कुछ काम से शहर से बाहर जाना पड़ा, घर पहुंचने में देरी हुई। रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे और सूनसान रास्ते पर बाइक बंद हो गई। सोचा कि किसी सेफ जगह पर बाइक पार्क कर पैदल घर चला जाऊंगा। तब तक बाईक खींचने के अलावा कोई चारा नहीं था। फ़रवरी महिने में ठंड कम हो रही थी और…
…और बाईक खींचने के कारण पसीना भी छूट रहा था। इयरफोन में मोहम्मद रफी का गाना चल रहा था तभी पीछे से आवाज आई “बाईक बंद हो गई है क्या?” पीछे मुड़कर देखा तो एक करीबन चालीस साल का आदमी बीड़ी फूंकते हुए बेफिक्र सा आ रहा था। सोचा कि यह भी सही है, बातें करते हुए रास्ता कट जाएगा। लेकिन…
वह कुछ ज्यादा ही बातूनी प्रतीत हो रहा था। उसने कहा कि दो किलोमीटर आगे सरकारी अस्पताल के पास ही रहता है और वहां रात में बाइक पार्क किया जा सकता है। मैं बाईक खींच रहा था और वह थोड़ा पीछे चल रहा था। सामने पुराने सरकारी अस्पताल की इमारत दिख रही थी…
अस्पताल का नया बिल्डिंग बनने के बाद इस इमारत को छोड़ दिया गया था। मैंने पूछा “खंडहरनुमा इमारत के पास विरान इलाके में तुम रहते हो?”

उसने कहा “नहीं, मैं अकेला नहीं रहता। वहां काफी लोग रहते हैं। आइए तो सही, मैं सबसे आपकी मुलाकात कराता हूं।”
इमारत की पिछली साइड इशारा करते हुए उसने इशारा करते हुए कहा “वहां ले लीजिए।”

उस जगह अंधेरा था सो मैंने मोबाइल बैटरी ऑन कर दी। वो बातूनी आदमी बोले जा रहा था। अनायास ही बाइक के मिरर में नज़र पड़ी तो पीछे कोई नहीं था।
मैंने झटके से पीछे मुड़कर देखा। वो वहीं था। उसने कहा “आगे मोर्चरी के पास बाइक पार्क कर दीजिए, मेरा परिवार वहीं रहता है।”

(क्रमशः)
एक इन्सान जो मुझसे बात तो कर रहा था लेकिन मिरर से गायब था। यह बडी ही अजीब सी बात थी। मैं कुछ सोच पाता तब तक हम अस्पताल के कंपाउंड में पहुंच चुके थे। सामने मोर्चरी के दरवाजे पर उसका परिवार खड़ा था।

शवगृह के पास पहुंचते ही मैंने ज़मीन की सतह पर अपने पैरों में ठंडक महसूस की…
मोर्चरी के सामने माहौल कुछ अजीब सी उदासी से भरा हुआ था। उसके परिवार के सदस्यों के चेहरे शून्य भाव से मेरी ओर देख रहे थे। शायद वह लोग कहना चाहते थे कि अमावस्या की रात में इस वक्त मुझे वहां नहीं होना चाहिए था। मैं अभी भी स्थिति समझने का प्रयास कर रहा था। »»
उस बातूनी आदमी की वृद्ध माता, पत्नी और दो संतानें… वह सभी पाषाणवत् खड़े थे। मोबाइल बैट्री की रौशनी में उसने सब की पहचान कराते हुए कहा “यह मेरी पत्नी प्रभा, बेटा दीपक और बेटी…”

उसके परिचय देने से पहले ही मेरे मुंह से अनायास शब्द फूट पड़ा “प्रेरणा…”
हां, वह दस वर्ष की बच्ची प्रेरणा ही थी। मैंने उसे पहचान लिया था। बीस साल पहले वह मेरी क्लासमेट थी। हम अच्छे दोस्त थे, लंच में टीफिन भी शेयर करते थे। लेकिन…लेकिन… इन सभी बातों को बीस साल बीत चुके थे। बीस साल पहले क्या हुआ था? मैं दिमाग में दफ्न स्कूल की यादों को खंगाल रहा था। »»
प्रेरणा क्लास की टॉपर थी। उसकी मुस्कान मुझे बहुत अच्छी लगती थी। एक एक कर यादों की परतें खुलती रहीं… उसके पिता को ट्रेडिंग में काफी नुकसान उठाना पड़ा, वह बच्चों के स्कूल की फीस भी नहीं जमा करा पा रहे थे। और एक दिन उन्होंने आत्यंतिक कदम उठाया। बीस वर्ष पहले…
उन्होंने अपने पूरे परिवार को मौत के घाट उतार दिया और खुदकुशी कर ली। स्कूल में इस घटनाक्रम की चर्चा कितने ही दिनों तक चलती रहीं थीं। बिजली की गति से यह सभी यादें मेरे मानसपटल पर गुजर गईं।‌ समझने में देर नहीं लगी कि मेरे सामने जो परिवार था वह वास्तविक होते हुए भी अवास्तविक था…
वह सभी पात्र मृत व्यक्तियों की उर्जा मात्र थे। पूरा परिवार ख़त्म होने के बाद शायद इन लोगों की लावारिश लाशों ने इस मोर्चरी में लंबा समय बिताया था और अंतिम कर्म-क्रिया के अभाव में यह असंतुष्ट अतृप्त आत्माएं आज भी मोर्चरी में विचरण कर रहीं थीं। क्या इन्हें मुक्ति की प्रतीक्षा थी? »
उनके दयनीय चेहरे देख कर मुझे ऐसा महसूस हो रहा था मानो अपराधी पिता की शक्तियों ने बाकी परिवारजनों की मुक्ति को रोक रखा था…
विचारप्रवाह टूटा, वास्तविकता यही थी कि मैं कुछ विचित्र शक्तियों के बीच खड़ा था। प्रेरणा के पिता ने कठोर आवाज से कहा “स्ट्रेचर ले आओ… नया मृतदेह आ गया है।” मोर्चरी से दो लोग स्ट्रेचर घसीटते हुए ला रहे थे और उसके जंग लगे पहियों की चरचराती आवाज मेरे भयभीत हृदय को चीरती जा रही थी…
मैंने महसूस किया कि आस-पास अनेकों परछाइयां मंडरा रही थीं। अब यहां से भागने का प्रयास करना व्यर्थ था। बेमौत मारा गया निर्दोष परिवार मेरी ओर शून्य दृष्टि से देख रहा था। अजीब धीमा सा कोलाहल सुनाई दे रहा था। मैं चिल्लाना चाहता था लेकिन मेरे स्वर मेरे गले में ही रुंध गए…

(क्रमशः)
भागना चाहता था लेकिन मेरी चारों ओर साये मंडरा रहे थे। उन लोगों के चेहरे आहिस्ता आहिस्ता सफेद दूध से रंग में परिवर्तित होते जा रहे थे। संवाद समाप्त हो चुका था। मोर्चरी परिसर में गतिविधियां तेज होती जा रही थीं। भयभीत होने के बावजूद मैं दिमाग को शांत रखने का प्रयास कर रहा था।
मुख्य मार्ग से स्ट्रीट लाइट का आभासी प्रकाश आ रहा था लेकिन वहां वाहन-व्यवहार शून्य था। शहर सो चुका था। अमावस्या की रात्रि होने के कारण उन लोगों के सफेद पड़ चुके चेहरे और भी भयानक प्रतीत हो रहे थे। क्या करुं? पलायन करना असंभव था। बाहर से किसी की सहायता प्राप्त होना भी मुश्किल था।
कोलाहल बढ़ते बढ़ते शोर में परिवर्तित हो चुका था। प्रेतों की भीड़ मेरे इतने करीब आ चुकी थी कि मैं उनकी आंखों में क्रूरता भी मैं स्पष्ट देख पा रहा था। महिला प्रेतों के बिभस्त हाव-भाव और उनके गमगीन चित्कारों ने एक जुगुप्सा जनक माहौल बना दिया था।
मृत्यु निश्चित थी, रक्तचाप बढ़ रहा था। मैंने कभी सोचा नहीं था कि जीवन का अन्त इस तरह होगा। अन्तिम क्षणों में मैं अपने इष्ट देव और माता-पिता को स्मरण कर रहा था। घर पर माता-पिता मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, मेरे मृत्यु की खबर से उन पर क्या गुजरेगी यह सोच कर मेरा दिल बैठा जा रहा था।
स्ट्रेचर मेरे ठीक पीछे था। किसी ने स्ट्रेचर को धक्का दिया और वह मेरे पैरों से टकराया। संतुलन गंवाते हुए मैं उसपर गिर पड़ा। जब तक मैं अपने पैरों पर खड़ा था इन शक्तियों ने मुझसे दूरी बनाए रखी थीं लेकिन जैसे ही मैं असंतुलित हुआ इनका मनोबल बढ़ गया।
मैं संभल पाता उससे पहले बिखरे लंबे केश में एक आकृति मेरे सीने पर चढ़ गई और उसने दोनों हाथों से मेरा गला भिंच दिया। मेरे हाथ-पैर पक्षाघात से जड़ हो गए। अपने ही परिवार का हत्यारा बातूनी आदमी दूर खड़ा अट्टहास कर रहा था। प्रेरणा की आंखें उसी निर्दोष करूणा से मेरी अवदशा देख रही थीं।
अब मैंने बचने की उम्मीद छोड़ दी थी तभी मेरी जीन्स के पॉकेट से मोबाइल रिंगटोन बजने लगी…

अयि गिरि नन्दिनी नन्दितमेदिनि
विश्वविनोदिनि नन्दिनुते।
गिरिवर विन्ध्यशिरोधिनिवासिनी
विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते।
डरावने चित्कारों को चीर कर एम एस सुब्बुलक्ष्मी की मधुर आवाज़ गूंजने लगी…

…भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि
भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते।
घर पहुंचने में देरी हुई थी, पिताजी फोन कर रहे थे। और रिंगटोन में महिषासुरमर्दिनी स्तोत्र का पाठ शुरू होते ही प्रेतों के चेहरों पर भय व्याप्त हो गया। भयानक चीख़ों का स्थान लयबद्ध सुरों ने ले लिया। वह क्रूर शक्तियां मुझे जीवित जाने देना नहीं चाहतीं थीं लेकिन…
लेकिन अब मुझे संभलने का अवसर मिल गया था। मैं भी महिषासुरमर्दिनी स्तोत्र का उच्चारण करने लगा। सभी आकृतियां स्ट्रेचर से परे हो गई। मैं उठा, भागने लगा। वह सभी अपने अपवित्र शक्तियों के प्रयोग से मुझे रोकने का प्रयास करतीं रहीं, लेकिन उनके प्रभाव की सीमा को लांघने में मैं सफल हो गया…
मोर्चरी से भागते हुए मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो प्रेरणा की निर्दोष आंखों में मुझे एक अजीब सी विवशता का आभास हुआ… मैं बच निकला था लेकिन वह निर्दोष परिवार बीस वर्षों से उन क्रूर शक्तियों के चंगुल में फंसा हुआ था। उनके लिए मुक्ति का मार्ग इतना आसान नहीं था… वह निर्दोष आंखें…
अस्पताल का गेट पार कर मैं मुख्य मार्ग पर आ चुका था। यहां रौशनी थी और मुक्त हवा में श्वास लेने की स्वतंत्रता भी थी। मुक्ति और बंधन का महत्व मैं समझ चुका था। मैं मुक्त था और प्रेरणा का परिवार बंधक था।‌ इस रात मेरा यहां होना संयोग नहीं था, इस रात मेरा जीवित बच निकलना संयोग नहीं था…
वर्षों तक उस मोर्चरी में अनेकों मृतदेहों की ऑटोप्सी हुई होगी। अकस्मात, हत्या, आत्महत्या और प्राकृतिक मृत्यु जैसे किस्सों में वहां कितने ही देहों को चीरफाड़ किया गया होगा। आज एकांत में खड़ी उस मोर्चरी की की इमारत में उन सभी अतृप्त आत्माओं का वास था लेकिन…
…लेकिन प्रेरणा वहां क्यूं थी। वह मात्र दस वर्ष की थी। पाप पुण्य से परे, जीवन से भरी एक मृत लड़की… वर्षों से वहां क्रूर शक्तियां उसे कितनी यातनाएं दे रही होंगी…

लेकिन उसे मुक्ति दिलाना मेरा कर्तव्य नहीं था…
लेकिन वह निर्दोष आंखे… मैं वापस वहां जाऊंगा… जरूर जाऊंगा!

क्रमशः
थका-हारा मैं घर पहुंचा। सुबह होने को थी। तीन कप चाय पी चुका था। रातभर नींद नहीं आई। मस्तिष्क में विचारों का दावानल जल रहा था। मैं बार-बार अपने हृदय को समझाता रहा कि प्रेरणा और उसके परिवार के प्रति मेरी कोई जवाबदेही नहीं थी। लेकिन…
…लेकिन रात में मेरा वहां होना कोई संयोग नहीं था। किन्हीं अज्ञात कारणों से मैं वहां पहुंचा था। किन्हीं अज्ञात कारणों से मैंने वह सब देखा था। किन्हीं अज्ञात कारणों से मैं वहां से बच निकलने में सफल हुआ था… कारण अज्ञात नहीं था… शायद मुझे चुना गया था इस कार्य को पूरा करने के लिए…
रात में एक क्षण भी सो नहीं पाया। रोज़मर्रा की तरह ओफिस पहुंच कर बैकपेक से लैपटॉप निकाला। लेकिन बैकपेक से लैपटॉप के साथ एक नोटबुक भी बाहर सरक आई। ब्राउनपेपर में लिपटी नोटबुक पर नाम, स्टैंडर्ड, क्लास और स्कूल का स्टीकर लगा हुआ था। स्टीकर पर बार्बी डॉल का गुलाबी चित्र…
नोटबुक के स्टीकर पर डिटेल में लिखा था…

Name : Prerna Vyas
Std : 4 (A)
School : Little Flowers School

नोटबुक मेरे हाथ में थी, मेरे हाथ कांप रहे थे।

»»
मैं इन handwritings को पहचानता था। कल रात के घटनाक्रम में प्रेरणा ने अपनी होम-वर्क नोटबुक मेरे बैक-पेक में सरका दी थी। वह क्या संकेत देना चाहती थी?

मैंने नोटबुक के पन्ने पलटना शुरू किया। पहले पेज पर उसका नाम और पता लिखा था। आधा नोटबुक में होमवर्क से भरा हुआ था और…
आखरी होमवर्क की तारीख थी, २३ फरवरी, 2001। इसके बाद नोटबुक में कुछ भी नहीं था, बस कोरे पन्ने थे। कुछ देर तक नोटबुक का मुआयना करने के बाद मैंने उसे फिर से बैग में रख दिया। रात में शुरू हुआ किस्सा एक नये रहस्य पर आ रूका था… यह नोटबुक मेरे बैग में क्यों थी?
सर दर्द से फटा जा रहा था। दोपहर होते-होते मेरे लिए ओफिस में बैठ कर काम करना मुश्किल हो गया।‌ बहाना बना कर मैं वहां से निकल गया।‌ मैं घर जा कर सोना चाहता था। मेरे शरीर को आराम की जरूरत थी। नोटबुक बैक-पेक में रखने से पहले मैंने फिर से एक बार उसके पहले पृष्ठ पर लिखा पता पढ़ा और…
बाईक कल मोर्चरी पर छोड़ आया था। ऑटोरिक्शा को आवाज दी, उसने पूछा ‘कहां जाएंगे?’

अनायास ही मैंने नोटबुक में लिखा पता बोल दिया… मैं वहां क्यूं जा रहा था? नहीं जानता था। »
ऑटोरिक्शा सोसाइटी तक पहुंचा, रिक्शे वाले ने नुक्कड़ पर लगे ठेले वाले से पूछा “ब्लोक नंबर 26 कहां पड़ता है?”

ब्लॉक नंबर 26 सुनते ही ठेले वाले के चेहरे पर भाव ऐसे बदले मानो उसे बिजली का झटका लगा हो… उसने हमारी ओर विचित्र दृष्टि से देखा और कहा “सीधी गली में आखरी मकान”
मकान? हां वह मकान ही था, उसे घर नहीं कहा जा सकता। किराया चुका कर मैंने उस मकान के परिसर में प्रवेश किया…

सोसाइटी के कोने में स्थित यह मकान एक तरह से खंडहर में परिवर्तित हो चुका था। धुल और मकड़ी के जाले जमे हुए थे। घर में प्रवेश करना मुश्किल था। ताले पर ज़ंग लगा हुआ था…
यह सोसाइटी का आखरी मकान था‌‌। वर्षों से बंद पड़ा मकान अपने आप में भूताहा प्रतीत होने लगता है। मैं घर के पिछले हिस्से में पहुंचा। कंपाउंड वॉल की दूसरी ओर छोटी सड़क जा रही थी और सड़क के सामने वाले छोर पर बडा सा बॉर्ड लगा हुआ था, जिसपर लिखा हुआ था “थावरपुर मुक्तिधाम”
मकान में प्रवेश करना मुश्किल था। कंपाउंड वॉल फांद कर मैं दूसरी ओर कूद गया। सामने थावरपुर मुक्तिधाम का श्मसान था और उसके पीछे एक छोटा सा शिवमन्दिर… धूप बढ़ रही थी, मैंने शिवमन्दिर परिसर में प्रवेश किया… सोसाइटी से शिवमन्दिर तक सन्नाटा पसरा हुआ था…
वहां कोई भी ऐसा नहीं था जिससे कुछ जानकारी जुटाई जा सके… शिवमन्दिर और श्मसान के बीच में एक वृद्ध आदमी बीड़ी फूंकते हुए बैठा था। मैं उसके करीब पहुंचा, फटेहाल आदमी को मेरे वहां होने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था लेकिन जैसे ही मैंने उसे सामने वाले ब्लॉक नंबर 26 के बारे में पूछा…
उसके चेहरे पर क्रोध की रेखाएं उभरीं… दुत्कार भरे भाव से उसने मुझे वहां से भगाने का हर संभव प्रयास किया लेकिन उसकी प्रतिक्रिया से साफ़ था कि वह उस घर में घटित घटनाओं के बारे में जरूरत से ज्यादा ही जानकारी रखता था। मैंने हार नहीं मानी…
जब हर प्रयास विफल हो गया तब मैंने उससे कहा कि प्रेरणा मेरी दोस्त थी और उसी ने मुझे यहां आने के संकेत दिए थे… जैसे ही मैंने कल रात का घटनाक्रम उसे सुनाया, वह पसीने से लथपथ हो गया… उसका क्रोध आंसूओं में परिवर्तित हो गया। वह फूट-फूट कर रोने लगा… यह प्रायश्चित के आंसू थे…
इसके बाद उसने जो कुछ भी कहा वह मेरे लिए पूरी तरह से अनपेक्षित था। श्मसान के सामने स्थित मकान असाधारण था और उसमें घटित दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का रहस्य यह वृद्ध जानता था। एक हंसते-खेलते परिवार की सामुहिक हत्या अकारण नहीं थी…

(क्रमशः)
'90 के दशक में उदारीकरण की आंधी ने शहरों का विस्तार किया। रोजगार की तलाश में देहात से लोग शहरों की ओर पलायन करने लगे।‌ इसी दौर में सरहदी खेतों को बड़ी संख्या में खरीद लिया गया। लहलहाते खेतों पर कांक्रीट के जंगल बना दिए गए और इसी कालखंड में हरीराम ने अपना खेत बेच दिया। »»
सात गांवों की शमशान भूमि के सामने हरीराम का खेत था और इसी खेत और श्मशान भूमि के बीच एक शापित बरगद का पेड़ था। यह पेड़ शापित था क्योंकि इस पर एक भयावह जिन्न का कब्जा था। पेड़ काट दिया गया और वहां जो मकान बना उसका ब्लॉक नंबर था 26…
मेरे सामने पश्चाताप से भरा आक्रंद हुआ वृद्ध वही किसान हरीराम था। उसने धन की लालच में उस शापित भूमि का सौदा कर दिया था। उस वृद्ध ने मुझे बताया कि प्रेरणा के पिता पहले बड़े ही सरल स्वभाव के थे लेकिन जिन्न द्वारा वश में किए जाने के बाद उनके स्वभाव में आमूलचूल परिवर्तन आ गया था। »»
ब्लॉक नंबर 26 के सामुहिक हत्याकाण्ड के बाद हरीराम भी अपने कर्मों का फल भोग चुका था। उसकी संतानों ने उसे त्याग दिया था। श्मशान घाट में साफ-सफाई का काम कर वह अपने बाकी बचे दिन बिताने का प्रयास कर रहा था। »»»
शाम ढल चुकी थी। शिवमन्दिर में घंटारव की मंद ध्वनि सुनाई दे रही थी। मैं मन्दिर में पहुंचा, संध्या आरती के बाद लोग जा चुके थे और मैं शून्यमनस्क वहां खड़ा था। जब मैं विचार-शून्यता से बाहर आया तब मन्दिर के पण्डित जी मेरी ओर मुस्कुराते हुए खड़े थे। »»
जब मैंने पिछले बीस घंटों में घटित घटनाओं का ब्योरा पण्डित जी को दिया तब उन्होंने वही शांत भाव से कहा “मृतकों की मुक्ति के लिए आवश्यक उनके गोत्र एवं जन्म तिथि की जानकारी उनके घर से प्राप्त की जा सकती है। हत्याकांड के बाद उस शापित घर में कोई भी नहीं गया था।”
मृतकों की मुक्ति के लिए जरूरी विधियों में आवश्यक जानकारी के बिना विधियां संभव नहीं थीं और यह जानकारी प्राप्त करने के लिए उस घर में प्रवेश करने के अलावा कोई और उपाय नहीं था…
पण्डित जी ने मुझसे पूछा “जिस घर पर जिन्न का साया है वहां प्रवेश करने का साहस कौन करेगा? उस परिवार की मुक्ति के लिए आवश्यक जानकारी जुटाने के लिए क्या तुम अपनी जान को दांव पर लगा सकते हो?”

(क्रमशः)
आरती के बाद पण्डित जी ने जाने से पहले उन्होंने मुझसे एक महत्वपूर्ण बात कही।

मेरे सामने दो ही विकल्प थे। वापस चला जाता तो भी मुझसे पूछने वाला कोई नहीं था लेकिन मैंने मुश्किल विकल्प चुना। श्मशान के गेट पर बैठे हरीराम को अपना बैग थमा कर मैं ब्लॉक नंबर 26 की कंपाउंड वॉल फांद गया…
मकान बन्द था, मैं अंदर घुसने का उपाय ढूंढने लगा। अंधेरे एकांत में वह त्यक्त घर का मंज़र किसी को भी डराने के लिए काफी था। मैंने पाया कि घर के पिछले हिस्से में स्थित पेड़ से पहली मंजिल की बालकनी में उतरा जा सकता है। एनसीसी की ट्रेनिंग का सही उपयोग इसी समय किया जा सकता था…
जैसे ही मैं पेड़ के नीचे पहुंचा कोई रेंगता हुआ भारी जानवर मेरे पैरों से लिपट गया। अंधेरे में कुछ देख पाना संभव नहीं था। मैंने पैरों को जोर से झटक दिया। दो तीन बार पैर झटकने के बाद वह चीज सरक कर जाती रही लेकिन उसके होने का अहसास मेरे पैरों पर बना रहा, शायद…
मुझे लगा कि शायद वह जीव मुझे घर के अंदर स्थित खतरे से चेताना चाहता था। वह एक छोटा सा पेड़ था। जैसे जैसे मैं ऊपर चढ़ता गया, बाल्कनी का द्रष्य मेरी नज़रों के सामने स्पष्ट होता गया। श्मशान घाट के गेट पर लगी स्ट्रीट लाइट की धीमी रौशनी में बालकनी का बंद दरवाजा दिख रहा था। »»
जैसे ही मैं बालकनी में उतरा मेरा सर छत से झूल रही विंड चाइम्स से टकराया। धूल से सनी फर्श पर मेरे जुते निशान छोड़ रहे थे। सामने दीवार पर भगवान बुद्ध की तस्वीर थी लेकिन बुद्ध के चेहरे से शांत सौम्य भाव का अभाव प्रतीत हो रहा था। »»
चारों ओर शांति पसरी हुई थी। मैं बालकनी के दरवाजे की ओर आगे बढ़ा। अंदर से बंद दरवाजा खोलना किसी भी तरह से संभव नहीं लग रहा था लेकिन जैसे ही मैंने हैंडल पर थोड़ा सा जोर लगाया वह मेरे हाथ में आ गया। दीमक ने लकड़ी के दरवाजे को खा लिया था। बीस वर्ष कम समय नहीं होता…
हल्की सी लात मारते ही बाल्कनी का दरवाजा ढह गया। अंदर इतना अंधकार था कि कुछ भी नहीं दिख रहा था। मैंने टॉर्च ऑन करने के लिए जेब से मोबाइल फोन निकाला और स्क्रीन पर देखते ही पाया कि बैट्री 7% ही बची थी। मैंने सोचा कि जल्दी से मृतक परिवार के बारे में जानकारी जुटा कर निकल जाऊंगा।
जैसे ही मोबाइल टॉर्च ऑन किया कमरे में प्रकाश फैला, मैं कुछ समझ पाता उससे पहले एक आकृति सामने कुर्सी से उठ कर त्वरा से पास वाले कमरे में चली गई। कौन था वह? पलक झपकते ही वह अदृश्य हो गई। यह काम मैंने सोचा था उससे ज्यादा भयानक प्रतीत हो रहा था। »»»
मैंने सोचा यदि मृतकों की जन्म-पत्रिका प्राप्त हो जाए तो मेरा काम आसान हो जाएगा। जन्म पत्रिका कहां हो सकती है? शायद पूजा स्थान के पास में या मृतक दादी के कमरे में… कैसे ढूंढ़ा जाए? मोबाइल बैट्री 6% हो चुकी थी। बैट्री बचाने के लिए मैंने उसका डेटा (इंटरनेट) बंद कर दिया…
प्रथम मंजिल पर कोई पूजा स्थान नहीं था, मैंने अनुमान लगाया कि वृद्ध दादी का कमरा भी भूमितल पर होना चाहिए। पासेज से सीढ़ियां उतर कर नीचे पहुंचा। धुल और मकड़ी के जालों ने घर पर कब्जा जमा लिया था। »»»
ग्राउंड फ्लोर का दृश्य ज्यादा विचलित करने वाला था। सामान से खचाखच भरे कमरों में ज़रुरी चीज़ ढूंढना असंभव था। तभी मैंने एक कमरे में बिस्तर के नीचे पुरानी लोहे की पेटी देखी, यह दादी की पेटी हो सकती थी। कभी कभी आशा की एक मात्र किरण मनुष्य को जोश से भर देने के लिए काफी होती है…
मैंने कमरे में प्रवेश किया। इस कमरे में एक विचित्र प्रकार की गंध फैली हुई थी। मैंने महसूस किया कि मेरे पीठ पर, कंधों पर, बांहों पर, पैरों में कोई हल्के हाथों से स्पर्श किए जा रहा था। यह कोई एक हाथ नही था, अनेकों हाथ मुझे छू कर मेरी उस स्थान पर मौजूदगी को चुनौती दे रहे थे।
कमरे की चारों तरफ दीवारें काली पड़ चुकी थीं। यह विचित्र बात थी क्योंकि पूरे मकान में सिर्फ इसी कमरे की दीवारों पर कालिख थी। क्या हुआ था इस कमरे में? सोचते ही मेरी आत्मा कांप उठी। मोबाइल बैट्री 2% बची थी…
मैंने झुक कर लोहे का पिटारा आगे लिया और उठा कर उसे बिस्तर पर रख दिया। भारी भरकम पिटारा छोटी-बड़ी अनेक वस्तुओं से भरा हुआ था। मैंने छानबीन शुरू की, बैट्री 1% पर अपनी अंतिम सांस ले रही थी। मैंने गति बढाई। एक कपड़े की पोटली हाथ लगी, जैसे ही मैंने उसे खोलने का प्रयास किया…
जैसे ही मैंने पोटली खोलने का प्रयास किया किसी विचित्र शक्ति ने मुझे जकड़ लिया। वहां कोई हाथ नहीं थे ना ही कोई शरीर। बस एक धीमी सी आवाज थी। फुसफुसाते हुए वह मेरे कानों में कुछ कह रही थी लेकिन फारसी भाषा के शब्दों को समझ पाना मेरे लिए मुश्किल था… मैंने पीछे मुड़कर देखा…
…उसका शरीर नहीं था लेकिन चेहरा था, मोबाइल टॉर्च की रोशनी में मैंने उसे देखा। उसने मुझे इतनी शक्ति से भिंचा हुआ था कि मैं सांस भी नहीं ले पा रहा था और अगले ही पल मोबाइल बैटरी ने दम तोड दिया। कमरे में अंधेरा छा गया…

(क्रमशः)
एक ही क्षण के लिए मैंने वह चेहरा देखा, उसकी क्रूरता से भरी आंखों में खून की लाल रगें और गन्दे दांतों से आ रही दुर्गंध।

कपड़े की पोटली में जरुर कुछ ऐसा था जिसे वो शक्ति मेरे हाथ में लगने देना नहीं चाहती थी। उसकी जकड़ से छूटना नामुमकिन सा लग रहा था तभी…
… तभी मेरे नाखून से पुराने जर्जरित कपड़े की पोटली फट गई। अंदर रखी चीज को गिरने से बचाने के चक्कर में मैंने उसे कस कर पकड़ लिया।

हाथापाई के दौरान अंधेरे में वह चीज लोहे के पिटारे से टकरा गई। दो धातुओं के घर्षण से कुछ चमकदार चिंगारियां निकलीं… और…
क्षणभर में उस जिन्न ने अपनी पकड़ ढीली कर दी। मैं मुक्ति का श्वास लेना चाहता था।

मकान के बाहर सूर्योदय हो रहा था। वेंटिलेटर से रौशनी की कुछ किरणें कमरे में प्रवेश कर रहीं थीं।

तभी वो मेरे सामने आया, घुटनों पर नतमस्तक हो कर बोला… “मेरे मालिक… तीन ख्वाहिशें… तीन ख्वाहिशें…”
मैंने देखा कि मेरे हाथ में कपड़े की फटी हुई पोटली से एक चिराग झांक रहा था। वह शयतानी ताक़त मेरे वश में आ चुकी थी। इस ताकत का फायदा उठाना ही समझदारी थी।

उसने फिर से अपनी कर्कश आवाज में दोहराया

“मेरे मालिक… तीन ख्वाहिशें… तीन ख्वाहिशें… चौथी ख्वाहिश - मौत।”
मतलब साफ था। वह मेरी तीन आज्ञाएं मानने वाला था। लेकिन चौथी ख्वाहिश मौत का मतलब क्या था?

क्या प्रेरणा के पिता ने यह चिराग प्राप्त कर लिया था? क्या उन्होंने लालच के अतिरेक में और चौथी ख्वाहिश के बदले में मौत को गले लगाया था? »»
मेरे रोंगटे खड़े हो गए लेकिन यह समय स्थिति को समझने का था, यह समय स्थिति को संभालने का था।

मैंने उससे पहली ख्वाहिश के बदले में मृतकों की जन्म-पत्रिका मांग ली। जन्मपत्रिका और चिराग को जेब में रखते हुए मैं वहां से निकल गया। »»
अभी भी मेरे पास दो ‘ख्वाहिशें’ बाकी थीं। इनके उपयोग से मैं अपने बिस्मार घर और आर्थिक स्थिति को संतुलित कर सकता था।

मेरी आंखों के सामने संघर्षमय जीवन का अंत और सुखमय भविष्य के स्वप्नों के चित्र बनने लगे। मैंने सोचा कि इसके बाद चिराग को कहीं दफ़न कर दूंगा…
सुबह में मंदिर के द्वार खुलते ही मैंने पण्डित जी से संपर्क किया। मृतकों की पत्रिकाएं देख कर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने प्रेरणा के परिवार की मुक्ति के लिए श्राद्धकर्म तथा तर्पण का सुझाव दिया।

प्रेरणा के परिवार में कोई हयात नहीं होने की स्थिति में यह कार्य मुझे ही करना था।
उन्होंने कहा “जो जीवात्मा भूख-प्यास, राग, क्रोध, द्वेष, लोभ, वासना जैसी इच्छाएं लेकर मरा है वह प्रेतात्मा बनकर भटकता है। जो व्यक्ति दुर्घटना, हत्या, आत्महत्या जैसी अकाल मृत्यु से मरा है उसे भी मुक्ति नहीं मिलती। ऐसी प्रेतात्माओं की मुक्ति के लिए श्राद्ध तथा तर्पण किया जाता है।” »
मैंने पूछा “मुक्ति का अर्थ क्या है?”

“जब जीवात्मा यह शरीर छोड़ कर दूसरा शरीर धारण कर लेता है अथवा जब उसकी आत्मा को मोक्ष प्राप्त हो जाता है तब उसे मुक्ति कहते हैं। जिन्हें मुक्ति नहीं मिलती वह अपनी ही अतृप्त वासनाओं की तृप्ति की चाहत में भटकते रहते हैं।”
उनकी बातों ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया। इस विधि के बाद प्रेरणा का परिवार मुक्तिको प्राप्त कर लेगा लेकिन मोर्चरी में भटक रही अनेकों प्रेतात्माओं का क्या?

उन आत्माओं से मेरा कोई संबंध ना होते हुए भी लावारिस और अकाल मृत्यु का शिकार बनी उन आत्माओं को मुक्ति दिलाना मेरा कर्तव्य था।
मैंने फिर से एक बार चिराग का प्रयोग किया और मोर्चरी में भटक रही प्रेतात्माओं के विषय में जानकारी प्राप्त कर ली। अब मेरे पास बस एक ‘ख्वाहिश’ बची थी। »»»
दूसरे दिन सुबह नदी के तट पर स्थित घाट पर तर्पण विधि का प्रारंभ हुआ। पण्डित जी मृतकों के नाम से पिण्ड नदी की ओर आगे करते और नदी में से मृतक हाथ उठाकर उसे स्वीकार करते…

*पिण्ड दान का विधि को इसी तरह वर्णित किया गया है।
सभी मृतकों की मुक्ति के बाद प्रेरणा के पिता का पिण्ड नदी की ओर बढ़ाया गया लेकिन इस बार नदी से कोई हाथ उसे स्वीकार करने के लिए आगे नहीं बढ़ा…

प्रेरणा के पिता की आत्मा जिन्न के वश में थी, जिन्न उसे किसी भी स्थिति में मुक्त करना नहीं चाहता था।
मैंने तीसरी और अंतिम ‘ख्वाहिश’ का उपयोग करते हुए जिन्न को आदेश दिया… प्रेरणा के पिता की प्रेतात्मा भी शयतान के चंगुल से मुक्त हुई… विधि संपन्न कर के हम वापस लौटे। »»
अब चिराग मेरे लिए किसी काम का नहीं था। प्रेरणा के पिता ने जो गलती की थी उसे मैं दोहराना नहीं चाहता था। शिवमन्दिर के पिछले हिस्से में चिराग़ को दफनाने के बाद मैंने राहत की सांस ली… अब वह जिन्न किसी को परेशान नहीं कर सकता था।
अडतालीस घंटों के अथाक परिश्रम से मेरा शरीर थक चुका था। पाप-पुण्य, बंधन-मुक्ति और सत्-असत्य की व्याख्याएं पुस्तकों से निकल कर वास्तविकता में चरितार्थ हो चुकी थीं।

अनिश्चितता से भरे जीवन का अंत भी अनिश्चितताओं से घिरा होता है।
कभी कभी स्कूल में शेयर किए गए टिफिन-बॉक्स का ऋणानुबंध भी आत्मा की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने में सहायक बन जाता है।

निस्वार्थ भाव से की गई कोई भी मदद कभी व्यर्थ नहीं जाती, मृत्यु के बाद भी आत्मा को अपने सत्कर्मों का परिणाम मिलता ही है। »»
घर पहुंच कर बेकपैक से मैंने प्रेरणा की नोटबुक निकाली और उसके पन्ने पलटने लगा। आश्चर्यजनक रूप से पूरी नोटबुक ब्लैंक थी… बस उसके अंतिम पन्ने पर टूटे-फूटे शब्दों में एक ही वाक्य लिखा था “Thank you!”

• • •

Missing some Tweet in this thread? You can try to force a refresh
 

Keep Current with प्र मे य 🌈

प्र मे य 🌈 Profile picture

Stay in touch and get notified when new unrolls are available from this author!

Read all threads

This Thread may be Removed Anytime!

PDF

Twitter may remove this content at anytime! Save it as PDF for later use!

Try unrolling a thread yourself!

how to unroll video
  1. Follow @ThreadReaderApp to mention us!

  2. From a Twitter thread mention us with a keyword "unroll"
@threadreaderapp unroll

Practice here first or read more on our help page!

More from @wh0mi_

2 Oct 20
सन 1930 में 384 किलोमीटर की पैदलयात्रा कर गांधीजी दांडी पहुंचे और नमक सत्याग्रह किया यह बात हमें बढ़ा-चढ़ाकर बताई जाती है लेकिन दांडी यात्रा की फलश्रुति क्या है पता है?

अंग्रेजों ने नमक-टैक्स कभी खत्म नहीं किया। 1946 में नेहरू की अंतरिम सरकार बनने तक भारतीय यह टैक्स चुकाते रहे।
गांधी जी की हत्या के तुरंत बाद उनके ही अनुयायियों ने उनकी अहिंसा की विचारधारा को मार दिया।
मोपला नरसंहार, भारतीय राजनीति में तुष्टिकरण का प्रथम अध्याय।
Read 5 tweets
28 Sep 20
खण्डित मंदिरों और मुर्तियों की पूजा नहीं की जाती। हिन्दू धर्म में पवित्रता का महत्व म्लेच्छ जानते थे इसीलिए वे मन्दिरों का विध्वंस करने के बाद गर्भगृह में गौ-वध और ब्रह्महत्या आदि कृत्य करते ताकि फिर से वह मन्दिर पूजा-योग्य ना रहे।
सिर्फ शिवलिंग ही है जिसे खण्डित होने के बावजूद पूजा जाता है। इसका भी कारण है, कभी फुर्सत में चर्चा करेंगे।
अपवित्र किए गए मन्दिर का जिर्णोद्धार नहीं कर सकते। वैसे भी अब यह सभी प्राचीन मन्दिर हमारे लिए कला स्थापत्य की विरासतें बन चुके हैं इसलिए बेहतर होगा अक्षरधाम जैसे नये भव्य मन्दिरों का निर्माण किया जाए।

Read 5 tweets
28 Jul 20
ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण में शुन:शेपाख्यान में हरीशचंद्र के पुत्रप्राप्ति का प्रसंग है। निःसंतान हरीशचंद्र ने संतानप्राप्ति के मोह में वरुण देव का आह्वान किया, वरुण देव ने सशर्त संतानप्राप्ति का वरदान दिया और रोहित का जन्म हुआ लेकिन…
लेकिन वरुण की शर्त के अनुसार पुत्र का चेहरा देखने का मोह पूरा कर रोहित को वापस वरुण को सौंप देना आवश्यक था। हरीशचंद्र यह नहीं कर पाए, क्रोधित वरुण ने राजा को उदर-रोग का श्राप दिया। अब रोहित एक पुख्त पुरुष बन चुका था, उसने लोभी अजीर्गत से सौ गायों के बदले पुत्र शुनःशेप मांग लिया।
विप्रों ने रोहित के बदले शुनःशेप की नरबलि देने से मना कर दिया पर लोभांध अजीर्गत पुत्र वध करने के लिए भी तैयार था। स्थितप्रज्ञ शुनःशेप ने बलिवेदी से उषा-प्रार्थना कर देवताओं को प्रसन्न किया और अपनी प्राण रक्षा के साथ राजा हरिश्चंद्र का उदर-रोग का श्राप भी निर्मूल किया! »»
Read 5 tweets
4 Jul 20
रॉलेट एक्ट, सन 𝟏𝟗𝟏𝟗।

काले कानून के विरोध में गांधीजी ने सत्याग्रह का आह्वान किया। हिंदू, मुस्लिम, सिख सभी समुदायों ने इसमें हिस्सा लिया। गांधीजी का दावा था कि "एक ही वर्ष में देश को स्वतंत्र करा देंगे।" लोग खुशी से झूम उठे और देशभर के बड़े शहरों में आंदोलन शुरू हुआ। »»
बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल और एन्नी बेसेंट ने गांधी की योजना को सिरे से नकार दिया लेकिन गांधीजी बिना आंदोलन किए थोड़े ही मानने वाले थे। कुछ जगहों पर पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच झड़पें हुईं और 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ। »»
आंदोलन की बागडोर संभालने के लिए गांधीजी रेलगाड़ी से दिल्ली/अमृतसर जा रहे थे तब पलवल स्टेशन पर उन्हें उतार दिया गया और इस महापुरुष ने रेलवे स्टेशन की कस्टडी में एक रात बिताई और बैंच पर सोने की 'यातनाएं' भुगतीं। सुबह तड़के उन्हें मुंबई जा रही 'मालगाड़ी' में बिठा दिया गया। »»
Read 5 tweets
22 May 20
वैकुंठ मूर्ति।

विष्णु के चार स्वरूपों को सम्मिलित करती वैकुंठ मूर्ति में मध्य में विष्णु, दोनों ओर नृसिंह और वराह, पीछे की ओर कपिल का मुख दर्शाया जाता है।शास्त्रानुसार यह अष्ट-हस्त है लेकिन आम तौर पर चार हाथ बताए जाते हैं जिनमें शंख, सुदर्शन चक्र, कौमोदकी गदा और पद्म होते हैं। » Image
इस प्रतिमा में वराह सृजन का, विष्णु पालन का और नृसिंह संहार का प्रतिकात्मक चित्रण हैं। एक और मत ऐसा भी है जिसमें चार मुखों को अनुक्रम में वासुदेव, संकर्षण (बलराम), प्रद्युम्न और अनिरुद्ध को व्यक्त करते हैं। »»
आम जनधारणा में वैकुंठ को विष्णु का निवास स्थान माना जाता है लेकिन कुछ जानकारों के मतानुसार वै-कुंठ = जहां कुंठा के लिए स्थान नहीं। विष्णु सहस्रनाम में भी चतुर्मूर्ति का उल्लेख किया गया है। »»
Read 7 tweets
14 May 20
मन्दिरों में प्रतिमा निर्माण से पहले पत्थरों की परीक्षा की जाती है। मयमतम्, अग्नि पुराण और सूत्रधार-मण्डन जैसे ग्रंथों में पत्थरों की जांच के लिए नियम लिखे गए हैं और देवता मूर्ति प्रकरण के अनुसार पाषाण को तीन प्रकार में वर्गीकृत किया जाता है। पुंशिला, स्त्रीशिला और नपुंसक शिला! »
जिस पत्थर से 'गजघंटारवाघोषा' मतलब हाथी के गले में बंधी घंटी जैसी मधुर आवाज उठती है उसे पुंशिला कहते हैं। पुंशिला सम-चोरस होती हैं और देवप्रतिमा तथा शिवलिंग निर्माण में इसका उपयोग किया जाता है। »»
'कांस्यतालसमध्वनिः' कांसे जैसी ध्वनि उत्पन्न करने वाले पत्थरों का वर्गीकरण स्त्रीशिला के रूप में किया गया है, इनका आकार गोल होता है और सूत्रधार-मण्डन के अनुसार देवी प्रतिमा का निर्माण इससे किया जाता है। यह शिला मूल में स्थूल तथा अग्रभाग में कृश होती है। »»
Read 6 tweets

Did Thread Reader help you today?

Support us! We are indie developers!


This site is made by just two indie developers on a laptop doing marketing, support and development! Read more about the story.

Become a Premium Member ($3/month or $30/year) and get exclusive features!

Become Premium

Too expensive? Make a small donation by buying us coffee ($5) or help with server cost ($10)

Donate via Paypal Become our Patreon

Thank you for your support!

Follow Us on Twitter!