"पराशरी होरा में ग्रहों को देवता कहा गया जो जीवों को कर्मफल देने के लिये अवतरित हुए। परन्तु दृक्पक्षवादियों के अनुसार आकाशीय मृतपिण्ड ही कर्मफल देते हैं और पूजन द्वारा शान्त होते हैं! ऐसे नक्षत्रसूचकों से बेहतर आधुनिक वैज्ञानिक हैं जो मुर्दा पिण्डों में दैवी शक्ति नहीं मानते।1/
मुर्दा पिण्डों में ज्योतिषीय प्रभाव मानना संसार की सबसे बड़ी मूर्खता है । देवता यदि हैं तो अदृश्य हैं । बाह्य चक्षु से जो दिखते हैं वे ऐन्द्रिक विषय हैं,देवता नहीं । ज्योतिष का प्रमाण फलादेश की जाँच है,न कि ऐन्द्रिक नक्षत्रसूचन । 2/
ऐन्द्रिक नक्षत्रसूचन चाण्डालकर्म है । मनुस्मृति में छ वेदाङ्गों की बड़ाई है परन्तु नक्षत्रसूचकों की चाण्डाल तथा पङ्क्तिदूषक कहकर निन्दा है । 3/
भौतिकवादियों को देवता में भी तभी विश्वास होगा जब परखनली में डालकर जाँच न कर लें और देवता के भार,चुम्बकत्व,आदि भौतिक लक्षणों का सत्यापन न कर लें । भौतिक पदार्थों में भौतिक लक्षण होते हैं तथा अभौतिक तत्वों में अभौतिक लक्षण ।" #विनयझा
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Finally found a Brahmin who speaks on Jyotish without any bias induced by Padre Indologist theories (of Sanskrit Astronomy) and the urge to be "Scientific".
cc @Kal_Chiron
This point on Surya Siddhanta by Vinay Jha. You won't find it anywhere in "Angreji Padhe Likhe Scientifc Discourse" on Surya Siddhanta.
"पञ्चसिद्वान्तिका−१⁄२ में वराहमिहिर ने लिखा कि पूर्वाचार्यों के मतानुसार बीज के रहस्य को वे स्पष्ट करेंगे ।
1/
इस प्रकरण का नाम ही करणावतार है,जिसका अर्थ है सिद्धान्तग्रन्थ पर आधारित व्यावहारिक गणना को सुगम बनाने वाली करणप्रक्रिया । परन्तु उपलब्ध पञ्चसिद्वान्तिका में करणप्रक्रिया स्पष्ट नहीं है,सम्पूर्ण मूल ग्रन्थ बचाया नहीं जा सका ।
2/
मकरन्दीय करणप्रक्रिया भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय रही है । शाके १४०० हेतु काशी में बनी मकरन्दसारिणी में इसे “श्रीसूर्यसिद्धान्तमतेन” कहा गया जो सत्य है । .... बीज का रहस्य आजतक किसी ने प्रकाशित नहीं किया,केवल बीजों के गणितीय मान मध्ययुगीन सारिणियों में हैं ।
3/
पूर्णाङ्क महायुग−भगणमानों द्वारा ग्रहगणित किया जाता है,तत्पश्चात उसमें बीजसंस्कार करके मध्यमग्रह बनाया जाता है । ईसाई पादरी बर्जेस पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अज्ञानतावश सूर्यसिद्धान्त में बीजसंस्कार को नहीं माना ।
4/
आचार्य रङ्गनाथ के ही काल में सूर्यसिद्धान्त की जो पाण्डुलिपि उपलब्ध थी उसमें ”बीजोपनयन−अध्याय” तो था किन्तु बीजप्रक्रिया को किसी मूर्ख ने इस्लामी ग्रहगणित के तुल्य बनाने की कुचेष्टा में भ्रष्ट कर डाला और उस प्रयास में असफल होने पर अधूरा ही छोड़ दिया ।
5/
बर्जेस को पता नहीं था कि सूर्यसिद्धान्त की सैकड़ों सारिणियाँ और करणप्रक्रियायें उपलब्ध रहीं हैं जिनकी सहायता से बीजोपनयनाध्याय को पुनर्निर्मित किया जा सकता है ।
6/
बर्जेस की गलत पद्धति पर ही स्वर्गीय(?) रामयत्न ओझा ने गलत सारिणियाँ बना दीं जिनसे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का निर्बीज विश्वपञ्चाङ्गं प्रकाशित होता है,उससे पहले बीजरहित पञ्चाङ्ग पूरे इतिहास में कभी किसी ने नहीं बनाया था ।
7/
बीज के रहस्य पर ही सूर्यसिद्धान्त और ब्रह्मसिद्धान्त का परस्पर सम्बन्ध स्थापित होता है । ब्रह्माजी की परमायु का गणित ब्रह्मसिद्धान्त है,उसी का कल्पगणित सूर्यसिद्धान्त कहलाता है ।
8/
ब्रह्मसिद्धान्त केवल सृष्टि के आरम्भ में प्रकट होता है । सूर्यसिद्धान्त प्रत्येक महायुग में प्रकट होता है — सतयुग के अन्त में । सतयुग में फलकामी विद्याओं की आवश्यकता नहीं पड़ती,और सतयुग के पश्चात सम्पूर्ण सूर्यसिद्धान्त को ग्रहण करने की क्षमता किसी में नहीं रहती,
9/
अतः सतयुग के अन्त में सूर्यसिद्धान्त प्रकट होता है शेष तीनों युगों के लिये । कलियुग में समस्त वेद−वेदाङ्गों सहित सूर्यसिद्धान्त की भी अवमानना होने लगती है । धर्म की एक पाद को कलियुग में जो लोग थामे रहते है उनके लिये सूर्यसिद्धान्त है ।
10/
जो अधर्म पर हैं उनको सूर्यसिद्धान्त देंगे भी तो समझने से पहले ही विवाद खड़ा कर देंगे ।
अन्य सारे आर्ष सिद्धान्त सूर्यसिद्धान्त के ही विभिन्न कालखण्डों में प्रकट तात्कालिक तन्त्रग्रन्थ तथा करणग्रन्थ हैं ।
11/
उपलब्ध सूर्यसिद्धान्त भी सिद्धान्त के साथ−साथ एक तन्त्रग्रन्थ भी है क्योंकि यह पिछले सतयुग के अन्त की ग्रहस्थिति से गणना का निर्देश देता है । परन्तु उस समय के बीजसंस्कार का अध्याय किसी मूर्ख ने मध्ययुग में भ्रष्ट कर दिया ।
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किसी युगारम्भ से गणना की प्रक्रिया को तन्त्रप्रक्रिया कहते हैं,अन्य किसी काल के बीज द्वारा जो प्रक्रिया हो उसे करण कहते हैं । बिना कम्प्यूटर के सीधे सिद्धान्तग्रन्थ द्वारा कोई मानव पञ्चाङ्ग नहीं बना सकता ।
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कम्प्यूटर उपलब्ध हो तो करण वा तन्त्र की आवश्यकता नहीं,सीधे सिद्धान्त द्वारा गणना कर सकते हैं । परन्तु कम्प्यूटर में भी यदि करणप्रक्रिया को अपनाया जाय तो गति बढ़ जाती है क्योंकि लम्बी संख्याओं से पाला नहीं पड़ता और गणना की शुद्धि भी बढ़ जाती है ।
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मन्दफल और शीघ्रफल की गलत व्याख्यायें बर्जेस ने दी क्योंकि उनको मेरुकेन्द्रित सौरगणित का ज्ञान नहीं था । सही गणित मकरन्द जैसी प्राचीन सारिणियों में है जिसपर बर्जेस ने ध्यान नहीं दिया । परन्तु उन सारिणियों में केवल परिणाम हैं,सूत्र नहीं ।
15/
सूत्र सूर्यसिद्धान्त ग्रन्थ में है जिसकी गणितीय व्याख्या आजतक किसी गणितज्ञ ने लिखी ही नहीं । रङ्गनाथ दार्शनिक थे तो बर्जेस ईसाई पादरी ।
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करणप्रक्रिया का अर्थ यह है कि सिद्धान्तग्रन्थ द्वारा पहले किसी पास वाले व्यतीत समय तक का मध्यम ग्रहगणित बनाकर रख लें और फिर उस समय से वाञ्छित समय तक की गणना करके जोड़ लें ।
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मकरन्द सारिणी शाके १४०० अथवा १४७८ ईस्वी हेतु बनी थी,अर्थात् उस समय तक के ग्रहस्पष्ट के बाद की ही गणना हर वर्ष करनी पड़ती ।
18/
परन्तु अन्य करणग्रन्थकारों की तरह मकरन्द में भी ऐसी करणप्रक्रिया का अनुसरण जानबूझकर किया गया ताकि कुछ दशकों वा एकाध शताब्दी के पश्चात करणग्रन्थ पुनः बनाना पड़े । दासता के कारण सैद्धान्तिक करणग्रन्थों का नवीनीकरण शाके १४०० के पश्चात नहीं हो सका ।
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उससे चार दशक पश्चात अरब भौतिक−दृक्कपक्षवादी ज्योतिषियों के अनुचर गणेश दैवज्ञ ने सिद्धान्त ज्योतिष की नींव ही खोद डाली ।"
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"देखोजी, वह तो उपासक लोग भी 'यह' के रूपमें ब्रह्मको जानते हैं। 'यह' के रूपसे ब्रह्मको जानेगा तो उससे अलग रहेगा। द्वैतवादका यही सिद्धान्त है। 'इदं' रूपसे उन्होंने ब्रह्मको जाना तो 'अहं' का लय कभी 'इदं' में होना सम्भवं ही नहीं है।
1/
पहले-पहल जब उनका सिद्धान्त अपनी दष्टिमें आया तो हम तो चकित रह गये। बड़ा आश्चर्य हुआ! ओ-हो, इतने अनुभवी, इतने विद्वान् ! जब 'यह' के रूपमें उन्होंने परमात्माको स्वीकार किया, तो 'मैं'का लय किसी 'यह' में कभी हो ही नहीं सकता। यदि 'मैं' का लय होगा तो 'मैं' का साक्षी कौन रहेगा?
2/
तो इसलिए, यदि अन्यरूप परमात्मामें जीवका मिलना होता है तो भेद स्वीकार करना ही सिद्धान्त हो सकता है। परन्तु, यदि स्वरूप-भूत परमात्मामें अन्यका लय होता है, तो वहाँ द्वैत रहनेकी कोई आवश्यकता नहीं है।
3/
"कोलकाता का भद्रलोक बेसिकली क्या है? भद्रलोक एक तरह का आप समझ लीजिये साहित्य फाइन आर्ट्स इत्यादि में रुचि रखने वाला पढा लिखा मध्यम वर्गीय तबका। 1/3
भद्रलोक थियोरेटिकली इज नोट सेम ऐज कास्ट लेकिन यह भी फैक्ट है कि भद्रलोक में ज्यादातर लोग जो हैं वह, ब्राह्मण, कायस्थ और वैद्या ये जो तीन कास्ट हैं बेंगाल कि, ज्यादातर इससे आये बिकाज ओफ हिस्टोरिकल रीजन्स."
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It's basically the Bengali equivalent of "Gora Gaa**d Khujhau Class" (or Double Distilled Raibahaduri Class) which was born (as a local brown cooley) to serve the needs of the colonial state.
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You are talking as if @govardhanmath handle is operated by Shankaracharya Ji himself. The handle is operated most likely by some caste supremacist Tambraham. I was blocked when I used to take on Steppe Aryan gang of Tambrahams.
एक बार नारदजी को हिमालय में घूमते हुये वहाँ की रमणीयता देख कर समाधि लग गयी। इन्द्र भगवान को लगा कि ये मेरा स्वर्ग छीनना चाहते हैं। गोस्वामी तुलसीदास को एक ब्रह्मदर्शी महात्मा के प्रति ऐसा सोचना (कि वह विषयों को चाहेगा) सहन नही हुआ और उन्होंने अपनी टिप्पणी दी।
1/
भावार्थ:- जगत में जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौए की तरह सबसे डरते हैं॥
2/
"सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥"
भावार्थ:-जैसे मूर्ख कुत्ता सिंह को देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और वह मूर्ख यह समझे कि कहीं उस हड्डी को सिंह छीन न ले, वैसे ही इन्द्र को (नारदजी मेरा राज्य छीन लेंगे, ऐसा सोचते) लाज नहीं आई॥
3/
Is there any connection between Sadguru Jaggi talking about freeing temples from Govt control and attack on him that followed?
I am not saying whatever Jaggi said is right. Aise aise kayi statements diye honge Jaggi Bhai ne. Meri curiosity ye thee ki abhee kyon ye sab bahar aa raha hai. Duniya mein kuch bhee bina matlab ke nahin hota.
This review of a book on Hindu Astronomy (by a Gora) published in Nature magazine published in the year 1896.
cc @jayasartn@Koenraad_Elst
Two things to note: 1) Astronomical data in Hindu texts contradicts AIT and it makes the book reviewer uncomfortable.
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2) Hindus had a more accurate estimate of the rate of precession than Ptolemy but check any book on astronomy and its section on Precession, it simply ignores Hindu contribution (which IMO is original, Greeks borrowed from us) with proud mention of Hipparchus and Ptolemy.
2/
"He begins by a discussion of the ancient zodiac, and its general correspondence amongst the Indians, Chinese, Chaldæans, Arabians, and Egyptians;
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