थ्रेड: #लोकतंत्र_का_चौथा_खंभा

आजकल ईमानदारी से काम करने का चलन नहीं है। पेशे के साथ ईमानदारी पुराने जमाने की बात हो चली है। हमारे तंत्र में हर व्यक्ति के लिया काम निर्धारित रहता है और उस काम के बदले तयशुदा मेहनताना भी दिया ही जाता है। लेकिन व्यक्ति उससे संतुष्ट नहीं होता।
किसी के पास कोई भी करवाने जाओ तो वो पहले आपने फायदा ढूंढता है। सरकारी ऑफिस में जाओ तो रिश्वत मांगते हैं। बैंक में जाओ तो जबरदस्ती बीमा पालिसी पकड़ा देते हैं। ये खेल पत्रकारिता में भी चल रहा है। दो दिन बैंकों की हड़ताल रही।
बैंकों के निजीकरण के मुद्दे को जब कुछ पत्रकारों के सामने रखा गया तो अलग अलग तरह के रुझान आये। एक सत्तापक्ष के पालतू पत्रकार ने "बैंकरों की भारी मांग" पर बैंकों के निजीकरण के मुद्दे को उठाने की कोशिश की मगर आदत से मजबूत होकर वे सरकार का ही पक्ष पेश करने लगे।
(वैसे तो मुझे संदेह है कि किसी बैंकर ने वास्तव में उनके सामने अपनी मांग रखी हो।)। वैसे भी उनसे कोई उम्मीद थी भी नहीं।
एक दूसरे बेहद क्रन्तिकारी और जबरदस्त फैन फॉलोइंग वाले पत्रकार के पास जब बैंकर गए तो वे अपना अलग ही शुरू हो गए।
पत्रकार साहब ने सीधा सवाल पूछा, "हम तुम्हारा मुद्दा क्यों उठायें?"
"अरे! आपको भी तो मुद्दे चाहिए होते हैं। अब पूरे देश में बैंकों की हड़ताल है तो ये तो आपकी जिम्मेदारी बनती है कि आप लोगों और सरकार को बताएं कि ये हड़ताल हो क्यों रही है?
"मगर लोग तो हमारा चैनल देखते ही नहीं। मैंने पिछली बार तुम लोगों पर कार्यक्रम किया था तो तुम में से कितने लोगों ने देखा था? जब भी मैं सरकार के खिलाफ आवाज उठाता हूँ तो तुममें से कई लोग मुझे भला बुरा बोलते हो।"
"अरे सर, अब एक-एक आदमी का हिसाब थोड़े ही लेकर बैठेंगे कि कौन क्या बोल रहा है क्या कर रहा है? वैसे तो कई बैंकर तो निजीकरण के समर्थन में भी है। यहां मुद्दा बैंकर कम्युनिटी का है। आप मुद्दा उठाइये, बैंकर कम्युनिटी के रूप में आपका साथ देंगे।"
"मैंने देखा है तुम्हारी कम्युनिटी में क्या होता है। तुम्हारे अफसरों के व्हाट्सप्प ग्रुप देखे हैं मैंने। तुम लोग उसमें लिखते हो कि नेहरू मुसलमान है।"
"ये व्हाट्सप्प चैट पढ़ने कि बीमारी आप को कब से लग गयी? सर ऐसी बातचीत तो हर जगह होती है। हर जगह ऐसे लोग होते हैं। इस बात का बैंकों के निजीकरण के मुद्दे से क्या लेना देना? आज सरकारी बैंक, उनके कर्मचारी और खाताधारक संकट में हैं। इस मुद्दे पर बात करिये नहीं तो बहुत देर हो जायेगी।"
"अच्छा, आपको समस्या हो रही है तो आज आये हो हमारे पास, जब फलाने लोग आंदोलन कर रहे थे तब आप कहाँ थे?"
"मतलब? अरे हम बैंक वाले हैं तो बैंकिंग ही करेंगे ना। मुद्दे उठाना तो वैसे भी आपका काम है। सबके मुद्दे हम ही उठाएंगे तो अपना काम कब करेंगे?"
"ऐसा नहीं होता। तुम्हारे मुद्दे उठाने से हमें कोई फायदा नहीं। तुम्हारा ग्रुप छोटा है। इससे न वोट बैंक पर फर्क पड़ता है और न हमें TRP मिलती है। फलाने का ग्रुप बड़ा है। अगर तुम उनके लिए आवाज उठाओगे तो हम तुम्हें थोड़ा सा कवरेज दे देंगे।"
"मगर फलाने के काम के बारे में तो हमें ज्यादा नहीं पता। उनके लिए बोलने वाले बहुत लोग हैं जो उन मुद्दों को जानते और समझते हैं। हमारे बोलने से क्या होगा? और अगर हम उनके मुद्दों पर बोलेंगे तो क्या हम अपना काम ईमानदारी से कर पाएंगे? फिर हम बैंकर कम और राजनीतिक दल ज्यादा हो जाएंगे।"
"मगर तुममे से कई लोग तो फलानों के आंदोलन के बारे में उल्टा सीधा लिख रहे थे? हमने पढ़ा है ट्विटर पर।"
"वो तो लोग अपने व्यक्तिगत दायरे में कर रहे थे। ऐसे तो हममे से कई लोग फलाने आंदोलन का समर्थन भी तो कर रहे थे।
जिसकी जैसे समझ होगी वैसा ही तो करेगा। एक व्यक्ति की राय को पूरे वर्ग की राय कैसे मान सकते हैं?"
"ऐसा नहीं होता, अगर कोई सरकार का विरोध करता है तो सबको करना पड़ेगा। नहीं तो आप सरकार के समर्थक घोषित कर दिए जाएंगे।"
"मगर हम तो सरकार समर्थक या विरोधी हैं ही नहीं! हम कोई सत्तापक्ष या विपक्ष के नेता थोड़े ही हैं। हम तो सरकार के कुछ क़दमों का विरोध कर रहे हैं। आपका भी तो यही काम है, मुद्दों पर बात करना।"
"किस जमाने में जी रहे हैं आप?वो जमाना गया जब मुद्दों पर बात होती थी। अब पत्रकार भी खेमों में बँटे हुए हैं। अब केवल पक्षों की बात होती है। सब बातों की एक बात, या तो आप सरकार के विरोधी हैं या पक्षधर। अगर आप सरकार विरोधी हैं तो हर बात पर सरकार का विरोध करिये। तभी हम आपका साथ देंगे।"
एक पत्रकार साथ नहीं देगा तो दूसरा देगा। और अगर कोई भी नहीं देगा तो उससे मुद्दा ख़त्म थोड़े ही हो जाएगा। हो सकता है सरकार सारे बैंक बेच दे। उसके बाद भी बैंकों का मुद्दा तो बचा ही रहेगा।
ग्राहकों और कर्मचारियों के शोषण का मुद्दा, पूंजीपतियों द्वारा जनता के पैसे के गबन का मुद्दा, बैंकों के डूबने का मुद्दा। आजकल पत्रकारों को लगता है कि मुद्दे उनको वजह से ही हैं। अगर वे न उठायें तो मुद्दे ख़त्म हो जाएंगे। गलत। मुद्दे हैं तो पत्रकार हैं।
जो पत्रकार प्रासंगिक मुद्दे नहीं उठाएंगे उनको जनता नकार ही देगी। आज बहुत सारे सरकार समर्थक पत्रकारों का यही हाल है। तभी उनको TRP के लिए घोटाले करने पड़ते हैं, स्क्रीन पर चिल्लाना पड़ता है। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ लगभग सड़ चुका है। ये बहुत ही घातक स्थिति है।
आप कोई स्वतंत्र विचार नहीं रख सकते। आपको उस विचार का पक्ष देखना होगा। उस विचार से किसको फायदा किसको नुक्सान होगा ये देखना होगा। लोकतंत्र तो यहीं ख़त्म हो जाता है।
डिस्क्लेमर: इस पोस्ट से कई लोगों की भावनाएं आहत होने का खतरा है। उनसे मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। मैं किसी की भक्ति नहीं कर सकता। भगवान् की भी नहीं। जब भगवान् मिलेंगे तो उनसे भी सवाल पूछूंगा, सारे हिसाब मांगूंगा। पत्रकार तो दूर की बात है।
किये होंगे उन्होंने बहुत से अच्छे काम, मगर जो बात मुझे सही नहीं लगी वो मैंने लिखी है। यहां मैंने जो भी लिखा है अपनी समझ के मुताबिक लिखा है। ये पूर्णतः मेरी निजी राय है और इसे किसी भी प्रकार से बाकी बैंकर्स से न जोड़ा जाए।

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More from @BankerDihaadi

17 Mar
भांग खा के एडिटोरियल लिखते हैं क्या दैनिक जागरण वाले?

Point by Point rebuttal:

1 .अगर सरकार का काम बैंकों को चलना नहीं है तो बैंकों का राष्ट्रीयकरण क्यों किया गया था? क्यों आज तक बैंकों को चला रहे थे?

@JagranNews
2 .अगर सरकार का काम बैंकों का नियमन करना है तो क्यों PMC जैसे बैंक डूब गए? 1994 में 10 बैंकों को लाइसेंस दिया था उनमें से 4 ही बचे हैं? बाकी कहाँ गए? Yes bank को बचाने के लिए SBI का पैसा क्यों लगवाया गया?
3 .सरकार कह रही है कि कर्मचारियों का ध्यान रखा जाएगा तो भरोसा करना चाहिए? सरकार ने ऐसा कौनसा काम किया है जिससे उसपर भरोसा किया जा सके? नोटबंदी से काला धन वापिस आ गया?
Read 10 tweets
15 Mar
थ्रेड: #हमारे_नीति_निर्धारक

पिछले कुछ सालों से एक चीज बहुत स्पष्ट रूप से देखने में आ रही है और वो ये की सरकार के सलाहकार मंडल में केवल एक विशेष मानसिकता वाले लोगों की ही भर्ती हो रही है। शुरू से शुरू करते हैं :
V K Saraswat : नीति आयोग में वैज्ञानिक सलाहकार हैं। वैसे तो ये पद्म भूषन और पद्म श्री जैसे पुरस्कारों से नवाज़े गए हैं मगर साधारण विकिपीडिया सर्च इनके कच्चे चिट्ठे खोलने के लिए काफी है।

en.wikipedia.org/wiki/V._K._Sar…
पहले ये DRDO में महानिदेशक रहे। इनके DRDO के कार्यकाल के किस्से यहां पढ़ने को मिलेंगे। नीति आयोग में इनके नाम कोई बड़ा कारनामा नहीं है।

newindianexpress.com/magazine/2012/…
Read 44 tweets
14 Mar
मुंबई एक ज़माने में सात द्वीपों का समूह हुआ करता था जो कि आधिकारिक रूप से सुल्तान बहादुर शाह के पास था। उधर हुमायूँ की बढ़ती शक्ति को देख कर सुल्तान ने पुर्तगालियों की मदद लेने की योजना बनाई।

#StrikeToSaveIndia
सन 1534 में बसाइन की संधि के तहत सुल्तान ने मुंबई को पूरी तरह से पुर्तगालियों के हवाले कर दिया। बाद में अंग्रेजों ने मुंबई के आर्थिक, सामरिक और कूटनीतिक महत्व को समझा और एक वैवाहिक संधि के तहत पुर्तगालियों से मुंबई को दहेज़ में मांग लिया।

#StrikeToSaveIndia
अंग्रेजी राजा ने मात्र दस पौंड प्रति वर्ष में मुंबई ईस्ट इंडिया कंपनी को लीज पर दे दी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुंबई के सातों द्वीपों को मिला कर आधुनिक रूप दिया। आज मुंबई भारत की आर्थिक राजधानी है। बेवकूफ आदमी के लिए हीरे और कांच के टुकड़े में कोई फर्क नहीं होता।

#StrikeToSaveIndia
Read 7 tweets
14 Mar
पहले अलास्का रूस का भाग हुआ करता था। रूस के राजा अलेक्सेंडर द्वितीय को लगा कि अलास्का एक वीरान क्षेत्र है जहां बर्फ और बर्फीले जानवरों के अलावा कुछ नहीं मिलता। रूस के राजा को अलास्का की सुरक्षा भी महंगा काम लगता था।

#StrikeToSaveIndia
अलास्का को बेकार की जमीन मान कर 1867 में रूस ने अलास्का मात्र 7.2 मिलियन डॉलर्स में अमेरिका को बेच दिया जो आज के हिसाब से 895 करोड़ रूपये बैठता है। जहां रूस ने अलास्का को बेकार मान कर अमेरिका को बेचा था वहीँ उसे खरीद कर अमेरिका की लॉटरी ही लग गयी।

#StrikeToSaveIndia
1896 में अलास्का में भारी मात्रा में सोना मिला। बाद में अलास्का में पेट्रोलियम और गैस भी भरपूर मात्रा में मिले। विशेषज्ञों के अनुसार अलास्का की धरती में आज भी लगभग 15 लाख करोड़ रूपये का तेल और गैस मौजूद है। रूस आज भी अपनी इस गलती पर पछताता है।

#StrikeToSaveIndia
Read 5 tweets
13 Mar
उस समय तक देश में केवल एक ही चैनल आता था, दूरदर्शन। दूरदर्शन पर सबके लिए कुछ न कुछ आता था, किसानों से लेकर घरेलु महिलाओं और छात्रों से लेकर व्यवसाइयों लोगों तक। नीम का पेड़ और रामायण महाभारत जैसे सीरियल दूरदर्शन पर ही आये।

#StopSellingIndia
दिन में दो बार समाचार भी आते थे। वीकेंड पर फिल्म भी आती थी। अगर बाकी सरकारी चैनलों कि बात करें तो अच्छी अर्थपूर्ण चर्चा के लिए राज्यसभा टीवी ने अपना अलग स्थान बना लिया है (अब सरकार ने राज्यसभा टीवी को बंद करके केवल संसद टीवी शुरू किया है)।
#StopSellingIndia
दूरदर्शन हर भाषा के लिए अलग क्षेत्रीय चैनल भी चलाता है। मगर कई लोगों का कहना था कि दूरदर्शन बहुत बोरिंग चैनल है। इस पर तड़क-भड़क नहीं है, ग्लैमर नहीं है। फिर आये निजी चैनल। सब के लिए स्पेशल चैनल।
#StopSellingIndia
Read 7 tweets
13 Mar
नेताओं से भी ज्यादा खतरनाक हैं ये बिना रीढ़ के नौकरशाह। नेता तो आएंगे और चले जाएंगे। नेताओं को तो जनता हर पांच साल बाद परख लेती है। नौकरशाहों की एक एग्जाम पास कर लेने के बाद कोई परख नहीं होती।

#StopSellingIndia

businesstoday.in/current/econom… via @BT_India
ये नौकरशाह ही हैं जो सरकारी फरमानों को पूरा करने के लिए बैंक बंद करवाते फिरते हैं, शाखा प्रबंधकों पर FIR करवाते फिरते हैं, बैंकों के बाहर शहरभर का कचरा डलवा कर अपने मानसिक दिवालियेपन का साक्षात् प्रदर्शन करते हैं।
योजना आयोग में भी तो नौकरशाह ही भरे थे, जो एक ढंग की योजना नहीं बना पाते थे (MGNREGA में योजना आयोग का हाथ नहीं था। अब योजना आयोग की जगह नीति आयोग आ गया है। यहां भी नौकरशाह ही भरे हैं।

#StopSellingIndia
#StopSellingIndia
#StopPrivatization
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