"देखोजी, वह तो उपासक लोग भी 'यह' के रूपमें ब्रह्मको जानते हैं। 'यह' के रूपसे ब्रह्मको जानेगा तो उससे अलग रहेगा। द्वैतवादका यही सिद्धान्त है। 'इदं' रूपसे उन्होंने ब्रह्मको जाना तो 'अहं' का लय कभी 'इदं' में होना सम्भवं ही नहीं है।
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पहले-पहल जब उनका सिद्धान्त अपनी दष्टिमें आया तो हम तो चकित रह गये। बड़ा आश्चर्य हुआ! ओ-हो, इतने अनुभवी, इतने विद्वान् ! जब 'यह' के रूपमें उन्होंने परमात्माको स्वीकार किया, तो 'मैं'का लय किसी 'यह' में कभी हो ही नहीं सकता। यदि 'मैं' का लय होगा तो 'मैं' का साक्षी कौन रहेगा?
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तो इसलिए, यदि अन्यरूप परमात्मामें जीवका मिलना होता है तो भेद स्वीकार करना ही सिद्धान्त हो सकता है। परन्तु, यदि स्वरूप-भूत परमात्मामें अन्यका लय होता है, तो वहाँ द्वैत रहनेकी कोई आवश्यकता नहीं है।
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अत: जहाँ अपनी आत्माकी प्रधानतासे एकता होगी, वहाँ केवल अद्वैत रहेगा और जहाँ अन्य आत्माकी प्रधानतासे एकता होगी, वहाँ किंचित्-भेद रहेगा। यह तो बड़ा युक्ति-युक्त है।" 4/4 #स्वामीअखंडानंदसरस्वतीजी
"इसी प्रसंगमें आपको एक बात और बता देते हैं कि निर्गुण-परमात्मासे यदि एकता होगी तो उसमें से निकलनेके लिए कोई भी गुणका भेद नहीं रहेगा कि आपको वहाँसे निकाले और
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सगुण-परमात्मामें जब लय होगा तो गुणका भेद होनेसे सगुण परमात्मा स्वयं कभी स्वेच्छासे अपने में छिपी हुई चीजको निकाल करके बाहर भी रख सकता है। माने वहाँ पराधीन अर्थात् मोक्षको भी ईश्वरके अधीन स्वीकार करना पड़ेगा। इसलिए, ईश्वरेच्छया जीवको आना-जाना भी स्वीकार करना पड़ेगा।
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अब बीचमें आर्य-समाजियोंका सिद्धान्त ले लो! चाहे तो जैमिनीका ले लो! इनके यहाँ भी मोक्षसे आना-जाना होता है। स्वर्ग-रूप मोक्ष तो मानते हैं।
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परन्तु, विचार तो यह है कि वे ज्ञानसे मोक्ष मानते हैं कि उपासनासे मोक्ष मानते हैं, उनके मतमें मोक्ष मानते हैं कि उपासनसे मोक्ष मानते हैं कि कर्मसे मोक्ष मानते हैं ? तो जो ज्ञानसे मोक्ष मानते हैं, उनके मतमें तो मोक्ष अपना स्वरूप है।
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पहलेसे ही माने अज्ञान कालमें भी हम मुक्त ही हैं। ज्ञानसे तो केवल पहलेसे सिद्ध मुक्तिका बोध हुआ। तो इस मुक्तिके मिटनेका तो कोई कारण ही नहीं। क्योंकि, यह तो स्वरूपभूत है।
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परन्तु, जहाँ ईश्वरकी कृपासे मोक्ष मिला, वहाँ ईश्वरकी नाराजगीसे अथवा ईश्वरकी कृपा-विशेषसे मोक्षमें हानि भी हो जायेगी। वह ठीक है। क्योंकि ईश्वर सर्वसमर्थ है, सर्वशक्तिमान् है। परन्तु, जहाँ कर्मसे मोक्ष मिला? तो कर्म तो सीमित होता है न! हमारा ही प्रयत्न है कर्म! अत: सीमित है।
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सो मोक्ष भी सीमित होगा। इसलिए, जिन लोगोंने कर्मसे मोक्ष माना, उन्होंने मोक्षकी सीमा भी मानी और वे बड़े बुद्धिमान् हैं।यदि वे कर्मसे मोक्ष मानकर, मोक्षकी सीमा न मानते तो हम उनको बेवकूफ कहते। लेकिन, वे तो कर्मसे मोक्ष मानते हैं और वहाँसे आना मानते हैं-यह ठीक है।
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जो उपासनासे मोक्ष मानते हैं, वे ईश्वर जब अवतार लेता है, तब अपने पार्षदोंको भी लेकर आता है, अपनेमें लीन जीवोंको भी लेकर आता है, ऐसा मानते हैं और इससे ईश्वरकी महिमा ही प्रकट होती है।
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परन्तु, ज्ञान तो अपने स्वरूप-भूत मोक्षका ही बोधक है।
यह बात हुई कि अपना आत्मा ही ब्रह्म है यदि यह ज्ञान होगा, तब तो कैवल्य-मोक्षकी प्राप्ति होगी और यदि 'यह' ब्रह्म है, ऐसा ज्ञान होगा अथवा 'वह' ब्रह्म है, ऐसा ज्ञान होगा तो कैवल्य-मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती।
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इसलिए, कैवल्यं-मोक्षका हेतु होनेके कारण 'अयमात्मा ब्रह्म' यह महावाक्य है।
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पूर्व-मीमांसक एवं आर्य-समाजियोंने जो कर्मसे मोक्ष माना है, उसका अर्थ है कि छत्तीस हजार वर्ष तक सुख-विशेषका आस्वादन । एक तरहका स्वर्ग जो है, उसीको वे मोक्ष कहते हैं और अपने दृष्टिकोणसे वे ठीक ही कहते हैं।"
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Looking at the following explanation on the Moksha of Karmakanda, Upasana Kanda, and Gyana Kanda I fail to understand the point of Dvaita-Advaita debate.
"पराशरी होरा में ग्रहों को देवता कहा गया जो जीवों को कर्मफल देने के लिये अवतरित हुए। परन्तु दृक्पक्षवादियों के अनुसार आकाशीय मृतपिण्ड ही कर्मफल देते हैं और पूजन द्वारा शान्त होते हैं! ऐसे नक्षत्रसूचकों से बेहतर आधुनिक वैज्ञानिक हैं जो मुर्दा पिण्डों में दैवी शक्ति नहीं मानते।1/
मुर्दा पिण्डों में ज्योतिषीय प्रभाव मानना संसार की सबसे बड़ी मूर्खता है । देवता यदि हैं तो अदृश्य हैं । बाह्य चक्षु से जो दिखते हैं वे ऐन्द्रिक विषय हैं,देवता नहीं । ज्योतिष का प्रमाण फलादेश की जाँच है,न कि ऐन्द्रिक नक्षत्रसूचन । 2/
ऐन्द्रिक नक्षत्रसूचन चाण्डालकर्म है । मनुस्मृति में छ वेदाङ्गों की बड़ाई है परन्तु नक्षत्रसूचकों की चाण्डाल तथा पङ्क्तिदूषक कहकर निन्दा है । 3/
"कोलकाता का भद्रलोक बेसिकली क्या है? भद्रलोक एक तरह का आप समझ लीजिये साहित्य फाइन आर्ट्स इत्यादि में रुचि रखने वाला पढा लिखा मध्यम वर्गीय तबका। 1/3
भद्रलोक थियोरेटिकली इज नोट सेम ऐज कास्ट लेकिन यह भी फैक्ट है कि भद्रलोक में ज्यादातर लोग जो हैं वह, ब्राह्मण, कायस्थ और वैद्या ये जो तीन कास्ट हैं बेंगाल कि, ज्यादातर इससे आये बिकाज ओफ हिस्टोरिकल रीजन्स."
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It's basically the Bengali equivalent of "Gora Gaa**d Khujhau Class" (or Double Distilled Raibahaduri Class) which was born (as a local brown cooley) to serve the needs of the colonial state.
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You are talking as if @govardhanmath handle is operated by Shankaracharya Ji himself. The handle is operated most likely by some caste supremacist Tambraham. I was blocked when I used to take on Steppe Aryan gang of Tambrahams.
एक बार नारदजी को हिमालय में घूमते हुये वहाँ की रमणीयता देख कर समाधि लग गयी। इन्द्र भगवान को लगा कि ये मेरा स्वर्ग छीनना चाहते हैं। गोस्वामी तुलसीदास को एक ब्रह्मदर्शी महात्मा के प्रति ऐसा सोचना (कि वह विषयों को चाहेगा) सहन नही हुआ और उन्होंने अपनी टिप्पणी दी।
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भावार्थ:- जगत में जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौए की तरह सबसे डरते हैं॥
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"सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥"
भावार्थ:-जैसे मूर्ख कुत्ता सिंह को देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और वह मूर्ख यह समझे कि कहीं उस हड्डी को सिंह छीन न ले, वैसे ही इन्द्र को (नारदजी मेरा राज्य छीन लेंगे, ऐसा सोचते) लाज नहीं आई॥
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Is there any connection between Sadguru Jaggi talking about freeing temples from Govt control and attack on him that followed?
I am not saying whatever Jaggi said is right. Aise aise kayi statements diye honge Jaggi Bhai ne. Meri curiosity ye thee ki abhee kyon ye sab bahar aa raha hai. Duniya mein kuch bhee bina matlab ke nahin hota.
This review of a book on Hindu Astronomy (by a Gora) published in Nature magazine published in the year 1896.
cc @jayasartn@Koenraad_Elst
Two things to note: 1) Astronomical data in Hindu texts contradicts AIT and it makes the book reviewer uncomfortable.
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2) Hindus had a more accurate estimate of the rate of precession than Ptolemy but check any book on astronomy and its section on Precession, it simply ignores Hindu contribution (which IMO is original, Greeks borrowed from us) with proud mention of Hipparchus and Ptolemy.
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"He begins by a discussion of the ancient zodiac, and its general correspondence amongst the Indians, Chinese, Chaldæans, Arabians, and Egyptians;
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