आइये आज आपको निजीकरण की क्रोनोलॉजी समझाते हैं। कॉर्पोरेट बहुत तगड़ी प्लानिंग के साथ काम करते हैं। ये बरसों तक तैयारी करते हैं। सबसे पहले विदेशी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर्स को प्रोजेक्ट फंडिंग दी जायेगी।
साथ ही उनको कंपनी एडवाइजरी बोर्ड में पार्ट टाइम आनरेरी पोजीशन के साथ मोटी सैलरी भी दी जायेगी। फिर अवार्ड्स की फंडिंग करके, और नामी अख़बारों और पत्रिकाओं में लेख छपवाकर उन प्रोफेसर्स को नामचीन बनाया जाएगा।
फिर कॉर्पोरेट के एहसानों के बोझ तले दबे इन शिक्षाविदों को सरकारें सलाहकार नियुक्त करेंगी। अगर सरकार नहीं मानी तो दुनिया भर में पैसे देकर खड़ी की गयी रेटिंग एजेंसियों, NGOs, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के जरिये कभी असहिष्णुता तो कभी व्यापार,
कभी स्वास्थ्य तो कभी शिक्षा जैसे मुद्दों पर देश और सरकार को पूरे विश्व में बेइज़्ज़त करके दबाव बनाया जाएगा। झख मारकर सरकार को इन कॉर्पोरेट के भाड़े के टट्टुओं को नौकरी देनी ही पड़ेगी।
फिर ये पढ़ेलिखे लेकिन बिके हुए सलाहकार देश की आर्थिक नीतियां तय करेंगे और अर्द्धशक्षित लेकिन अतिशक्तिशाली नेता उन नीतियों को देश पर थोपेंगे। चूंकि ये सलाहकार कॉर्पोरेट से आये हैं और बाद में कॉर्पोरेट में ही जाएंगे, इसलिए नीतियां भी कॉर्पोरेट को मुनाफा पहुँचाने वाली ही बनाएंगे।
इन नीतियों में शामिल है निजी कंपनियों को अधिक से अधिक छूट देना, सरकारी कंपनियों पर दुनिया भर की बंदिशें लगवाना, मुनाफे की सारी मलाई निजी कंपनियों को देना और समाज सेवा का खर्चे और मेहनत वाला काम सरकारी कंपनियों के मत्थे मढ़ देना और फिर उनको घाटे में लाके बिकवाना।
लेकिन सरकार में तो नौकरशाह भी हैं, जिनका कॉर्पोरेट से कोई सीधा लेना देना नहीं होता। अगर उन्होंने टांग अड़ाई तो? चाणक्य साम-दाम-दंड-भेद इसीलिए तो बता कर गए थे। पहले तो इन्हें समझा बुझा कर झांसे में लाने की कोशिश होगी। फिर सीधे सीधे खरीदने की कोशिश करेंगे।
उनको और उनके बच्चों को रिटायरमेंट के बाद कंपनी में मोटी तनख्वाह वाली नौकरी का लालच देंगे। अगर पॉलिटिक्स में जाने के इच्छुक हैं तो उनके लिए इलेक्शन की फंडिंग का इंतजाम कर देंगे। अगर लिखने के शौक़ीन हैं तो किताब छपवाकर उसको अवार्ड दिलवा देंगे।
अगर फिर भी नहीं माने तो सरकार पर दबाव डाल कर रास्ते से हटवाएंगे। न्यायपालिका को ऐसे ही फुर्सत नहीं है। मीडिया तो पहले ही खरीदी जा चुकी है, इसलिए वो तो कुछ बोलने से रही। बल्कि वो तो एजेंडे में साथ देगी।
पैसे के दम पर एक पूरी पत्रकारों की फ़ौज खड़ी की जायेगी जो समय-समय पर न केवल सरकारी कंपनियों को बदनाम करेगी बल्कि जनता को निजीकरण के फायदे भी समझाएगी। देश की हर समस्या का मूल सरकारी उपक्रमों में ढूंढ लिया जाएगा और निजीकरण को हर समस्या का रामबाण इलाज घोषित कर दिया जाएगा।
फिर एक ट्रोल्स की फ़ौज भी बनायीं जायेगी जो न केवल सोशल मीडिया पर बल्कि ऑन स्टेज कॉमेडी शोज में, सिनेमा में, यूट्यूब पर सरकारी कम्पनीयों को बदनाम करने का काम करेगी।
इसका काम होगा सरकारी कर्मचारियों को निकम्मा और नाकारा घोषित करना, SBI के लंच टाइम पर जोक बनाना, BSNL की इंटरनेट स्पीड का मजाक बनाना, सरकारी अस्पतालों और स्कूलों की बुराई करना, रेलवे के टिकटिंग सिस्टम को गालियाँ देना, एयर इंडिया की एयरहोस्टेस को आंटी बताना।
क्यों भाई? फ्लाइट में ट्रेवल करने जाते हो या लौंडियाबाजी करने? क्यों चाहिए तुमको जवान एयरहोस्टेस? ऐसी कैसी ठरक भरी पड़ी है कि दो घंटे की फ्लाइट में भी आँखें सेकनी हैं तुमको? इस तरह से निजीकरण का एक पूरा माहौल तैयार किया जाएगा।
हर आदमी के दिमाग में ये बात ठूस दी जायेगी कि निजीकरण होते ही बैंकवाला उसके घर आएगा खाता खोलने, पैसे देने, पासबुक प्रिंट करने, बैलेंस बताने। कर्मचारी यूनियन के नेताओं का मुंह भी खिला पिला कर बंद कर दिया जाएगा। वैसे भी ज्यादातर बूढ़े घोड़े हैं तो कोई भाव भी नहीं देता इनको।
सरकार को बोलकर 10-12 फर्जी कमेटियां बनाकर उनमें इन नाकारा यूनियन के नेताओं को बिठा दिया जाएगा। इस तरह देश बेचने के लिए पूरा रास्ता साफ़ कर दिया जाएगा। फिर सरकार को बोल के कुछ फर्जी मुद्दा बनाया जाएगा। ऐसा मुद्दा जिससे पूरे देश का ध्यान उस मुद्दे पे ही लग जाए।
मीडिया को ये सख्त हिदायत रहेगी कि किसी भी हाल में जनता का ध्यान सरकार के असली कारनामों की तरफ नहीं जाना चाहिए। कोई भी और बात करने वाले को देशद्रोही या किसान द्रोही घोषित कर दिया जाएगा। आप कौनसे वाले द्रोही हैं ये इससे डिसाइड किया जाएगा कि आप कौनसा न्यूज़ चैनल देख रहे हैं।
आप अपने आठ लाख रुपया महीना पाने वाले अपने पसंदीदा एंकर को राजा हरिश्चंद्र मान कर देख रहे होंगे लकिन ये आपको पता भी नहीं चलेगा कि सारी ही कठपुतलियों की डोर कॉर्पोरेट के ही हाथ में है।
फिर एक दिन जब पूरा देश एक दुसरे को देशद्रोही साबित करने में लगा होगा, चुपके से पूरा देश कुछ कॉर्पोरेट्स को बेच दिया जाएगा। फिर कुछ समय बाद जब देश की जनता जागेगी, तो पता चलेगा कि अब न तो फ्री में स्कूल में एडमिशन होता है, न अस्पताल में इलाज,
रेल में जनरल डिब्बा ख़तम कर दिया है। बैंक में खाता खोलने के लिए भी कम से कम दस लाख रूपये चाहिए। जो पुरानी बैंकों में जमा पूँजी थी वो NPA और हेअरकट के नाम पर हजम कर ली गयी है। मोबाइल, बिजली और सड़क अब गांवों तक नहीं जाती क्यूंकि वहाँ कॉस्ट-बेनिफिट रेश्यो सही नहीं बैठता।
अब पैदा होने से मरने तक हर चीज के लिए चार्ज लगता है। हाँ एक बड़ा फायदा हुआ है। देश अब मुनाफे में चल रहा है। क्रोनोलॉजी समझ रहे हैं न आप?
सरकार देश के संसाधनों का निजीकरण करने पर तुली हुई है। और देश की जनता बिगबॉस देखने में बिजी है। आइये आपको निजीकरण के फायदे समझाते हैं।
हवा: आपको खुली हवा में सांस लेने की आजादी नहीं है, क्यूंकि हवा किसी कंपनी ने सरकार से बोली लगाकर खरीद ली है। अब उस कंपनी को
अपने हिसाब से हवा में प्रदूषण फ़ैलाने का हक़ है।
आप चाह कर भी सांस नहीं ले सकते। हवा गन्दी ही इतनी हो गयी है। हाँ अगर सांस लेनी है तो प्राइवेट कंपनी का बनाया हुआ पॉलूशन फ़िल्टर मास्क या फिर ऑक्सीजन सिलिंडर खरीदना पड़ेगा।
अपनी गलतियों का ठीकरा दूसरों के सर फोड़ने का तरीका कोई कृष्णमूर्ति सुब्रह्मनीयन साहब से सीखे। ये न केवल नालायक हैं बल्कि झूठे और मक्कार भी हैं। पॉइंट बाई पॉइंट थ्रेड :
1. इन्होने ने बैंकों की हालत के लिए रघुराम राजन के कार्यकाल को जिम्मेदार ठहराया है। चलो मान लिया कि उनकी गलती थी। आपने क्या किया उसके बाद? जिस रिस्ट्रक्चरिंग को गालियाँ दे रहे हैं वो बंद हो गयी क्या?
2. एक तरफ आप बैंक और कॉर्पोरेट के कोलैबोरेशन को गरिया रहे हैं। दूसरी तरफ आप कॉर्पोरेट को बैंकिंग में एंट्री देने की वकालत कर रहे हैं।
3. आप कह रहे हैं कि कॉर्पोरेट वाले बैंकों पर दबाव बनाते हैं लोन रिस्ट्रक्चरिंग के लिए।
सरकार भारत को अमेरिका बनाने पर तुली है। समर्थकों को भी लगता है अमेरिका स्वर्ग है। हक़ीक़त से जब सामना होगा तो तोते उड़ जाएंगे। अमेरिका में न तो पब्लिक हेल्थ है, न पब्लिक ट्रांसपोर्ट। अगर हेल्थ बीमा नहीं कराया है तो बीमारी से मरो न मरो अस्पताल का बिल भरते भरते जरूर मर जाओगे।
कहीं भी जाना है तो न तो बस है न ट्रेन, या तो खुद की गाडी चाहिए या टैक्सी कीजिये। शिक्षा गज़ब महँगी है। ग्रेजुएट तो गिने चुने लोग ही बन पाते हैं। पब्लिक स्कूल और कॉलेज नहीं के बराबर हैं, और जो हैं उनकी भी हालत अच्छी नहीं। हर छोटी मोटी चीज का पेटेंट है।
यहां आप शावर लेने की जगह बाल्टी में पानी भर के नहाने बैठे की अचानक IPR का वकील नोटिस लेकर आ गया कि बाल्टी से नहाने वाली तकनीक का तो हमने पेटेंट करा रखा है। खेती से लेकर खान-पान, शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक, न्याय से लेकर सरकार तक हर चीज़ पर कॉर्पोरेट का कब्ज़ा है।
सत्ताधारी पार्टी की ताकत को देखकर सरकार पर एक विदेशी विचारधारा (पूंजीवाद) काबिज़ हो चुकी है, जो सरकार को अपने इशारों पर नचा रही है। सत्ताधारी लोग भी चापलूसी के नशे में धुत्त होकर पूंजीवाद की बीन पर नाच रहे हैं।
वहीँ विपक्ष को कमजोर देखकर पूरे विपक्ष पर एक और विदेशी लेकिन समान रूप से हानिकारक विचारधारा काबिज़ हो गयी है जो विपक्ष, जो कि सत्ता की ही तरह राष्ट्र का अभिन्न अंग होता है इस तीसरी विध्वंसक विचारधारा के इशारे पर नाच रहा है।
विपक्ष चाहकर भी इससे पीछा नहीं छुड़ा पा रहा और सत्तापक्ष की आँखों पर से चापलूसी की पट्टी नहीं उतर रही। दोनों ही विचारधाराएं जीत रही हैं। देश का निजीकरण भी हो रहा है और बंटवारा भी। देश हार रहा है, देश की जनता हार रही है।
हिटलर एक भीषण तानाशाह था। इसका एक उदाहरण एक कहानी से मिलता है। हिटलर को आर्यन नस्ल (संस्कृत वाले आर्य से भिन्न) की श्रेष्ठता पर पूरा भरोसा था।
उसका मानना था की बाकी नस्लों को ख़तम कर देना चाहिए क्यूंकि वे जर्मनी और मनुष्य जाति का विकास अवरुद्ध कर रही हैं। उन बाकी नस्लों में यहूदी बहुमत में थे। अपनी बात को सिद्ध करने के लिए उसने कपालविज्ञान (Phrenology) का सहारा लिया।
(आधुनिक विज्ञान कपालविज्ञान को कपोल कल्पना मानता है और मान्यता नहीं देता)। इसके लिए हिटलर ने अपने कुछ डॉक्टरों को बुलाया और लोगों को पकड़ कर उनकी खोपड़ी के आकार की जांच करने के लिए कहा।
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। इसके लिए यूनियन बनाई गई थी। यूनियन को काम दिया था स्टाफ को मैनेजमेंट की ज्यादतियों से बचाने का, वर्क कल्चर सुधारने का, बैंकर्स के मुद्दे उठाने का, अच्छी सैलरी दिलवाने का।
लेकिन फ़िलहाल यूनियन में कुर्सी-प्रेमी, कमीशनखोर, लालची और ढीठ लोग भरे हुए हैं जो कुम्भकर्णी निद्रा में सोते हैं और सिर्फ लेवी मांगने के टाइम ही जागते हैं। बैंकर पिट जाता है, बैंक लुट जाता है, सरकार अपनी वोट-बैंक पॉलिटिक्स से प्रेरित योजनाएं बैंकों पर लाद देते है,
और कलेक्टर छुट्टी के दिन बैंक खुलवा कर टारगेट पूरा करवाता है, फर्जी लोन बांटने का प्रेशर आता है और नहीं बांटने पर FIR होती है। RBI बैंकों को लूट कर सरकार का वित्तीय घाटा पूरा कर रहा है और यहां यूनियन 4% की लेवी अर्जेण्टली काटने का सर्कुलर निकाल रहे हैं।