@poorav100 के सुझाव और मदद से एक नयी सीरीज शुरू करने जा रहे हैं। पिछले बारह सालों में सरकारी बैंकों की संख्या 27 से बारह रह गयी है। इनको घटा कर चार करने पर विचार चल रहा है।
यहां बहुत से बैंकर ऐसे हैं जिन्होंने ज्वाइन किसी और बैंक में किया था और आज किसी और बैंक में हैं। बहुत से ऐसे कस्टमर हैं जिनका खाता उनसे बिना पूछे किसी दूसरे बैंक में भेज दिया गया। कई सरकारी बैंक इतिहास के गर्त में समा चुके हैं।
प्राइवेट बैंक इसलिए बंद होते हैं क्यूंकि वे चल नहीं पाते, मालिकों का लालच कह लीजिये या नाकामी। सरकारी बैंक सरकार की नाकामी की वजह से बंद होते हैं। इससे पहले कि बचे खुचे सरकारी बैंक भी गुमनानी के अँधेरे में खो जाएँ, आइये जानते हैं सरकारी बैंकों के बारे में।
भाग : पंजाब & सिंध बैंक
मुल्तान के दीवान और महाराज रणजीत सिंह जी के सेनापति के वंशज श्री भाई वीर सिंह और उनके मित्रों द्वारा 1908 में अमृतसर में दस लाख की जमा पूँजी से ये बैंक स्थापित किया गया था।
भाई वीर सिंह पंजाबी परंपरा, हिन्दू संस्कृति और पाश्चात्य ज्ञान में पारंगत विद्वान लेखक थे, जिनका उद्देश्य पंजाब प्रदेश के आर्थिक विकास को नयी गति प्रदान करना था। शुरूआती दिनों में बैंक को ज्यादा सफलता नहीं मिली और 1947 तक इनकी केवल 10 ब्रांच ही खुल पायी थी।
1947 में इन्हें बंटवारे के कारण बड़ा झटका लगा और और इनकी 10 में से 8 ब्रांच पाकिस्तान में चली गयी। हिंदुस्तान में इनकी उपस्थिति केवल अमृतसर और लुधियाना में ही रह गयी। पाकिस्तान का सारा एसेट डूब गया और रिकवरी कि कोई सम्भावना भी नहीं थी।
वहीँ पाकिस्तान से भाग कर भारत आने वाले खाता धारकों को उनका पैसा वापिस करने की भी जिम्मेदारी थी। बैंक ने अपने ग्राहकों के विश्वास पर खरा उतरते हुए पाकिस्तान से भारत आने वाले अपने ग्राहकों को एक एक रुपया ब्याज समेत वापिस किया।
1960 में श्री एस इंदरजीत सिंह ने पंजाब एंड सिंध बैंक महाप्रबंधक के तौर पर ज्वाइन किया। इसके बाद बैंक ने कभी पीछे मुड़ के नहीं देखा। उन्होंने बैंक में नयी जान फूंकी और 1968 में 13 और 1974 में 60 ब्रांच हो गयीं। इनका पूरा बिज़नेस पंजाब, हरियाणा और दिल्ली तक ही सीमित था।
लेकिन बैंक की अधिकतर ब्रांच नए क्षेत्रों में खुली थी। इनका ध्यान जायदातर ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में बैंकिंग सेवाएं पहुँचाने पर था। राष्ट्रीयकरण से भी पहले छोटे क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधाएँ पहुँचाने में पंजाब एंड सिंध बैंक अग्रणी रहा।
पंजाब में खेती से लेकर खाद्य उद्योग, निर्यात व्यवसाय, लघु उद्योग, खुदरा व्यापार जैसे नज़रअंदाज क्षेत्रों को विकसित करने में बैंक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा क्षेत्र के युवाओं को रोजगार देने में भी बैंक का योगदान रहा। 1980 में बैंक का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
तब से लेकर आज तक बैंक लगातार विकास कर रहा है। 2010 में बैंक का IPO लाया गया जो कि बहुत सफल रहा। 120 रूपये पर लाया गया IPO पचास गुना से भी अधिक सब्सक्राइब हुआ और 22% के प्रीमियम पर खुला।
आज देश में पंजाब एंड सिंध बैंक की 1545 ब्रांच हैं जिनमें से लगभग 640 पंजाब में हैं और लगभग तेरह हजार ATM हैं। बैंक में आठ हजार से ज्यादा कर्मचारी काम करते हैं। बैंक ने पिछले दशक में जमीनी स्तर पर बहुत तरक्की की है लेकिन पिछले 3-4 सालों से बैंक NPA और घाटे की समस्या से जूझ रहा है।
पिछले वित्तीय वर्ष की समाप्ति के समय बैंक का कुल NPA 14% से भी अधिक था और शुद्ध NPA लगभग 8% रहा। पिछले तीन-चार साल से ही सरकार की गलत नज़र इस बैंक पर पड़ी है। बैंक का शेयर 145 रूपये से गिर कर आज 14 रूपये रह गया है, शेयर वैल्यू बुक वैल्यू से भी कम है और P/E नेगेटिव में है।
वैसे पिछले साल सरकार ने जीरो कूपन बांड्स के ज़रिये बैंक में 5500 करोड़ का कैपिटल डालने करने की बात कही है। उससे पहले भी 2017-18 में 785 करोड़ रूपये इस बैंक में डाले गए थे। लेकिन असली समस्या ये है कि सारा पैसा तो प्रोविजनिंग में ही खप जा रहा है।
2017 में इस बैंक को बैंक ऑफ़ बड़ौदा के साथ मर्ज करने की कोशिश की गई थी मगर दिल्ली गुरुद्वारा कमिटी के विरोध के बाद ऐसा नहीं हो पाया। इस बार सरकार पर बैंक बेचने का भूत सवार हुआ है। tribuneindia.com/news/archive/d…
वैसे पंजाब में इस समय जो स्थिति है सरकार के लिए इस समय इस बैंक को बेचना आसान नहीं होगा। लेकिन असली सवाल ये हैं लगभग एक करोड़ का कस्टमर बेस और एक लाख करोड़ के डिपॉजिट वाले बैंक को बेच कर सरकार किसका भला करना चाह रही है।
क्यूंकि बैंक की मार्केट वैल्यू गिर गिर कर एक हजार करोड़ रह गयी है, तो सरकार का तो इससे कोई भला होने से रहा। ये तो तय है कि सरकार की नीति सरकारी बैंकों को लेकर कतई स्पष्ट नहीं है। कभी रिकैपिटलाइजेशन की बात करते हैं कभी मर्जर की तो कभी निजीकरण की।
ये तभी संभव है जब सरकार के सलाहकार इकोनॉमिस्ट कम और ओपोर्चुनिस्ट ज्यादा हों। बाकी सरकार की लीला तो सरकार ही जाने। जनता का ही पैसा है और जनता की ही सरकार है। हम कौन बोलने वाले?
1. There was tussle between FM and Kotak (Corporate lobby) w.r.t., which bank to be privatized. This time FM got her way. So smaller PSB will get privatized, and Kotak is not happy with that.
2. Kotak's real target is SBI. In fact he is obsessed with SBI. In the span of 3-4 year, no PSB, including SBI safe.
3. Kotak has immense control over the present Finance ministry, and pulled strings in this budget.
4. Privatization is not going to stop, and there is no limit to that. However, he hinted that, corporate will only enter profit making sectors, and is in no way interested in social sector.
1. Farmer's are not going to give Bank unions any space, let alone any significant leader speaking against privatization. 2. Opposing privatization will divert them from their main issues, they will never want that. Any diversion will weaken the already weakening farmer movement.
3. Farmer issue and privatization issue are different in nature. Even source of both issues are different. Target audience is also not the same. Farm issues are emotional in nature, privatization is not.Raising both issues from the same stage will create confusion among public.
4. A significant proportion of Indian mass is not supportive of farmers' movement. Even many of bankers believe that the Movement has been infiltrated by the anti-national or anti social elements.
इसे हमारी इतिहास की किताबों में दूसरी तरह से देखा जाता है। अंग्रेजों के पास कानून, पुलिस और सेना तीनों की ताकत थी। भारतीय जन समुदाय में ज्यादातर लोगों को आजादी या गुलामी से कोई ज्यादा मतलब नहीं था।
अहिंसा के आंदोलन में लोग साथ इसलिए भी ज्यादा आये क्यूंकि सरकारी बर्बरता की सम्भावना कम थी। लेकिन हिंसक आंदोलन के साथ ऐसी कोई गारंटी नहीं होती। चौरी चौरा के बाद आंदोलन जारी रखने का निर्णय उन लोगों के लिए अनुकूल था जो सब कुछ छोड़ के राजनीती की ओर आये थे,
जैसे सुभाष और नेहरू, परन्तु आम जन के लिए ये अनुकूल नहीं था। गांधी खुद भी ये बहुत अच्छे से जानते थे कि न केवल हिंसा से उनकी नैतिक स्थिति कमजोर होती है बल्कि जन समुदाय कि भागीदारी भी कम होने की सम्भावना है।
आजकल आये दिन कभी अख़बारों में तो कभी न्यूज़ चैनल्स पर रोज कोई न कोई कॉर्पोरेट का पालतू तोता पत्रकार या एक्सपर्ट के भेष में आकर PSU बेचने की वकालत करता नजर आता है। तो आज बात करते हैं कि क्यों कॉर्पोरेट PSU खरीदने पर आमादा हैं।
1. पका-पकाया हलवा: नयी कंपनी खड़ी करने से कहीं ज्यादा आसान है पुरानी कंपनी खरीदना। आजकल बिज़नेस ग्रुप का जमाना है। मतलब आप केवल एक ही क्षेत्र की कंपनी रह कर ज्यादा पैसा नहीं कमा सकते। ग्रुप ऑफ़ कम्पनीज कहलाने का अपना अलग ही रुतबा है।
सबको टाटा अम्बानी बनना है।अम्बानी तेल-गैस, कम्युनिकेशन, रिटेल से लेकर, एग्री बिज़नेस तक में है।उसकी देखा-देख बाकियों को भी मल्टी-टास्किंग करनी है।लेकिन नए सेक्टर में घुसना आसान तो है नहीं।पूरा नया इन्वेस्टमेंट, नए लाइसेंस, जेस्टेशन पीरियड, नया सेट-अप। और वो भी बिना एक्सपीरियंस।
औद्योगिक क्षेत्र को छोड़ दें तो डायमंड आम आदमी के लिए एक गैर जरूरी चीज मानी जाती है। लेकिन फिर भी डायमंड की कीमतें आसमान को छूती हैं। बड़ा और दुर्लभ डायमंड खरीदना और पहनना एक स्टेटस सिंबल माना जाता है।
कुछ कुछ डायमंड तो इतने महंगे होते हैं कि पूरा देश बिक जाए तो भी उसकी कीमत नहीं लगा सकते। डायमंड की एक सच्चाई ये भी है कि जितना दुर्लभ डायमंड माना जाता है उतना दुर्लभ ये होता नहीं है। धरती पर हीरा बहुतायत में उपलब्ध है।
आपने कभी सोचा है कि बैंक वाले जब सोना रखते हैं तो हीरे का वजन क्यों निकाल देते हैं? या जब आप हीरा ज्वेलरी वाले को बेचने जाते हैं तो वो हीरे की कोई कीमत क्यों नहीं देता? तनिष्क वाला सिर्फ अपने बेचे हुए हीरे की ही कीमत वापिस करता है और वो भी आधी?
बैंकर किसान नहीं है। वे चार महीने तक सड़क जाम करके नहीं बैठ सकते। आप दस लाख बैंकरों को महीने भर तक हड़ताल पे नहीं रख सकते। न ही उनकी संख्या किसानो जितनी हैं। बैंकर इस्टैब्लिशमेंट के पार्ट हैं, एंटी-एस्टाब्लिशमेंट तरीके नहीं अपना सकते। बैंकर बनने के लिए बहुत लोग कतार में बैठे हैं।
SBI PO की 2000 सीटों के लिए बीस लाख लोग फॉर्म भरते हैं। हमारा रिप्लेसमेंट बहुत आसान है। किसान बनने के लिए कितने लोग लाइन में हैं? आप पचास करोड़ किसानों को रिप्लेस नहीं कर सकते। बैंकर एकजुट होकर वोट दें तो भी एक आदमी को MP नहीं बना सकते। किसान पूरे देश के चुनाव का रुख तय करते हैं।
बैंकरों की असली लड़ाई सरकार से नहीं है। हमारी असली लड़ाई अपने यूनियनों से है। राष्ट्रीय स्तर पर लड़ने का काम यूनियन ही कर सकती है। उनके पास कानूनी ताकत है। सोशल मीडिया पर हम बाकी बैंकर और जनता को अपनी समस्यों से अवगत करते हैं।