सरकार भारत को अमेरिका बनाने पर तुली है। समर्थकों को भी लगता है अमेरिका स्वर्ग है। हक़ीक़त से जब सामना होगा तो तोते उड़ जाएंगे। अमेरिका में न तो पब्लिक हेल्थ है, न पब्लिक ट्रांसपोर्ट। अगर हेल्थ बीमा नहीं कराया है तो बीमारी से मरो न मरो अस्पताल का बिल भरते भरते जरूर मर जाओगे।
कहीं भी जाना है तो न तो बस है न ट्रेन, या तो खुद की गाडी चाहिए या टैक्सी कीजिये। शिक्षा गज़ब महँगी है। ग्रेजुएट तो गिने चुने लोग ही बन पाते हैं। पब्लिक स्कूल और कॉलेज नहीं के बराबर हैं, और जो हैं उनकी भी हालत अच्छी नहीं। हर छोटी मोटी चीज का पेटेंट है।
यहां आप शावर लेने की जगह बाल्टी में पानी भर के नहाने बैठे की अचानक IPR का वकील नोटिस लेकर आ गया कि बाल्टी से नहाने वाली तकनीक का तो हमने पेटेंट करा रखा है। खेती से लेकर खान-पान, शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक, न्याय से लेकर सरकार तक हर चीज़ पर कॉर्पोरेट का कब्ज़ा है।
जीवन इतना महंगा है कि पूरी जिंदगी क्रेडिट पर ही चल रही है। आधुनिकता ही होड़ में संयम का कोई स्थान नहीं है। भारत की आत्मा में ही संयम बसता है।
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सरकार देश के संसाधनों का निजीकरण करने पर तुली हुई है। और देश की जनता बिगबॉस देखने में बिजी है। आइये आपको निजीकरण के फायदे समझाते हैं।
हवा: आपको खुली हवा में सांस लेने की आजादी नहीं है, क्यूंकि हवा किसी कंपनी ने सरकार से बोली लगाकर खरीद ली है। अब उस कंपनी को
अपने हिसाब से हवा में प्रदूषण फ़ैलाने का हक़ है।
आप चाह कर भी सांस नहीं ले सकते। हवा गन्दी ही इतनी हो गयी है। हाँ अगर सांस लेनी है तो प्राइवेट कंपनी का बनाया हुआ पॉलूशन फ़िल्टर मास्क या फिर ऑक्सीजन सिलिंडर खरीदना पड़ेगा।
अपनी गलतियों का ठीकरा दूसरों के सर फोड़ने का तरीका कोई कृष्णमूर्ति सुब्रह्मनीयन साहब से सीखे। ये न केवल नालायक हैं बल्कि झूठे और मक्कार भी हैं। पॉइंट बाई पॉइंट थ्रेड :
1. इन्होने ने बैंकों की हालत के लिए रघुराम राजन के कार्यकाल को जिम्मेदार ठहराया है। चलो मान लिया कि उनकी गलती थी। आपने क्या किया उसके बाद? जिस रिस्ट्रक्चरिंग को गालियाँ दे रहे हैं वो बंद हो गयी क्या?
2. एक तरफ आप बैंक और कॉर्पोरेट के कोलैबोरेशन को गरिया रहे हैं। दूसरी तरफ आप कॉर्पोरेट को बैंकिंग में एंट्री देने की वकालत कर रहे हैं।
3. आप कह रहे हैं कि कॉर्पोरेट वाले बैंकों पर दबाव बनाते हैं लोन रिस्ट्रक्चरिंग के लिए।
आइये आज आपको निजीकरण की क्रोनोलॉजी समझाते हैं। कॉर्पोरेट बहुत तगड़ी प्लानिंग के साथ काम करते हैं। ये बरसों तक तैयारी करते हैं। सबसे पहले विदेशी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर्स को प्रोजेक्ट फंडिंग दी जायेगी।
साथ ही उनको कंपनी एडवाइजरी बोर्ड में पार्ट टाइम आनरेरी पोजीशन के साथ मोटी सैलरी भी दी जायेगी। फिर अवार्ड्स की फंडिंग करके, और नामी अख़बारों और पत्रिकाओं में लेख छपवाकर उन प्रोफेसर्स को नामचीन बनाया जाएगा।
फिर कॉर्पोरेट के एहसानों के बोझ तले दबे इन शिक्षाविदों को सरकारें सलाहकार नियुक्त करेंगी। अगर सरकार नहीं मानी तो दुनिया भर में पैसे देकर खड़ी की गयी रेटिंग एजेंसियों, NGOs, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के जरिये कभी असहिष्णुता तो कभी व्यापार,
सत्ताधारी पार्टी की ताकत को देखकर सरकार पर एक विदेशी विचारधारा (पूंजीवाद) काबिज़ हो चुकी है, जो सरकार को अपने इशारों पर नचा रही है। सत्ताधारी लोग भी चापलूसी के नशे में धुत्त होकर पूंजीवाद की बीन पर नाच रहे हैं।
वहीँ विपक्ष को कमजोर देखकर पूरे विपक्ष पर एक और विदेशी लेकिन समान रूप से हानिकारक विचारधारा काबिज़ हो गयी है जो विपक्ष, जो कि सत्ता की ही तरह राष्ट्र का अभिन्न अंग होता है इस तीसरी विध्वंसक विचारधारा के इशारे पर नाच रहा है।
विपक्ष चाहकर भी इससे पीछा नहीं छुड़ा पा रहा और सत्तापक्ष की आँखों पर से चापलूसी की पट्टी नहीं उतर रही। दोनों ही विचारधाराएं जीत रही हैं। देश का निजीकरण भी हो रहा है और बंटवारा भी। देश हार रहा है, देश की जनता हार रही है।
हिटलर एक भीषण तानाशाह था। इसका एक उदाहरण एक कहानी से मिलता है। हिटलर को आर्यन नस्ल (संस्कृत वाले आर्य से भिन्न) की श्रेष्ठता पर पूरा भरोसा था।
उसका मानना था की बाकी नस्लों को ख़तम कर देना चाहिए क्यूंकि वे जर्मनी और मनुष्य जाति का विकास अवरुद्ध कर रही हैं। उन बाकी नस्लों में यहूदी बहुमत में थे। अपनी बात को सिद्ध करने के लिए उसने कपालविज्ञान (Phrenology) का सहारा लिया।
(आधुनिक विज्ञान कपालविज्ञान को कपोल कल्पना मानता है और मान्यता नहीं देता)। इसके लिए हिटलर ने अपने कुछ डॉक्टरों को बुलाया और लोगों को पकड़ कर उनकी खोपड़ी के आकार की जांच करने के लिए कहा।
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। इसके लिए यूनियन बनाई गई थी। यूनियन को काम दिया था स्टाफ को मैनेजमेंट की ज्यादतियों से बचाने का, वर्क कल्चर सुधारने का, बैंकर्स के मुद्दे उठाने का, अच्छी सैलरी दिलवाने का।
लेकिन फ़िलहाल यूनियन में कुर्सी-प्रेमी, कमीशनखोर, लालची और ढीठ लोग भरे हुए हैं जो कुम्भकर्णी निद्रा में सोते हैं और सिर्फ लेवी मांगने के टाइम ही जागते हैं। बैंकर पिट जाता है, बैंक लुट जाता है, सरकार अपनी वोट-बैंक पॉलिटिक्स से प्रेरित योजनाएं बैंकों पर लाद देते है,
और कलेक्टर छुट्टी के दिन बैंक खुलवा कर टारगेट पूरा करवाता है, फर्जी लोन बांटने का प्रेशर आता है और नहीं बांटने पर FIR होती है। RBI बैंकों को लूट कर सरकार का वित्तीय घाटा पूरा कर रहा है और यहां यूनियन 4% की लेवी अर्जेण्टली काटने का सर्कुलर निकाल रहे हैं।