जहां तक रेलवे की बात है लालू जी की रेलवे मैनेजमेंट के लिए काफी तारीफ की जाती है। मगर जानकार लोग जानते हैं कि लालू की नीतियां रेलवे और देश के उद्योगों के लिए कितनी हानिकारक सिद्ध हुईं। लालू के रेलमंत्री रहते हुए पेसेंजर किराये में बढ़ोतरी नहीं की गयी।
ससे रेलवे का पैसेंजर सेक्शन बहुत ज्यादा घाटे में चल रहा था। न केवल इससे भारतीय रेलवे को एरिया एक्सपेंशन में दिक्कत आ रही थी बल्कि तकनीकी उन्नयन भी लगभग ठप्प पड़ा था।
और तो और वोट बैंक के लिए बिना पटरियों की क्षमता की परवाह किये हुए, ढेर सारी नयी पेसेंजर ट्रेन्स चलाये गयीं जिससे पटरियों को तो नुक्सान पहुंचा ही, बल्कि ट्रैन ट्रैफिक बढ़ने से ट्रेनों की अनियमितता भी काफी ज्यादा बढ़ गयीं।
पेसेंजर सेक्शन में हो रहे घाटे को कम करने के लिए माल-ढुलाई का किराया बेतहाशा बढ़ा दिया गया। जिससे देश में माल परिवहन काफी महंगा हो गया। इसका सबसे ज्यादा असर स्ट्रेटेजिक माल जैसे लौह अयस्क, कोयला इत्यादि पर पड़ा। माल ढुलाई की लिमिट भी बढ़ा दी गयी।
मतलब जिस वैगन में पहले केवल 40 टन माल भरा जाता था उसमें अब 60 टन माल भरा जाने लगा। इससे न केवल वैगन जल्दी नाकारा हो जाते थे बल्कि पटरियों को भी भारी नुकसान पहुँचता था। ये बात में इसलिए कह सकता हूँ क्यूंकि मैंने खुद लगभग एक साल रेलवे माल-ढुलाई के क्षेत्र में काम किया है।

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More from @BankerDihaadi

11 Feb
साहब ने कहा कि बाबुओं के हाथ में देश देकर क्या होगा। इस एक वक्तव्य ने सरकार की मंशा को साफ़ कर दिया है। जी नहीं, सरकार बाबूगिरी नहीं हटाने वाली। बाबूगिरी तो रहेगी लेकिन पहले वाले बाबू अब नहीं रहेंगे।
पहले वाले बाबू सरकारी परीक्षा पास करके, पूरी दुनिया की नॉलेज लेके, मेहनत करके आते थे। अब नए बाबू आएंगे। ये बाबू अपने बॉस से सिफारिश लगा के, नेताजी के चरण धो के, चापलूसी का एग्जाम पास करके आएंगे। पहले छोटे गांवों और गरीब परिवारों के लोग भी बाबू बनने का सपना देख सकते थे।
अब ऐसा नहीं होगा। अब महंगे कॉलेज से MBA करे हुए, विदेशी यूनिवर्सिटी से पढ़े हुए, भारत को "So poor country" कहने वाले बाबू आएंगे। गांव वाले लोगों के लिए अब देश में कोई जगह नहीं। क्यूंकि गांव के लोग गंध मारते हैं। आजकल की सरकार को विदेशी परफ्यूम पसंद है।
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10 Feb
हर सरकार कुछ अच्छे काम करती है कुछ बुरे काम भी करती है। किसी भी सरकार का मूल्यांकन उसके कामों से होना चाहिए न कि व्यक्ति विशेष से। बात अगर मुद्दों पर हो तो लॉजिकल कन्क्लूजन तक पहुंच सकती है। एक लॉजिकल कन्क्लूजन के आधार पर बनी हुई राय ही संघर्ष में टिक पाती है।
अन्यथा आपको विपक्ष का मोहरा बता कर खारिज किया जा सकता है। इसके लिए हमको अपनी राजनीतिक विचारधारा को एक तरफ रख के मुद्दों का विश्लेषण करना होता है। जो चीज आपको गलत लगे उसका जम कर विरोध कीजिये।
मगर किसी चीज का सिर्फ इसलिए विरोध मत कीजिये क्यूंकि वो किसी व्यक्ति विशेष से जुडी है। और विरोध में एक मर्यादा भी आवश्यक है। हम ट्रोल्स का जवाब ट्रोलिंग से दे सकते हैं मगर ट्रोलिंग को विरोध का मुख्य हथियार बना लेना हमारे विरोध को ही कमज़ोर करता है।
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10 Feb
ये तभी सफल हो सकता है जब स्टाफ पर्याप्त हो। लाखों पोस्ट हर विभाग में खाली पड़ी हैं। ऐसे में आप 4 डे कीजिये 3 डे कीजिये या पूरा हफ्ता ऑफ कर दीजिए, कोई मतलब नहीं। छुट्टी के दिन बुलाना आम हो जाएगा, जनता को तो समस्या होगी ही, और जो पहले से निकम्मे थे वो और निकम्मे हो जाएंगे।
एक दिन का बचा हुआ काम ईमानदार लोगों के माथे आ पड़ेगा। 4 डे वीक के चक्कर में वे बेचारे रात को 10 बजे तक आफिस में खटेंगे। जरूरत इस तरह की लीपापोती की नहीं मैनपावर रेशनलाइजेशन की है। जहां जरूरत है वहां आदमी दीजिये। जिनके पास जरूरत से ज्यादा पावर है उनकी पावर कम हो।
DM के पास भूराजस्व, लॉ एंड आर्डर, क्षेत्र विकास, सामान्य प्रशासन, प्रोटोकॉल ड्यूटी, इमरजेंसी ड्यूटी, चुनाव ड्यूटी, और भी न जाने कितने काम हैं। SP साहब को पूरे जिले की पुलिस का जिम्मा थमाया हुआ है।
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9 Feb
Sir,
New Zealand has population less than Ahmedabad and one fourth of New Delhi. Still New Zealand has one whole vote in UNGA. Same true for Scandinavian Countries. They don't have much scope for administration, governance and growth.
In fact, in many developed countries at the seat of Mayor, they have elected some dog or cat, as there is no real work there. These countries practically run themselves. This gives them scope for becoming mediator for the issues in other countries.
In case of LTTE and Sri Lanka issue, it was Norway which became mediator. In case of Iran and US, Germany became mediator. Norway actually tried to meddle many times in Kashmir issue.
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8 Feb
आपने बढ़िया सवाल किया है। आजकल बहुत लोगों को ऐसा लगता है कि UPA सरकार के समय में अर्थव्यस्था बहुत सुदृढ़ थी। परन्तु ऐसा है नहीं। आपने पेट्रोलियम ईंधन के सस्ते होने की बात कही। उस समय तेल की कीमतों पे पूरी तरह से सरकार का नियंत्रण था।

economictimes.indiatimes.com/industry/energ…
पेट्रोलियम कीमतें अक्सर सरकार की वोट बैंक पॉलिटिक्स का हिस्सा हुआ करती थी। तेल कंपनियां जैसे IOCL BPCL वगैरह जबरदस्त घाटे में चलती थी और उनको घाटे से उबारने के लिए हर साल लाखों करोड़ रूपये कैश कंपनसेशन के रूप में OMCs को दिए जाते थे। ये पैसा टैक्सपेयर की जेब से आता था।
इसके अलावा इन कम्पनीज को मार्केट से बहुत ज्यादा उधार भी लेना पड़ता था। वहीँ आज सरकार पेट्रोलियम फ्यूल्स से टैक्स के रूप में काफी आमदनी कर रही है। सब्सिडीस काफी कम हो गयी हैं।OMCs की हालत आज पहले से बेहतर है। वो अलग बात है कि मौजूदा सरकार की नीतियां PSUs को चूसने का काम कर रही हैं
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7 Feb
थ्रेड: हमारे सरकारी बैंक

@poorav100 के सुझाव और मदद से एक नयी सीरीज शुरू करने जा रहे हैं। पिछले बारह सालों में सरकारी बैंकों की संख्या 27 से बारह रह गयी है। इनको घटा कर चार करने पर विचार चल रहा है।
यहां बहुत से बैंकर ऐसे हैं जिन्होंने ज्वाइन किसी और बैंक में किया था और आज किसी और बैंक में हैं। बहुत से ऐसे कस्टमर हैं जिनका खाता उनसे बिना पूछे किसी दूसरे बैंक में भेज दिया गया। कई सरकारी बैंक इतिहास के गर्त में समा चुके हैं।
प्राइवेट बैंक इसलिए बंद होते हैं क्यूंकि वे चल नहीं पाते, मालिकों का लालच कह लीजिये या नाकामी। सरकारी बैंक सरकार की नाकामी की वजह से बंद होते हैं। इससे पहले कि बचे खुचे सरकारी बैंक भी गुमनानी के अँधेरे में खो जाएँ, आइये जानते हैं सरकारी बैंकों के बारे में।
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