुआ मैं यमुनाजीके तटपर पहुंचा, जहाँ भगवान् श्रीकृष्णकी अनेकों लीलाएँ हो चुकी हैं॥३७!!

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तत्राश्चर्यं मया दृष्टं श्रूयतां तन्मुनीश्वराः।
एका तु तरुणी तत्र निषण्णा खिन्नमानसा॥
!१/३८!

मुनिवरो ! सुनिये, वहाँ मैंने एक बड़ा आश्चर्य देखा। वहाँ एक युवती स्त्री खिन्न मनसे बैठी थी॥३८!!

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वृद्धौ द्वौ पतितौ पार्श्वे निःश्वसन्तावचेतनौ।
शुश्रूषन्ती प्रबोधन्ती रुदती च तयोः पुरः॥
!१/३९!

उसके पास दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्थामें पड़े जोर-जोरसे साँस ले रहे थे। वह तरुणी उनकी सेवा करती हुई कभी उन्हें चेत करानेका प्रयत्न करती और कभी उनके आगे रोने लगती थी॥३९!!

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दशदिक्षु निरीक्षन्ती रक्षितारं निजं वपुः।
वीज्यमाना शतस्त्रीभिर्बोध्यमाना मुहुर्मुहुः॥
!१/४०!

वह अपने शरीरके रक्षक परमात्माको दशों दिशाओंमें देख रही थी। उसके चारों ओर सैकड़ों स्त्रियाँ उसे पंखा झल रही थीं और बार-बार समझाती जाती थीं॥४०!!

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दृष्ट्वा दूराद्गतः सोऽहं कौतुकेन तदन्तिकम्।
मां दृष्ट्वा चोत्थिता बाला विह्वला चाब्रवीद्वचः॥
!१/४१!

दूरसे यह सब चरित देखकर मैं कुतूहलवश उसके पास चला गया। मुझे देखकर वह युवती खड़ी हो गयी और बड़ी व्याकुल होकर कहने लगी॥४१!!

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!बालोवाच!

भो भोः साधो क्षणं तिष्ठ मच्चिन्तामपि नाशय।
दर्शनं तव लोकस्य सर्वथाघहरं परम्॥
!१/४२!

युवतीने कहा -- अजी महात्माजी ! क्षणभर ठहर जाइये और मेरी चिन्ताको भी नष्ट कर दीजिये। आपका दर्शन तो संसारके सभी पापोंको सर्वथा नष्ट कर देनेवाला है॥४२!!

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बहुधा तव वाक्येन दुःखशान्तिर्भविष्यति।
यदा भाग्यं भवेद्भूरि भवतो दर्शनं तदा॥
!१/४३!

आपके बचनोंसे मेरे दुःखकी भी बहुत कुछ शान्ति हो जायगी। मनुष्यका जब बड़ा भाग्य होता है, तभी आपके दर्शन हुआ करते हैं॥४३!!

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!नारद उवाच!

कासि त्वं काविमौ चेमा नार्यः काः पद्मलोचनाः।
वद देवि सविस्तारं स्वस्य दुःखस्य कारणम्॥
!१/४४!

नारदजी कहते हैं~तबमैंने उसस्त्रीसे पूछा~देवि!तुम कौनहो?येदोनों पुरुष तुम्हारे क्या होतेहैं?& तुम्हारे पासये कमलनयनी देवियाँ कौनहैं?तुमहमें विस्तारसे अपने दुःखका कारण बताओ॥४४ Image
!बालोवाच!

अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ।
ज्ञानवैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ॥
!१/४५!

युवतीने कहा ~मेरा नाम भक्ति है, ये ज्ञान और वैराग्य नामक मेरे पुत्र हैं। समयके फेरसे ही ये ऐसे जर्जर हो गये हैं॥४५!

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गङ्गाद्याः सरितश्चेमा मत्सेवार्थं समागताः।
तथापि न च मे श्रेयः सेवितायाः सुरैरपि॥
!१/४६!

ये देवियाँ गङ्गाजी आदि नदियाँ हैं। ये सब मेरी सेवा करनेके लिये ही आयी हैं। इस प्रकार साक्षात् देवियोंके द्वारा सेवित होनेपर भी मुझे सुख-शान्ति नहीं है॥४६!!

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इदानीं शृणु मद्वार्तां सचित्तस्त्वं तपोधन।
वार्ता मे वितताप्यस्ति तां श्रुत्वा सुखमावह॥
!१/४७!

तपोधन ! अब ध्यान देकर मेरा वृत्तान्त सुनिये। मेरी कथा वैसे तो प्रसिद्ध है, फिर भी उसे सुनकर आप मुझे शान्ति प्रदान करें॥४७!!
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उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता।
क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता॥
!१/४८!

मैं द्रविड़ देशमें उत्पन्न हुई, कर्णाटकमें बढ़ी, कहीं-कहीं महाराष्ट्रमें सम्मानित हुई; किन्तु गुजरातमें मुझको बुढ़ापेने आ घेरा॥४८!!

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तत्र घोरकलेोगात्पाखण्डैः खण्डिताङ्गका।
दुर्बलाहं चिरं याता पुत्राभ्यां सह मन्दताम्॥
!१/४९!

वहाँ घोर कलियुगके प्रभावसे पाखण्डियोंने मुझे अङ्ग-भङ्ग कर दिया। चिरकालतक यह अवस्था रहनेके कारण मैं अपने पुत्रोंके साथ दुर्बल और निस्तेज हो गयी॥४९!!

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वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी।
जाताहं युवती सम्यक्प्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम्॥
!१/५०!

अब जबसे मैं वृन्दावन आयी, तबसे पुनः परम सुन्दरी रूपा सुरूपवती नवयुवती हो गयी हूँ॥५०!!

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इमौ तु शयितावत्र सुतौ मे क्लिश्यतः श्रमात्।
इदं स्थानं परित्यज्य विदेशं गम्यते मया॥
!१/५१!

किन्तु सामने पड़े हुए ये दोनों मेरे पुत्र थके-माँदे दुःखी हो रहे हैं। अब मैं यह स्थान छोड़कर अन्यत्र जाना चाहती हूँ॥५१!!

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जरठत्वं समायातौ तेन दुःखेन दुःखिता।
साहं तु तरुणी कस्मात्सुतौ वृद्धाविमौ कुतः॥
!१/५२!

ये दोनों बूढ़े हो गये हैं - इसी दुःखसे मैं दुःखी हूँ। मैं तरुणी क्यों और ये दोनों मेरे पुत्र बूढ़े क्यों?॥५२!!

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त्रयाणां सहचारित्वाद्वैपरीत्यं कुतः स्थितम्।
घटते जरठा माता तरुणौ तनयाविति॥
!१/५३!

हम तीनों साथ - साथ रहनेवाले हैं। फिर यह विपरीतता क्यों? होना तो यह चाहिये कि माता बूढ़ी हो और पुत्र तरुण॥५३!!

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अतः शोचामि चात्मानं विस्मयाविष्टमानसा।
वद योगनिधे धीमन् कारणं चात्र किं भवेत्॥
!१/५४!

इसीसे मैं आश्चर्यचकित चित्तसे अपनी इस अवस्थापर शोक करती रहती हूँ। आप परम बुद्धिमान् एवं योगनिधि हैं; इसका क्या कारण हो सकता है, बताइये ?॥५४!!

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!नारद उवाच!

ज्ञानेनात्मनि पश्यामि सर्वमेतत्तवानघे।
न विषादस्त्वया कार्यो हरिः शं ते करिष्यति॥
!१/५५!

नारदजीने कहा~साध्वि! मैं अपने हृदयमें ज्ञानदृष्टि से तुम्हारे सम्पूर्ण दुःखका कारण देखता हूँ, तुम्हें विषाद नहीं करना चाहिये। श्रीहरि तुम्हारा कल्याण करेंगे॥५५!!
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!सूत उवाच!

क्षणमात्रेण तज्ज्ञात्वा वाक्यमूचे मुनीश्वरः॥
!१/५६!

सूतजी कहते हैं -- मुनिवर नारदजीने एक क्षणमें ही उसका कारण जानकर कहा॥५६!!

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!नारद उवाच!

शृणुष्वावहिता बाले युगोऽयं दारुणः कलिः।
तेन लुप्तः सदाचारो योगमार्गस्तपांसि च॥
!१/५७!

नारदजीने कहा - देवि ! सावधान होकर सुनो। यह दारुण कलियुग है। इसीसे इस समय सदाचार, योगमार्ग और तप आदि सभी लुप्त हो गये हैं॥५७!!

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जना अघासुरायन्ते शाठ्यदुष्कर्मकारिणः।
इह सन्तो विषीदन्ति प्रहष्यन्ति ह्यसाधवः।
धत्ते धैर्यं तु यो धीमान् स धीरः पण्डितोऽथवा॥
!१/५८!

लोगशठता&दुष्कर्ममेंलगकरअघासुरबनरहेहैं।जहाँदेखोवहींसत्पुरुषदुःखसेम्लानहैं&दुष्टसुखीहोरहाहै।जिसबुद्धिमानपुरुषकाधैर्यबनारहे,वहीबड़ाज्ञानीयापण्डितहै॥५८ Image
अस्पृश्यानवलोक्येयं शेषभारकरी धरा।
वर्षे वर्षे क्रमाज्जाता मङ्गलं नापि दृश्यते॥
!१/५९!

पृथ्वी क्रमशः प्रतिवर्ष शेषजीके लिये भाररूप होती जा रही है। अब यह छूनेयोग्य तो क्या, देखनेयोग्य भी नहीं रह गयी है और न इसमें कहीं मङ्गल ही दिखायी देता है॥५९!!

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न त्वामपि सुतैः साकं कोऽपि पश्यति साम्प्रतम्।
उपेक्षितानुरागान्धैर्जर्जरत्वेन संस्थिता॥
!१/६०!

अब किसीको पुत्रोंके साथ तुम्हारा दर्शन भी नहीं होता। विषयानुरागके कारण अंधे बने हुए जीवोंसे उपेक्षित होकर तुम जर्जर हो रही थी॥६०!!

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वृन्दावनस्य संयोगात्पुनस्त्वं तरुणी नवा।
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्यति यत्र च॥
!१/६१!

वृन्दावनके संयोगसे तुम फिर नवीन तरुणी हो गयी हो। अतः यह वृन्दावनधाम धन्य है, जहाँ भक्ति सर्वत्र नृत्य कर रही है॥६१!!

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अत्रेमौ ग्राहकाभावान्न जरामपि मुञ्चतः।
किञ्चिदात्मसुखेनेह प्रसुप्तिर्मन्यतेऽनयोः॥
!१/६२!

परंतु तुम्हारे इन दोनों पुत्रोंका यहाँ कोई ग्राहक नहीं है,इसलिये इनका बुढ़ापा नहीं छूट रहा है।यहाँ इनको कुछ आत्मसुख(भगवत्स्पर्शजनित आनन्द)की प्राप्ति होनेके कारण ये सोते-से जान पड़ते हैं॥६२! Image
!भक्तिरुवाच!

कथं परीक्षिता राज्ञा स्थापितो ह्यशुचिः कलिः।
प्रवृत्ते तु कलौ सर्वसारः कुत्र गतो महान्॥
!१/६३!

भक्तिने कहा - राजा परीक्षित्ने इस पापी कलियुगको क्यों रहने दिया? इसके आते ही सब वस्तुओंका सार न जाने कहाँ चला गया?॥६३!!

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करुणापरेण हरिणाप्यधर्मः कथमीक्ष्यते।
इमं मे संशयं छिन्धि त्वद्वाचा सुखितास्म्यहम्॥
!१/६४!

करुणामय श्रीहरिसे भी यह अधर्म कैसे देखा जाता है? मुने! मेरा यह संदेह दूर कीजिये, आपके बचनोंसे मुझे बड़ी शान्ति मिली है॥६४!
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!नारद उवाच!

यदि पृष्टस्त्वया बाले प्रेमतः श्रवणं कुरु।
सर्वं वक्ष्यामि ते भद्रे कश्मलं ते गमिष्यति॥
!१/६५!

नारदजीने कहा - बाले ! यदि तुमने पूछा है, तो प्रेमसे सुनो; कल्याणी ! मैं तुम्हें सब बताऊँगा और तुम्हारा दुःख दूर हो जायगा॥६५!!
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यदा मुकुन्दो भगवान् क्ष्मां त्यक्त्वा स्वपदं गतः।
तद्दिनात्कलिरायातः सर्वसाधनबाधकः॥
!१/६६!

जिस दिन भगवान् श्रीकृष्ण इस भूलोकको छोड़कर अपने परमधामको पधारे, उसी दिनसे यहाँ सम्पूर्ण साधनोंमें बाधा डालनेवाला कलियुग आ गया॥६६!!

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दृष्टो दिग्विजये राज्ञा दीनवच्छरणं गतः।
न मया मारणीयोऽयं सारङ्ग इव सारभुक्॥
!१/६७!

दिग्विजयके समय राजा परीक्षित की दृष्टि पड़नेपर कलियुग दीनके समान उनकी शरणमें आया। भम्ररके समान सारग्राही राजाने यह निश्चय किया कि इसका वध मुझे नहीं करना चाहिये॥६७!!
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यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना।
तत्फलं लभते सम्यक्कलौ केशवकीर्तनात्॥
!१/६८!

क्योंकि जो फल तपस्या, योग एवं समाधिसे भी नहीं मिलता, कलियुगमें वही फल श्रीहरिकीर्तनसे ही भलीभाँति मिल जाता है॥६८!!

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एकाकारं कलिं दृष्ट्वा सारवत्सारनीरसम्।
विष्णुरातः स्थापितवान् कलिजानं सुखाय च॥
!१/६९!

इस प्रकार सारहीन होनेपर भी उसे इस एक ही दृष्टिसे सारयुक्त देखकर उन्होंने कलियुगमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सुखके लिये ही इसे रहने दिया था॥६९!!

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कुकर्माचरणात्सारः सर्वतो निर्गतोऽधुना।
पदार्थाः संस्थिता भूमौ बीजहीनास्तुषा यथा॥
!१/७०!

इस प्रकार लोगोंके कुकर्ममें प्रवृत्त होनेके कारण सभी वस्तुओंका सार निकल गया है और पृथ्वीके सारे पदार्थ बीजहीन भूसीके समान हो गये हैं॥७०!!

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विप्रैर्भागवती वार्ता गेहे गेहे जने जने।
कारिता कणलोभेन कथासारस्ततो गतः॥
!१/७१!

ब्राह्मण केवल अन्न-धनादिके लोभवश घर-घर एवं जन-जनको भागवतकी कथा सुनाने लगे हैं, इसलिये कथाका सार चला गया॥७१!!

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अत्युग्रभूरिकर्माणो नास्तिका गैरवा जनाः।
तेऽपि तिष्ठन्ति तीर्थेषु तीर्थसारस्ततो गतः॥
!१/७२!

तीर्थोंमें नाना प्रकारके अत्यन्त घोर कर्म करनेवाले, नास्तिक और नारकी पुरुष भी रहने लगे हैं; इसलिये तीर्थोंका भी प्रभाव जाता रहा॥७२!!

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कामक्रोधमहालोभतृष्णाव्याकुलचेतसः।
तेऽपि तिष्ठन्ति तपसि तपःसारस्ततो गतः॥
!१/७३!

मनपर काबू न होनेके कारण तथा लोभ, दम्भ और पाखण्डका आश्रय लेनके कारण एवं शास्त्रका अभ्यास न करनेसे ध्यानयोगका फल मिट गया॥७३!!

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मनसश्चाजयाल्लोभाद्दम्भात्पाखण्डसंश्रयात्।
शास्त्रानभ्यसनाच्चैव ध्यानयोगफलं गतम्॥
!१/७४!

जिनका चित्त निरन्तर काम, क्रोध, महान् लोभ और तृष्णासे तपता रहता है, वे भी तपस्याका ढोंग करने लगे हैं, इसलिये तपका भी सार निकल गया॥७४!!

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पण्डितास्तु कलत्रेण रमन्ते महिषा इव।
पुत्रस्योत्पादने दक्षा अदक्षा मुक्तिसाधने॥
!१/७५!

पण्डितोंको यह दशा है कि वे अपनी स्त्रियोंके साथ भैंसोंकी तरह रमण करते हैं; उनमें संतान पैदा करनेकी ही कुशलता पायी जाती है, मुक्तिसाधनमें वे सर्वथा अकुशल हैं॥७५!
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न हि वैष्णवता कुत्र सम्प्रदायपुरःसरा।
एवं प्रलयतां प्राप्तो वस्तुसारः स्थले स्थले॥
!१/७६!

सम्प्रदायानुसार प्राप्त हुई वैष्णवता भी कहीं देखनेमें नहीं आती। इस प्रकार जगह-जगह सभी वस्तुओंका सार लुप्त होगया है॥७६

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अयं तु युगधर्मो हि वर्तते कस्य दूषणम्।
अतस्तु पुण्डरीकाक्षः सहते निकटे स्थितः॥
!१/७७!

यह तो इस युगका स्वभाव ही है, इसमें किसीका दोष नहीं है। इसीसे पुण्डरीकाक्षभगवान् बहुत समीप रहते हुए भी यह सब सह रहे हैं॥७७!
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!सूत उवाच!

इति तद्वचनं श्रुत्वा विस्मयं परमं गता।
भक्तिरूचे वचो भूयः श्रूयतां तच्च शौनक॥
!१/७८!

सूतजी कहते हैं - शौनकजी ! इस प्रकार देवर्षि नारदके वचन सुनकर भक्तिको बड़ा आश्चर्य हुआ; फिर उसने जो कुछ कहा, उसे सुनिये॥७८!! Image
!भक्तिरुवाच!

सुरर्षे त्वं हि धन्योऽसि मद्भाग्येन समागतः।
साधूनां दर्शनं लोके सर्वसिद्धिकरं परम्॥
!१/७९!

भक्तिने कहा-देवर्षे! आप धन्य हैं! मेरा बड़ा सौभाग्य था, जो आपका समागम हुआ। संसारमें साधुओंका दर्शन ही समस्त सिद्धियोंका परम कारण है॥७९!
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जयति जगति मायां यस्य कायाधवस्ते
वचनरचनमेकं केवलं चाकलय्य।
ध्रुवपदमपि यातो यत्कृपातो ध्रुवोऽयं
सकलकुशलपात्रं ब्रह्मपुत्रं नतास्मि॥
!१/८०!

आपकेउपदेशसेप्रह्लादनेमायापरविजयप्राप्तकरली।ध्रुवआपकीकृपासेध्रुवपदप्राप्तकिया।आपसर्वमङ्गलमय&साक्षातब्रह्माजीकेपुत्रहैं,मैंआपकोनमस्कारकरतीहूँ॥८० Image
नारद उवाच

वृथा खेदयसे बाले अहो चिन्तातुरा कथम्।
श्रीकृष्णचरणाम्भोजं स्मर दुःखं गमिष्यति॥
!२/१!

नारदजी ने कहा~बाले!तुम व्यर्थ ही अपनेको क्यों खेदमें डाल रही हो?अरे!तुम इतनी चिन्तातुर क्योंहो?भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका चिन्तन करो,उनकी कृपासे तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायगा॥१!! Image
द्रौपदी च परित्राता येन कौरवकश्मलात्।
पालिता गोपसुन्दर्यः स कृष्णः क्वापि नो गतः॥
!२/२!

जिन्होंने कौरवोंके अत्याचारसे द्रौपदीकी रक्षा की थी और गोपसुन्दरियोंको सनाथ किया था,वे श्रीकृष्ण कहीं चले थोड़े ही गये हैं॥२
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त्वं तु भक्तिः प्रिया तस्य सततं प्राणतोऽधिका।
त्वयाऽऽहूतस्तु भगवान् याति नीचगृहेष्वपि॥
!२/३!

फिर तुम तो भक्ति हो और सदा उन्हें प्राणोंसे भी प्यारी हो; तुम्हारे बुलानेपर तो भगवान् नीचोंके घरोंमें भी चले जाते हैं॥३!!

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@SbbsSansthanam 🚩🙏🚩 Image
सत्यादित्रियुगे बोधवैराग्यौ मुक्तिसाधकौ।
कलौ तु केवला भक्तिर्ब्रह्मसायुज्यकारिणी॥
!२/४!

सत्य, त्रेता और द्वापर -इन तीन युगोंमें ज्ञान और वैराग्य मुक्तिके साधन थे; किन्तु कलियुगमें तो केवल भक्ति ही ब्रह्मसायुज्य (मोक्ष) की प्राप्ति करानेवाली है॥४!!
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